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LAC पर बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया भारत के लिए ठीक नहीं होगी, मुमकिन है कि चीन भी इसी इंतजार में हो

सरकार पर बेहद दबाव है कि सर्जिकल स्ट्राइक्स या बालाकोट जैसी, किसी सैन्य कार्रवाई को हरी झंडी देने का फैसला ले.

सेना प्रमुख एमएम नरवणे 24 जून को पूर्वी लद्दाख में जमीनी हालात का जायजा लेने के दौरान सैनिकों के साथ बातचीत करते हुए, फाइल फोटो.

ये बात अब ढकी-छिपी नहीं है कि चीन भारी बल के साथ, भारत की सीमाओं पर आ गया है, ख़ासकर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के संसद में दिए गए बयान के बाद. नई दिल्ली के लिए ज़्यादा बड़ी चिंता की बात, बीजिंग द्वारा चुना गया समय है. भारत को एक दोहरा झटका लगा है- एक राष्ट्रीय हेल्थ इमर्जेंसी, और साथ में ऐसी अर्थव्यवस्था जो भारी दबाव में है. चीन ने कोविड का पूरा फायदा उठाते हुए भारत पर हमला किया है.

गलवान में चीनी घुसपैठ की एक तुरंत प्रतिक्रिया ये थी कि इसे (सरकार की) ख़ुफिया विफलता बता दिया गया. सेना और खुफिया एजेंसियां निश्चित रूप से, चीन की सैन्य स्थिति (नियमित अवलोकन) का पता लगा सकती थीं, लेकिन चीन के ‘इरादे’ या स्थिति को बिगाड़ने की मंशा का नहीं. चीन के भीतर और उसकी सीमाओं पर क्या हो रहा है, उसके गहन विश्लेषण से संभवत: पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के इरादों का, कुछ संकेत मिल सकता था, लेकिन कोविड की स्थिति ने दुनिया भर में, धुएं की परत खड़ी कर दी, और ध्यान विचलित हो गया.

चीन लगातार सीमाओं की निशानदेही करने से इनकार करता रहा है, जिससे उन्हें रेंगकर आगे बढ़ने, और अतिक्रमित इलाक़े पर अपना दावा ठोंकने में सुविधा हो गई. वर्तमान गतिरोध में भी, चीन का पीछे हटकर एक ‘नो मैन ज़ोन’ बनाने का विचार, असल में एक चाल थी कि भारत के कुछ सीमावर्ती इलाक़ों को बेकार बना दिया जाए. दबदबा क़ायम करना पीएलए का मूल सिद्धांत है, और वो इसी मक़सद के अभियान चलाती है. लेकिन लोकतांत्रिक भारत की रक्षा सेनाएं, जैसा कि उनका नाम है, इसकी ज़मीन और इलाक़ों की सुरक्षा के लिए स्थापित की गई हैं. ‘अपना एक इंच इलाक़ा भी नहीं देंगे’ का राजनीतिक नारा, हमारी मौजूदा दिशा को दर्शाता है.


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अतीत की बड़ी राजनीतिक भूलें

भारतीय राजनीतिक सिस्टम ने, अतीत में उदारता दिखाई थी, और हमारी रक्षा सेनाओं की कड़ी मेहनत से हासिल की गई उपलब्धियों को लौटा दिया था- चाहे वो हाजी पीर दर्रा हो, या 93,000 युद्ध बंदी (पीओडब्ल्यू)- दुश्मन से कोई गारंटी मिले बिना. भारत को बहुत कड़वा सबक़ मिला है. मुझे एक कूटनीतिज्ञ का लेख पढ़कर निराशा हुई कि चूंकि भारत ‘वन चाइना पॉलिसी’, और तिब्बत के चीन का हिस्सा होने को लेकर प्रतिबद्ध है, इसलिए उसके लिए सही नहीं होगा कि इन प्रतिबद्धताओं के खिलाफ जाए.

इसकी तुलना हमारी इस जानकारी से कीजिए कि चीन ने कभी विरले ही दस्तख़त किए हुए किसी द्विपक्षीय समझौते का सम्मान किया है. पाकिस्तान ने शक्सगाम घाटी– जो भारत का इलाक़ा थी- 1963 में चीन को दे दी, और किसी ने पलक नहीं झपकाई. 2020 में जब चीन ने भारत के साथ हुए, हर द्विपक्षीय समझौते को ख़ारिज करने का, एक आक्रामक रुख़ अपना लिया है, तो भारत के लिए भी तर्कसम्मत ही है कि उसकी आक्रामकता का जवाब देने के लिए, वन चाइना पॉलिसी पर पुनर्विचार करे, और तिब्बत वासियों के संघर्ष में उनका साथ दे.

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भारत में एक पिछली सरकार ने भी, समकालीन वास्तविकताओं से मेल खाने के लिए, विदेश नीति में कुछ बड़े बदलाव किए थे- इज़राइल के साथ कूटनीतिक रिश्ते क़ायम करना, ऐसा ही एक क़दम था. इज़राइल अब भारत का रणनीतिक साझीदार है. आज चीन के धूर्त बर्ताव का काफी कुछ दोष इतिहास में है- रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर ने सबसे बड़ी ग़लती की, कि ड्रैगन को खिलाया-पिलाया, और 1972 में उसे जगा दिया, और दुनिया उसका ख़ामियाज़ा 2020 में भुगत रही है.

ख़ुफिया जानकारी कभी परफेक्ट नहीं होती

किसी ख़ुफिया ख़बर या विश्लेषण के मिलने के बाद, उस पर होने वाला विचार-विमर्श काफी जटिल होता है, किसी पहेली की तरह. कोई जानकारी ऐसी नहीं होती जो ‘तुच्छ’ हो, या ‘कार्रवाई योग्य न हो’. स्पेशल एजेंसियों द्वारा परतों में जानकारी हासिल की जाती है, फिर उसकी जांच होती है, उसे छाना जाता है, और विश्लेषण करने के बाद, अगले स्तर तक ले जाया जाता है. ख़ुफिया जानकारी कभी परफेक्ट नहीं होती. कुछ सुरक्षात्मक क़दम उठाए जाते हैं, और साथ में जानकारी को सही साबित करने का काम भी चलता रहता है. इन सब चरणों के बीच, सरकार को हमेशा घटनाक्रम से अवगत रखा जाता है.

एक बार पता चल जाने के बाद, विरोधी की चाल का तोड़ निकालना और भी जटिल काम होता है. आप ये भी कर सकते हैं कि अनजान बने रहें, उनकी हरकतों पर नज़र रखें, और उन्हें ‘बाहर फेंकने की’ जवाबी कार्रवाई की योजना बनाएं. लेकिन ये इस पर निर्भर करता है कि दोनों पक्षों की सैन्य स्थितियां क्या हैं, ये और कितनी बिगड़ सकती हैं, और उसके क्या नतीजे हो सकते हैं. कभी-कभी ज़रूरी हो जाता है, कि दुश्मन की प्रतिक्रिया का पहले से अनुमान लगाते हुए, हम अपनी सैन्य स्थितियों में बदलाव करें, और जिम्मेदारियों को फिर से नामित करें. जवाब देने के लिए एक व्यापक योजना बनाई जाती है. सेना और सरकार में निर्णय लेने के स्तर पर बैठे लोगों के लिए, किसी फैसले पर पहुंचना आसान नहीं होता. बहुत कुछ हालात की गंभीरता, और हमारी सहनशीलता पर निर्भर करता है. इसमें बहुत से दूसरे फैक्टर्स भी होते हैं- जैसे इसकी जटिलताओं को समझना, कार्रवाई की मंज़ूरी देना, उद्देश्यों को परिभाषित करना, तय करना कि क्या अंतिम स्थिति हासिल करनी है, विरोधी की संभावित प्रतिक्रिया का पूर्वानुमान लगाना, उद्देश्य/अंतिम स्थिति हासिल करने का आश्वासन लेना, नुक़सान की रोकथाम पर स्पष्ट होना, वैश्विक प्रतिक्रिया का पूर्वानुमान लगाना, अर्थव्यवस्था/ व्यापार/ विदेश संबंधों पर पड़ने वाले संभावित असर से अवगत रहना और ‘कुछ न करने’ के विकल्पों और नतीजों को देखना, वग़ैरह वग़ैरह.

आमतौर पर, ये एक ‘ऊडा’ (ऑब्ज़र्व, एरिएंट, डिसाइड, एक्ट) लूप होता है, और इसके नतीजे गंभीर हो सकते हैं. ‘उन्हें बाहर फेंकने की’ सीधी सी इच्छा को, ऐसे बहुत से चरणों से गुज़रना पड़ता है. बिना सोची-समझी प्रतिक्रिया (राजनीतिक और दूसरी मजबूरियों के बावजूद) बिल्कुल भी उचित नहीं होगी, और मुमकिन है कि विरोधी भी इसी इंतज़ार में हों. उन्होंने अपनी कार्रवाई की योजना बहुत बारीकी से बनाई होगी. सब जानते हैं कि 1971 में, पूर्वी पाकिस्तान में चढ़ाई करने से पहले, फील्ड मार्शल मानेकशॉ ने तब की प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी से मुलाक़ात का समय मांगा था. इस बीच इंदिरा गांधी दूसरी सरकारों के प्रमुखों से विचार-विमर्श करने, और समर्थन हासिल करने के लिए बाहर भी गईं. इसकी तैयारियों के दौरान बहुत सी कूटनीतिक पहलक़दमियां की गईं. किसी घुसपैठिये को धकेल कर ‘बाहर फेंक देना’ एक सीधी सी कार्रवाई नहीं होती. पूरा जोखिम रहता है कि आप किसी जाल में फंस जाएं.


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सैन्य इनवेंट्री को भरना

लोग जानते हैं कि सरकार सैन्य इनवेंट्री में आई कमी को पूरा करने की भरसक कोशिश कर रही है. हमें समझना होगा कि दो दर्जन लड़ाकू विमान ख़रीदने से काम नहीं चलेगा. इन विमानों को मौजूदा इनवेंट्री से मैच करने में बरसों लग सकते हैं. हमने कई सबक़ सीखे हैं; कारगिल युद्ध और ऑपरेशन पराक्रम की शुरुआत में की गईं, बहुत सी परिचालन ख़रीदारियों को फलित होने में बरसों लग गए. अगर ख़रीदी गई मशीनें जल्दी से, मौजूदा भारतीय मानकों के अनुरूप उन्नत नहीं की जातीं, तो उनसे परिचालन क्रू को ट्रेनिंग दी जा सकती है, जिससे ऑपरेशनल सिस्टम्स के उड़ान के घंटे बच सकते हैं.

निर्णय लेने का बोझ

अतीत में हम में से बहुतों ने, आपात स्थितियों में निर्णय लेने की प्रक्रिया को अनुभव किया है, उसमें हिस्सा लिया है. सरकार पर बेहद दबाव है कि सेना को, सर्जिकल स्ट्राइक्स या बालाकोट जैसी, किसी ‘डीप स्ट्राइक’ के लिए हरी झंडी देने का फैसला ले.

मौजूदा सरकार ने कुछ बेमिसाल साहसी फैसले लिए हैं. इन दृढ़ फैसलों की झलक उस संकल्प में दिखती है, जिसके साथ हमारे जवानों ने गलवान घाटी में, चीनियों से हाथापाई की, लड़ाई की और उन्हें ढेर किया. अतीत में सरकारें आमतौर से ये समझती थीं, कि सीमा पार की सैन्य कार्रवाइयां बहुत जोखिम भरी होती हैं, और हवाई शक्ति के इस्तेमाल से स्थिति और बिगड़ सकती है.

किसी भी सरकार के लिए सीमा के उस पार, छोटी से छोटी सैन्य कार्रवाई को मंज़ूरी देना, एक बहुत मुश्किल फैसला होता है. ऐसा फैसला लेने के लिए सेना और उसके सामर्थ्य में विश्वास होना बहुत ज़रूरी है. ऑपरेशन पराक्रम इसकी एक मिसाल है. एक फैसले पर पहुंचने में सरकार को बहुत समय लगा, लेकिन तमाम तैयारियां पूरी हो जाने के बाद, उसे टाल दिया गया. आज हम भाग्यशाली हैं कि सरकार और सेना एक टीम की तरह काम करती हैं, और दोनों का एक दूसरे पर, पूरा विश्वास और भरोसा है. ऐसे में, हो सकता है कि सरकार का बहुत सोचा-समझा फैसला रहा हो कि सरहद पर हो रही घटनाओं को सार्वजनिक न किया जाए, इस अनुमान से बहुत दूर कि सरकार कुछ बताने से डरती है. हमारे सैनिकों की सलामती, हमारी योजनाओं की सुरक्षा और स्थिति की समझ बहुत ज़रूरी है. कोई ज़रूरत नहीं थी कि लोगों को विस्तृत जानकारी देने की जल्दी की जाए.

घुमावदार बहसें

एलएसी गतिरोध पर संसद और मीडिया में चल रही बहसें, राजनीतिक हमलों तक सीमित हैं- कुछ अनुभवी और जानकार प्रोफेशनल्स भी इस लड़ाई में शामिल होकर, कोई ऑपरेशन शुरू होने से पहली ही, जांच की मांग कर रहे हैं. मीडिया भी सीमा पर बदल रही परिस्थितियों पर, डिबेट्स आयोजित कर रहा है, और अपने विवरण को चित्रों से स्पष्ट करने के लिए, कमर्शियल सेटेलाइट तस्वीरें इस्तेमाल कर रहा है, जिसके ग़लत होने की संभावना हो सकती है, जब तक कि वो जानकारी सरकार ने जारी न की हो. फिर भी ये ड्रामा ज़ोर-शोर से चल रहा है- सुशांत सिंह राजपूत केस की तरह- जिसका मक़सद टीआरपी हासिल करना हो सकता है.

अपनी ज़मीन से कोई सैन्य कार्रवाई शुरू करना, एक गंभीर मुद्दा हो सकता है. हम अपेक्षा करते हैं कि, सभी दलों के राजनेताओं के अलावा, देश के सभी नागरिक एक होकर, इन फैसलों का समर्थन करेंगे. हम तक़रीबन हर दिन बहसें देखते हैं- आधा दर्जन एक्सपर्ट्स एक चैनल से दूसरे चैनल पर जाकर, वास्तविक स्थिति से अवगत रहे बिना, अपने अनुमान लगाते रहते हैं. एलएसी की स्थिति पर लिखित टिप्पणियां हालांकि ज़्यादा सहनीय हैं, लेकिन बहुत से एक्सपर्ट्स अपनी भावनाओं में बहकर, विपरीत राय पेश करने लगते हैं, जिससे कन्फ्यूज़न पैदा हो सकता है. गतिरोध पर संसद में बहस के बीच, ये टीकाएं और उग्र हो गई हैं.

अगर ‘सुशांत जैसी’ कोई और कहानी सामने आ जाती है, तो एलएसी में दिलचस्पी ख़त्म हो सकती है, लेकिन सीमा पर कार्रवाई जारी रहेगी. हो सकता है कि भारत को एक दो लड़ाइयां लड़नी पड़ जाएं. मैं चाहता हूं कि सैन्य कार्रवाइयां कवर करने में, मीडिया ‘शहीद’ या ‘बलिदान’ जैसे शब्द इस्तेमाल न करे. सेना एक पेशा है. महिमा मौत से नहीं, बल्कि केवल जीत से मिलती है. हम चाहते हैं कि हर इंसान और मशीन, अच्छे से काम करें, हमारी सेना मज़बूत बनी रहे, गर्व के साथ लड़े, और इस महिमा का आनंद ले.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक सेवानिवृत्त एयर चीफ मार्शल हैं जो 2001-2004 के दौरान भारतीय वायुसेना के प्रमुख थे. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)


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