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बिलकिस के बलात्कारियों की रिहाई हिंदू-मुस्लिम का मसला नहीं, BJP के नेता जता रहे कि कोई सुरक्षित नहीं

हम जानते हैं कि आगे क्या होने वाला है. अदालत अगर उन बलात्कारियों और हत्यारों की रिहाई को रद्द भी कर देती है, तब भी कुछ नहीं होगा. वे लापता हो चुके होंगे. गुजरात सरकार कहेगी कि वह उन्हें नहीं खोज पा रही है.

सोहम सेन का चित्रण | दिप्रिंट

कोई भी समाज हत्या, बलात्कार या नफरत को खत्म नहीं कर सकता. यह एक सीधी-सी सच्चाई है. समाज कितना भी सद्गुणी हो, उसमें भी हत्यारे, बलात्कारी और नफरत फैलाने वाले रहेंगे.

फिर भी हम हर दिन अपना जीवन सामान्य रूप से कैसे बिताते रहते हैं? क्योंकि हम यह मानते हैं कि सभी सभ्य समाज में कानून का शासन चलता है. हां, अपराध होंगे. लेकिन अपराधियों की खोज की जाएगी और जब उन्हें पकड़ा जाएगा तब इंसाफ होगा. जरूरी प्रक्रिया के बाद उन्हें दोषी पाए जाने पर उनके अपराध के मुताबिक सज़ा दी जाएगी.

अगर किसी वजह से इंसाफ की उम्मीद निरंतर तोड़ी जाएगी, कुछ अपराधी हत्या करने के बाद भी बचे रह जाते हैं, और व्यवस्था ऐसी है कि कोई इंसाफ नहीं हो पाता तब आप अपने समाज को सभ्य समाज का दर्जा देने की हैसियत खो देते हैं. तब आपके नागरिक दहशत में रहेंगे, क्योंकि उन्हें लगता रहेगा कि उन्हें नुकसान पहुंचाने वाले के खिलाफ व्यवस्था कोई कार्रवाई नहीं करेगी.

भारत में तो इंसाफ के लिए जद्दोजहद लगातार जारी रहती है. सबसे पहले तो पुलिस कमजोर और बेसहारा लोगों को शिकार बनाने वालों की धर-पकड़ नहीं करती. दूसरे, प्रभावशाली और ताकतवर लोग (अमीर, राजनीति करने वाले और उनके परिजन आदि) जानते हैं कि उन्हें जिम्मेदार ठहराने की कोशिशों को किस तरह नाकाम किया जा सकता है. और अंत में, यह मान भी लें कि कानून लागू करने वाली व्यवस्था काम कर रही है, तो भी लड़खड़ाती न्यायिक व्यवस्था से जूझना पड़ता है, मामले की सुनवाई शुरू होने में ही वर्षों लग जाते हैं, जजों के पास जिरहों को ध्यान से सुनने का पर्याप्त समय नहीं होता, न्यायपालिका को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है, वगैरह-वगैरह.

टूटता भरोसा

फिर भी, तमाम समस्याओं और कुछ स्पष्ट नाइंसाफ़ियों के बावजूद, हमारी व्यवस्था अब तक उस स्थिति में नहीं पहुंची है जब हम यह महसूस कर रहे हों कि हत्यारे और बलात्कारी उससे बचकर निकल जाएंगे और समाज उनके साथ वैसा बर्ताव नहीं करेगा जैसा किसी भयानक व्यक्ति के साथ करना चाहिए. हम यही मानते हैं कि ऐसे अधिकतर मामले में दोषी जरूर पकड़ा जाएगा और सज़ा पाएगा.

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कानून के शासन में ऐसे भरोसे से ही समाज चलता है, जो हमें यह आत्मविश्वास देता है कि हम यह जानते हुए अपना जीवन जिएं कि हम उस देश में रह रहे हैं जिसमें कानून के शासन का सम्मान किया जाता है. इस भरोसे को तोड़ना समाज के आधार को ही नष्ट करना है.


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मानवता को नकारना

बिलकिस बानो के मामले पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है लेकिन अधिकतर वह हिंदू-मुस्लिम नजरिए से लिखा गया है. यह एक अहम और जायज नजरिया है, लेकिन जैसा कि मैं कुछ सप्ताह पहले इस स्तंभ में लिख चुका हूं, मसला धार्मिक भेदभाव से आगे का है. यह मसला जीवन को इज्जत देने का है, स्त्री को सम्मान देने का है, मसला यह है कि आज के भारत में इंसाफ देना कितना कठिन हो गया है.

करीब 14 लोगों की हत्या की जाती है, तीन साल की बच्ची का सिर पत्थर पर पटककर उसे मार दिया जाता है. बिलकिस बानो से सामूहिक बलात्कार किया जाता है. उस पर हमला करने वाले उसे मृत मान कर छोड़ देते हैं.

क्या इससे कोई फर्क पड़ता है कि वह किस धर्म को मानने वाली थी? जो कुछ हुआ वह क्या सिर्फ मानवीय दृष्टि से भयानक नहीं था? क्या हर एक धर्म के हर एक व्यक्ति को यह कोशिश नहीं करनी चाहिए कि इंसाफ किया जाए?
जाहिर तौर पर इंसाफ नहीं किया गया.

अब हमें यह कबूल करना पड़ेगा कि रसूख और ताकत के ओहदों पर ऐसे लोग बैठे हैं जिनमें मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत भरी है कि उसने उनकी बुनियादी इंसानियत को मार दिया है. कुछ सप्ताह पहले मैं लिख चुका हूं कि इस मामले में दोषी ठहराए जा चुके बलात्कारियों और हत्यारों की रिहाई हर उस बात के खिलाफ है, जो प्रधानमंत्री ‘नारी शक्ति’ और महिला सुरक्षा के बारे में कहते रहे हैं. मैंने लिखा था कि मेरे लिए यह यकीन करना बहुत मुश्किल है कि केंद्र सरकार ने इन लोगों को जेल से छोड़ने की मंजूरी दी होगी. यह काम गुजरात प्रशासन के स्थानीय स्तर के सांप्रदायिक अधिकारियों का होगा. लेकिन मैं गलत सोच रहा था.

गुजरात की सरकार ने अब खुलासा किया है कि उन लोगों को रिहा करने का फैसला केंद्रीय गृह मंत्रालय की पूर्ण मंजूरी से किया गया, जिसने गुजरात सरकार को इस साल 11 जुलाई को लिखा था कि उसे उनकी रिहाई पर कोई आपत्ति नहीं है.
उन हत्यारों और बलात्कारियों को सज़ा की पूरी अवधि से पहले इसलिए रिहा किया गया कि जेल में उनका ‘आचरण अच्छा था’.

हकीकत यह है कि समय से पहले रिहा किए गए उन लोगों में दो ऐसे थे, जो पैरोल पर जेल से बाहर थे (पता चला है कि इनमें से दो अपराधी ऐसे थे जो पैरोल पर 1200 से ज्यादा दिन जेल से बाहर रहे) और उनके खिलाफ महिलाओं की बेइज्जती करने और गवाहों को धमकाने के लिए एफआईआर दर्ज थे. यह कोई सुनी-सुनाई बात नहीं है. वेबसाइट ‘मोजो’ ने एफआईआर को प्रकाशित किया है. यह है ‘अच्छे आचरण’ का प्रमाण पत्र?

इससे भी अफसोसनाक बात यह है कि केंद्रीय मंत्री कह रहे हैं, यह रिहाई गलत नहीं है. केंद्रीय संसदीय मामलों के मंत्री प्रह्लाद जोशी ने एनडीटीवी को कहा कि ‘इसमें मुझे कुछ भी गलत नहीं नज़र आता, यह कानूनी प्रक्रिया है.’ यहां तक कि गुजरात के ‘सेकुलर’ भविष्य माने जाने वाले हार्दिक पटेल ने भी इस रिहाई का समर्थन करते हुए कहा कि ‘राज्य सरकार को कैदियों को उनके अच्छे आचरण के लिए रिहा करने का अधिकार है. मेरा मानना है कि इसे जान-बूझकर गलत तरीके से उछाला जा रहा है.’

मेरा सवाल है— क्या इनमें से कोई शख्स निर्भया के बलात्कारियों और हत्यारों को रिहा करने के बारे में ऐसी ही बातें कर सकता था?

मेरा ख्याल है, आपको इस सवाल का जवाब मालूम होगा.

हर कोई इन लोगों की तरह नफरत और महत्वाकांक्षा से अंधा नहीं हुआ है. सीबीआई की विशेष अदालत के जिस जज ने इस रिहाई का विरोध किया था (गुजरात सरकार और गृह मंत्री ने उनके विचारों की उपेक्षा कर दी थी) उन्होंने लिखा है: ‘पीड़ितों के साथ आरोपी की कोई दुश्मनी या कोई रिश्ता नहीं था. अपराध केवल इसलिए किया गया क्योंकि पीड़ित लोग एक खास धर्म के थे. इस मामले में नाबालिग बच्चों और गर्भवती महिला तक को नहीं छोड़ा गया. यह नफरत के कारण अपराध करने और मानवता के खिलाफ अपराध का बदतरीन उदाहरण था. अपराध के इस मामले में पूरा समाज ही पीड़ित है.’

जज ने बिलकुल मुद्दे की बात की है. हम ऐसे मुकाम पर पहुंच गए हैं जहां नेता लोग सांप्रदायिक नफरत, निजी महत्वाकांक्षाओं और वोटों की भूख की खातिर न्याय और कानून के शासन के मामले में समाज की अपेक्षाओं को तोड़ने को तैयार हैं. जैसा कि जज ने कहा, पीड़ित हम भारत के लोग हैं. इस तरह के अपराधों से हमारे पूरे समाज को नुकसान पहुंचता है और हमारे नेताओं में बुनियादी इंसानियत की कमी से इसे और ज्यादा नुकसान पहुंचता है.

हम जानते हैं कि आगे क्या होने वाला है. अदालत अगर उन बलात्कारियों और हत्यारों की रिहाई को रद्द भी कर देती है, तब भी कुछ नहीं होगा. वे लापता हो चुके होंगे. गुजरात सरकार कहेगी कि वह उन्हें नहीं खोज पा रही है.

संभव है, लोग हिंदू-मुस्लिम के सवाल पर मतभेद रखते हों. लेकिन बिलकिस बानो के बलात्कारियों और उसकी तीन साल की बेटी के हत्यारों की रिहाई को अगर हम हिंदू-मुस्लिम विवाद का एक और मामला मान लेते हैं तो यह एक शर्मनाक बात होगी.

यह उससे भी ज्यादा गंभीर बात है. यह ऐसा मसला है जो यह दिखाता है कि सांप्रदायिकता का जहर हमारे समाज में कितना फैल चुका है कि नेता लोग कानून के शासन को भी खारिज करने को तैयार हैं और देश से यह कहते हैं कि अपराधी को सज़ा दी जाए यह हमेश जरूरी नहीं है, खासकर तब जबकि अपराधियों को रिहा करना राजनीतिक रूप से सुविधाजनक हो.

यह एक ऐसा मसला है जो हममें से कई को भविष्य के बारे में दहशत में डाल देता है. हां, संस्थाओं को पहले भी नाकाम किया गया है, नुकसान पहुंचाया गया है, लेकिन नेता लोग जब कानून के शासन के प्रति ही खुली अवमानना प्रदर्शित करते हों तब किसी को भी सुरक्षित नहीं माना जा सकता है, चाहे वह हिंदू हों या मुसलमान या कुछ भी. तब नुकसान भारत का ही होता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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