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दलित-मुस्लिम एकता विपक्ष का एक छलावा है, सीएए और राम मंदिर ट्रस्ट ने इस झूठ की हवा निकाल दी है

स्थापित दलित नेतृत्व सीएए का विरोध नहीं कर रहा है और चंद्रशेखर आज़ाद की बेतुकी राजनीति का दलितों की सोच पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है.

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दलित समूह एससी-एसटी एक्ट के खिलाफ प्रदर्शन करता (बाएं) और मुस्लिम (दाहिने) सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करते.

दलित और मुस्लिम एकता की वकालत करने वाला राजनीतिक वर्ग वैचारिक पतन और कल्पनाशीलता के भारी अभाव से जूझ रहा है.

भारतीय नागरिकता कानून में हाल के बदलावों पर बहस को लेकर पहले ही काफी कुछ लिखा जा चुका है. संशोधनों के पक्ष और विपक्ष में, दोनों ही तरह की दलीलें देने वाले, जैसी की अपेक्षा थी, इससे जुड़े दलित आयाम की अनदेखी कर गए, जबकि इसका इस कानूनी बदलाव से बुनियादी संबंध है.

विपक्ष लंबे समय से दलित-मुस्लिम एकता के विचार को असफलतापूर्वक उछालता रहा है. श्री राम जन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट में एक स्थायी दलित सदस्य को शामिल करने की घोषणा से उन्हें एक और झटका लगेगा. विपक्ष ये समझने में स्पष्ट रूप से विफल रहा है कि जमीनी स्तर पर दलित सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से हिंदुत्व के सबसे महत्वपूर्ण दूत हैं.


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पाकिस्तान और बांग्लादेश में दलितों की दुर्दशा

फिर भी, नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) में हाल के बदलावों पर दलित समुदाय को गुमराह करने की कोशिश की जा रही है. पाकिस्तान में 80 फीसदी से ज्यादा हिंदू दलित हैं. पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों में हिंदुओं की स्थिति किसी से छुपी नहीं है. उनके साथ सबसे बुरे किस्म का भेदभाव किया जाता है. अमेरिकी विदेश विभाग द्वारा 2011 में जारी अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट में भी उनकी दुर्दशा को उजागर किया जा चुका है.

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इस्लाम पर कई पुस्तकों के लेखक योगिंदर सिकंद अपने लेख ‘पाकिस्तान्स फॉरगॉटेन दलित माइनॉरिटी’ में लिखते हैं, ‘सिंध के दक्षिणी हिस्सों में, खेतिहर मजदूरों का 70 प्रतिशत हिस्सा दलितों का है. सिंध के एक वामपंथी कार्यकर्ता और पाकिस्तानी दलितों पर संभवत: एकमात्र पुस्तक के लेखक खुर्शीद कैमखानी के अनुसार स्थानीय जमींदार मुसलमानों के बजाय दलितों को रोजगार देना पसंद करते हैं क्योंकि वे कम मुखर और अधिक सीधे होते हैं. उनका कहना है कि शायद ही किसी दलित के पास अपनी जमीन है, और वे अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह से जमींदारों पर निर्भर हैं. दलितों के लिए कोई विशेष सरकारी विकास योजना नहीं है.’

पाकिस्तान से सामूहिक पलायन कर दलितों का भारत आना एक नियमित बात है. कुछ ही साल पहले 2013 में राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने पाकिस्तान से आए अनेक अवैध प्रवासियों को समर्थन का भरोसा दिलाया था. अतीत में कई मौकों पर कांग्रेस पार्टी धार्मिक उत्पीड़न के कारण पड़ोसी देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले अवैध प्रवासियों के लिए समर्थन की घोषणा कर चुकी है.

स्वतंत्र मानवाधिकार कार्यकर्ता रिचर्ड बेनकिन ने बांग्लादेश के पांच दशकों के इतिहास में वहां आबादी में हिंदुओं का अनुपात 30 प्रतिशत से घटकर 3 प्रतिशत से भी कम रह जाने का दावा किया है.

वो शख्स एक दलित ही था कि जिसका हस्तक्षेप और नेतृत्व 1971 में बांग्लादेश की स्थापना की वजह बना. पूर्व अमेरिकी राजनयिक और ‘द ब्लड टेलीग्राम: निक्सन, किसिंजर, एंड अ फॉरगॉटन जेनोसाइड’ के लेखक गैरी बास ने भारत के तत्कालीन रक्षामंत्री बाबू जगजीवन राम को सर्वाधिक आक्रामक रक्षामंत्री बताया है. बाबू जगजीवन राम के प्रयासों को बांग्लादेश की सरकार ने खुलकर मान्यता दी है, इस हद तक कि उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया गया था. हालांकि भारत के सिवाय बाकी उपमहाद्वीप में दलितों की स्थिति उसके विपरीत है कि जिसकी जगजीवन राम ने कल्पना की होगी.

पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाक़त अली खान के मंत्रिमंडल में कानून एवं श्रम मंत्री रहे जोगेंद्र नाथ मंडल ने लिखा है, ‘कलकत्ता नरसंहार के बाद अक्टूबर 1946 में ‘नोआखली दंगा’ हुआ था. वहां अनुसूचित जाति के सदस्यों समेत अनेक हिंदुओं को मार डाला गया था और सैकड़ों को इस्लाम में धर्मांतरण करा दिया गया था. हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ था और उनका अपहरण हुआ था. मेरे समुदाय के सदस्यों को भी जान-माल का नुकसान हुआ था.’

इतिहास के पन्नों में मंडल को भुला दिया गया है, मुख्यतया पाकिस्तान के मंत्रिमंडल में शामिल होने के उनके फैसले के कारण. दलितों और मुसलमानों के शैक्षिक पिछड़ेपन और सामाजिक दुर्दशा को ध्यान में रखते हुए, मंडल ने शायद मायावती और असदुद्दीन ओवैसी दोनों के जन्म से पहले ही दलित-मुस्लिम एकता का भ्रम पाल लिया था.


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दलित नेतृत्व का समर्थन

पूरे देश में दलित समुदाय के सबसे बड़े नेताओं में से एक मायावती भी, जिनकी वोटों में भी अच्छी हिस्सेदारी है, नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ नहीं रही हैं. जबकि बिहार के पूर्व दलित मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने संशोधन के खिलाफ अपनी रैली को रद्द कर दिया था, जहां वह ओवैसी के साथ मंच साझा करने वाले थे. और, एनडीए सरकार में शामिल रामविलास पासवान तो संशोधन के समर्थन में पर्याप्त बयान दे चुके हैं. जब देश में स्थापित दलित नेतृत्व संशोधन का विरोध नहीं कर रहा है, तो ऐसे में चंद्रशेखर आज़ाद रावण की बेतुकी राजनीति का कोई असर नहीं होगा क्योंकि स्पष्ट है कि वह समुदाय की भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं.

पाकिस्तान और बांग्लादेश के कई अल्पसंख्यक नेताओं और पत्रकारों ने नाम उजागर नहीं किए जाने का अनुरोध करते हुए स्वीकार किया है कि उन्हें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है. दोनों ही देशों के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में धार्मिक अतिवाद की गहरी जड़ें हैं और वहां के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से वंचित हिंदुओं ने भारत में नागरिकता अधिनियम में सकारात्मक बदलावों का स्वागत किया है.

सीएए लागू होने के साथ ही अब इनके पास भारत में गरिमा और सम्मान की जिंदगी जीने के लिए वापस लौटने का विकल्प है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक पटना विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर और इंडिया फाउंडेशन में विजिटिंग फेलो हैं. वह भाजपा की युवा शाखा भारतीय जनता युवा मोर्चा की बिहार राज्य कार्यकारी समिति के सदस्य भी हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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