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292 मुर्दा बिल्लियों की बदौलत, मोदी को हरा सकते हैं राहुल गाँधी

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राहुल गांधी लोकसभा में संसद के मानसून सत्र के दौरान 'अविश्वास प्रस्ताव' पर भाषण के बाद, नई दिल्ली । पीटीआई

2019 आने वाला है और मोदी अभियान से ऐसे मुद्दों की भरमार हो जाएगी जिसपर लोग हर हाल में विचार करने के लिए मजबूर हो जाएँगे

ह मानते हुए कि 2019 के लोकसभा चुनाव 2014 की तारीखों पर ही आयोजित किए जाएंगे तो चुनाव अभियान का आखिरी दिन 10 मई 2019 होगा। यह 292 दिन ही दूर है।

इस चुनाव पर अपना कोई अहम प्रभाव डालने के लिए राहुल गाँधी को ऐसे 292 मुर्दा बिल्लियों की जरूरत है जिसके बारे में जनता सब कुछ भूलकर हर हाल में विचार करने पर मजबूर हो जाए।

जब आप एक मुर्दा बिल्ली लाते हैं, तो कोई भी नज़र अंदाज़ नहीं कर सकता । हर कोई इसके बारे में ही बात करेगा। इस प्रक्रिया में, आप यह सुनिश्चित करने में सफल होते हैं कि लोगों ने जो योजना बनाई है वह उसके बारे में बात न कर पाए।

डेडकैटिंग के नाम से मशहूर, यह एक राजनीति और बिज़नेस की एक रणनीति है, जिसे सबसे प्रसिद्ध रूप से ऑस्ट्रेलिआई रणनीतिकार लिंटन क्रॉस्बी ने इस्तेमाल किया था। ब्रिटिश राजनेता बोरिस जॉनसन, क्रॉस्बी के एक ग्राहक, के शब्दों में “एक मुर्दा बिल्ली को टेबल पर फेंकने से ऐसा होना तय है – मैं यह नहीं कह रहा की लोगों को गुस्सा आएगा, वे चकित होंगे और घृणित भी। यह सच तो है पर बेकार भी। जो मेरे ऑस्ट्रेलियाई मित्र तर्क देना चाहते हैं, वो ये है कि जैसे ही लोग इस देखेंगे वे चिल्लाएंगे “अरे! देखो टेबल पर एक मुर्दा बिल्ली पड़ी है।”

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राहुल गांधी का मोदी से गले मिलने और आँख मारने का असल मकसद लोगों को असल मुद्दे से भटकाना ही था। गले मिले बिना हेडलाइन यह होती कि मोदी ने विश्वास वोट जीता। लोग इस बारे में बात कर रहे होंगे कि विपक्ष के पास कितनी कम सीटें हैं, कैसे विपक्ष की एकता अभी तक एक कल्पना है और मोदी ने कांग्रेस की ऐतिहासिक गलतियों पर कैसे एक जोरदार भाषण दिया।

राहुल के गले मिलने और आँख मारने ने लोगों की बातचीत को बदल दिया। उन सभी राजनेताओं को जो शिकायत करते हैं कि पक्षपातपूर्ण मीडिया उन्हें भाव नहीं देती है, उनको ध्यान रखना चाहिए कि मोदी के समर्थन वाले अधिकांश मीडिया आउटलेट राहुल के गले मिलने को नजर अंदाज नहीं कर सकते थे। उन्होंने इसकी बुराई तो की होगी लेकिन इसे नजरअंदाज न कर सके।

कोई भी प्रचार अच्छा प्रचार है

यहाँ पर हिन्दी का एक मुहावरा याद आता है, “बदनाम ही हुए तो क्या, नाम तो हुआ।” नरेन्द्र मोदी और डोनाल्ड ट्रम्प जैसे राजनेता हारने के बाद भी जीत जाते हैं क्योंकि वे हमेशा आपके दिमाग़ में हमेशा होते हैं। मोदी चाहे गलत करें या सही, चाहे वह सफल हों या असफल, चाहे वह युगांडा जाएं या उत्तराखंड, चाहे वह संसद में हों या नमो ऐप में, वह हमेशा आपका ध्यान अपनी ओर खींचते रहेंगे।

2019 के चुनाव को देखते हुए, आपको शायद ही ऐसी कोई जगह मिलेगी जहाँ मोदी के पोस्टर न लगे हों। पोस्ट-मोदी युग में, चुनाव विकास की अपेक्षा लोगों के मन पर कब्जा करने के बारे में हो गया है। अपनी असफलताओं के बावजूद भी भाजपा के चुनाव जीतने के लिए यह आंशिक रूप से ब्रांड मोदी की शक्ति दर्शाता है। नोटबंदी की विफलता के बाद भाजपा को उत्तर प्रदेश में नहीं जीतना चाहिए था, जीएसटी के तीव्र कार्यान्वयन के कारण होने वाले परेशानियों के बाद इसे गुजरात में नहीं जीतना चाहिए था, एक स्थानीय चेहरे के रूप में अपमानित येदियुरप्पा के साथ भाजपा को कर्नाटक में अकेली-सबसे बड़ी पार्टी के रूप में नहीं उभरना चाहिए था।

लेकिन मोदी यह सुनिश्चित करते हैं कि आप हमेशा जीएसटी, विमुद्रीकरण या बीजेपी के अप्रेरणाप्रद स्थानीय नेताओं के बारे में सोचने से ज्यादा मोदी के बारे में सोचें।

सलमान खान ईद रिलीज

फिटनेस चुनौती आख़िरकार क्यूँ की गयी थी? हर कोई पूछ रहा है कि ‘अच्छे दिनों’ का क्या हुआ, और मोदी बड़ी हस्तियों से ट्विटर पर फिटनेस वीडियो पोस्ट करने के लिए कह रहे हैं। यहाँ पर इन सब चीजों का क्या ही मतलब है?

मोदी स्वयं के व्यायाम का वीडियो पोस्ट करते हैं जिसके लिए उनकी सोशल मीडिया पर लगातार आलोचना होती है। प्रधानमंत्री की व्यायाम पद्धति का दस लाख मजाक उड़ाते हैं। फिर भी ये मेम केवल मोदी की मदद करते हैं क्योंकि वे सुनिश्चित करते हैं कि आप केवल मोदी के ही बारे में सोचें।

उन सभी बेकार बॉलीवुड फिल्मों के बारे में सोचिए जिन्हें हम देखते हैं क्योंकि निर्माता ने हमें पूर्व-प्रदर्शन के विज्ञापनो से भर दिया होता है। फिल्म न देखने पर हमें लगता है कि शायद हमें ये देखनी चाहिए थी। यह बॉलीवुड प्रचार मशीन की सफलता है कि प्रायः लोग कहते हैं कि वे कम अपेक्षाओं के साथ फिल्म देखने गए थे। यदि आप इसे अपने समय के उपयुक्त होने की आशा नहीं करते थे तो आप इसे देखने ही क्यों गए थे ?

इस प्रकार मोदी राजनीतिक रूप से सलमान खान की ईद पर रिलीज होने वाली फ़िल्मों के समकक्ष हैं।

योग्यता पर ध्यान

अपनी पुस्तक ‘द अटेंशन मर्चेंट्स: द एपिक स्ट्रगल टू गेट इनसाइड अवर हेड्स’ में टिम वू बताते हैं कि हम एक ऐसी अर्थव्यवस्था में कैसे रहते हैं । हमारे दिमाग में घुसने के लिए अटेन्शन मेर्चंट्स तितर-बितर हो रहे हैं जिससे की अटेन्शन से ही चीजों को जीता जा सके। वू की पुस्तक में अंतिम अध्याय ट्रम्प पर आधारित है। वह लिखते हैं, “इतिहास से पता चलता है कि प्रभावी जागरूकता प्रभाव की एक उत्कृष्ट रणनीति है, क्योंकि बहुत सारी मैसेजिंग नेता को विकल्पों को दबाने, विचार बदलने और खेल के नियमों को बदलना शुरू करने की अनुमति देती है।

वू “ध्यान संबंधी प्रतियोगिताओं” और “योग्यता पर आधारित प्रतियोगिताओं” के बीच एक अंतर स्पष्ट करते हैं। ट्रम्प के मामले में, जैसा कि मोदी के मामले में है, आप सिर्फ इसलिए नहीं जीत सकते कि आप सही हैं, या बेहतर हैं। आपको ध्यान देने वाली प्रतियोगिता को जीतना ही होगा। योग्यता कोई मायने नहीं रखती है।

यही कारण है कि एक बार गले लगाना और आँख मारने से काम नहीं बनेगा। अगले नौ महीनों में, मोदी एक के बाद एक गुमराह करने वाले मुद्दे रखेंगे। वे जिस बारे में चाहेंगे उसी बारे में हमसे चर्चा करवाएंगे। वे यह सुनिश्चित करेंगे कि उनके समर्थक, उनके आलोचक और दलाल मोदी, मोदी और केवल मोदी के बारे में ही बात करें।

एक बार गले लगाना और आँख मारना राहुल के काम नहीं आएगा। उन्हें ख़ुद 292 मुर्दा बिल्लियों की ज़रुरत है।

Read in English : Can Rahul Gandhi put 292 dead cats on the table?

 

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