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मोदी सरकार 2023 के चुनावी बजट में सुपर अमीरों को बोनस देना नहीं भूली

यह बजट जो राजनीतिक संदेश दे रहा है उस पर गौर कीजिए, यह पिछले साल पकड़ी गई दिशा में ही आगे का कदम है और सरकार के अति आत्मविश्वास को दर्शाता है.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को संसद में बजट 2023 पेश करते समय देखते हुए लोग । फोटो- सूरज सिंह बिष्ट/ दिप्रिंट

नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के अंतिम वित्त वर्ष में पेश किया गया यह केंद्रीय बजट क्या एक चुनावी बजट है?

मुझे इजाजत दीजिए कि इस सवाल का जवाब मैं एक सवाल में ही दूं. क्या आपको याद है कि पिछली बार किस साल किसी सरकार ने अपने बजट में सबसे अमीर लोगों पर लगाए जाने वाले टैक्स में सबसे बड़ी कटौती की थी, चाहे वह चुनावी साल रहा हो या नहीं? यह पता लगाने के लिए आपको कुछ दशक पीछे जाना पड़ेगा.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यही किया है. उन्होंने सर्वोच्च टैक्स पर 37.5 फीसदी सरचार्ज को घटाकर 25 फीसदी कर दिया है और सबसे अमीर लोगों को टैक्स में 10 फीसदी की राहत दे दी है. तो क्या यह चुनावी साल वाला बजट नहीं है? या मोदी सरकार यह भूल गई है?

अगर हम यही मान बैठे हैं तो हम अभी भी हमारी राजनीति अर्थव्यवस्था के बारे में पुराने सोच में फंसे हैं. हम आर्थिक वृद्धि के पिछले तीन दशकों में हुई क्रांति को भूल गए हैं.

अब हम अपने मूल प्रश्न के जवाब ज्यादा विस्तार से तलाश सकते हैं. क्या कोई साल ऐसा भी बीता है जब हमने यह सवाल न उठाया हो? पिछले साल और इससे पहले भी कई सालों में बजट-दिवस पर मैंने अपने लेख में जरूर यह सवाल उठाया होगा.

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राजनीति के प्रति मोदी-शाह की भाजपा का जो रुख रहा है उसके बारे में अगर हमें एक चीज मालूम है तो वह यह है कि उसके लिए कोई ऐसा चुनाव नहीं है जो कम महत्वपूर्ण हो चाहे वह नगरपालिका का चुनाव ही क्यों न हो.

सार यह कि भारत में हर बजट चुनावी बजट होता है. यह देश की अर्थव्यवस्था पर सरकार का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक बयान होता है. और चुनाव का ताल्लुक यदि जनमत और राजनीति से नहीं है तो भला किस्से है?

इसे इस तरह से देखिए. विश्लेषण का जो फॉर्मूला हमने विरासत में हासिल किया है उसके मुताबिक हम उस बजट को चुनावी साल का बजट मानते रहे हैं जिनमें ये बातें होती हैं— गरीबों को खुल कर फायदा पहुंचाया गया हो, पेट्रोल-डीजल पर टैक्स कम किया गया हो, व्यापक उपयोग (लक्ज़री वाली नहीं) की चीजों पर कस्टम ड्यूटी में कटौती की गई हो, सार्वजनिक वितरण और फिजूलखर्ची के बड़े कार्यक्रम की घोषणा की गई हो.

लेकिन कई वर्षों से हम यह सब होता नहीं देख रहे थे. आर्थिक वृद्धि के तीन दशकों ने हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था को बदल डाला है. लेकिन हम विश्लेषकगण हैं कि बदलने को राजी नहीं हैं.

विभिन्न आर्थिक तबकों के भारतीय परिवारों की जरूरतों और अपेक्षाओं में भी भारी बदलाव आ गया है. मोदी-सीतारमण का ताजा बजट यही बताता है कि राजनीतिक नेताओं ने इस बदलाव को समझ लिया है. वे इसके मुताबिक कदम भी उठा रहे हैं. यह बजट जो राजनीतिक संदेश दे रहा है उस पर गौर कीजिए. यह पिछले साल जो दिशा पकड़ी गई उसे ही साफ तौर पर आगे बढ़ाने की कोशिश है. मोदी के उभार के पहले वर्ष से ही हम उन तीन इंजन की बात कर रहे हैं जो उनकी राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं.


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पहला इंजन है— ठोस हिंदुत्ववादी, हिंदीवादी राष्ट्रवाद. यह आप उनके भाषणों में उपयोग की जाने वाली हरेक उपमा या मुहावरे में देख सकते हैं. उदाहरण के लिए, ‘अमृत काल’ का बार-बार जिक्र. और उनकी तमाम योजनाओं के नाम इसी तरह संस्कृतनिष्ठ शब्दों में रखे जा रहे हैं.

दूसरा इंजन— गरीबों को पहुंचाए जाने वाले लाभों में कोई भ्रष्टाचार नहीं. साथ ही, गरीबों का लालची स्थानीय नौकरशाही से न्यूनतम संपर्क ताकि उनके बीच टकराव की स्थिति न बने और उन्हें परेशानी न हो.

और तीसरा इंजन— ठोस, प्रत्यक्ष दिखने वाला इन्फ्रास्ट्रक्चर. इतना प्रत्यक्ष कि नया आसमान और नया रूप लेती जमीन लोगों के दिमाग पर छा जाए. तब, प्रधानमंत्री वायुसेना के विमान से नये एक्सप्रेसवे पर उतर सकते हैं, और चुनाव से पहले कई उद्घाटन कर सकते हैं.

राजमार्गों के लिए आवंटन में लगातार वृद्धि की जाती रही है. ताजा बजट में इसमें 36 फीसदी की बढ़त की गई है. रेलवे को भी करीब 1 ट्रिलियन रुपये की भारी वृद्धि मिली है और उसका बजट 1.4 ट्रिलियन रुपये से बढ़कर 2.4 ट्रिलियन रु. का हो गया है. राजमार्गों का चुनावी लाभ उठाया भी गया है. अब अगली बड़ी चीज.

ज्यादा समझदार लोग सेक्टरों को आवंटन, वित्तीय घाटे, मुद्रास्फीति आदि के अनुमानों के आंकड़ों पर गौर कर रहे हैं. लेकिन राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो यह बजट सरकार के आत्मविश्वास का बयान है, जो अतिआत्मविश्वास तक पहुंच रहा है.

कुछ आत्मविश्वास तो इसलिए आया है कि वित्तीय घाटे को सीमा के अंदर रखने में सफलता मिली है. खासकर इसलिए कि कोविड महामारी के तीन साल में तमाम अमीर-गरीब देशों (पड़ोसी तक) की वित्तीय हालत पतली हो गई. भारत की सरकार ने अपना संतुलन बनाए रखा और घबराए शुभचिंतक अर्थशास्त्रियों की नहीं सुनी. भारत की अर्थव्यवस्था तुलनात्मक रूप से बेहतर हाल में इसलिए है क्योंकि उसने अपना धैर्य बनाए रखा.

रक्षा बजट को जिस तरह से लगभग स्थिर रखा गया है, वह भी आत्मविश्वास को दर्शाता है. ‘एक रैंक, समान पेंशन’ के कारण बढ़ोतरी और बकाया भुगतान के कारण पेंशन का बिल बेशक बढ़ा है. लेकिन पूंजीगत खर्च (यानी खरीद) में केवल 12,000 करोड़ रु. यानी 8 फीसदी की ही वृद्धि हुई है, जो कि जीडीपी में 10.5 फीसदी की मामूली वृद्धि से कम ही है. मोदी सरकार को भरोसा है कि आगे कोई लड़ाई नहीं होगी और वह ‘अग्निपथ’ योजना लागू होने का इंतजार कर सकती है जब अगले साल से सेना में फ़ौजियों की संख्या और वेतन का बिल घटेगा.

भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था का ठेठ आग्रह यह होता है कि गरीबों को खुश करने के लिए अमीरों पर दबाव डालो. दो साल पहले मोदी सरकार ने कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती की थी तब उसकी व्यापक निंदा की गई थी कि यह अंबानी-अडाणी की सरकार है.

अब उसने सबसे अमीर व्यक्तियों के मामले में कुछ ऐसा ही किया है, बेशक छोटे पैमाने पर, तो दो बातें उभरती हैं. पहली और पक्की बात : सरकार को लगता है कि 2024 की दौड़ में वह इतनी आगे है कि ऐसे जोखिम उठा सकती है.

दूसरी बात भी कुछ आशावादिता में लिपटी है. निजी टैक्स की दरों में कमी का असर यह होगा कि कुल टैक्स उगाही बढ़ेगी. यह बजट पुष्टि करता है कि कॉर्पोरेट टैक्स के मामले में ऐसा हो चुका है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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