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बृजभूषण शरण सिंह कोई संत नहीं हैं, लेकिन BJP के पास पहलवानों के विरोध से मुंह फेरने की कई वजहें हैं

पीएम मोदी ने रविवार को 'मन की बात' कार्यक्रम में पहलवानों का जिक्र तक नहीं किया. लेकिन एक संदेश देने की कोशिश की गई कि उनकी सरकार के द्वारा महिला सशक्तिकरण के लिए किया गया कार्य पार्टीजनों के कथित कुकर्मों से कलंकित नहीं किया जा सकता है.

दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरने पर बैठे पहलवान | फोटो: प्रवीण जैन | दिप्रिंट

दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरने पर बैठे ओलंपियन मेडलिस्ट समेत पहलवानों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘मन की बात’ में एक संदेश था. दरअसल धरने पर बैठे पहलवान पिछले एक दशक से महिला पहलवानों के साथ यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगाते हुए भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और भारतीय जनता पार्टी के सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे हैं. बीजेपी ने इस मुद्दे पर सोच-समझकर चुप्पी साध रखी है. दिल्ली पुलिस को उनकी शिकायतों पर कार्रवाई करने और उत्तर प्रदेश के कैसरगंज से बाहुबली सांसद के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा.

विरोध कर रहे पहलवानों को पीएम मोदी का संदेश

अपने मासिक रेडियो कार्यक्रम के 100वें संस्करण में मोदी ने एक तरह से चुप्पी तोड़ी लेकिन इस विवाद का सीधा कोई जिक्र नहीं किया. उन्होंने ‘हमारी सेना या खेल जगत’ से महिला सशक्तिकरण की ‘सैकड़ों प्रेरक कहानियों’ का हवाला दिया और कहा की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ योजना’ की शुरुआत उन्होंने हरियाणा से की थी.. उन्होंने उस कार्यक्रम में हरियाणा निवासी बीबीपुर के पूर्व सरपंच सुनील जागलान से भी बातचीत की. उन्होंने बेटी के साथ सेल्फी अभियान शुरू किया था. रविवार को प्रधानमंत्री से बातचीत में जागलान ने मोदी को ‘बेटियों के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए पानीपत की चौथी लड़ाई’ शुरू करने का श्रेय दिया. ये केवल संयोग नहीं था की जंतर मंतर पर विरोध करने वाले पहलवान भी हरियाणा के रहने वाले हैं.

बेशक, मोदी ने रविवार को ‘मन की बात’ रेडियो कार्यक्रम में पहलवानों या उनके विरोध का कोई जिक्र नहीं किया. लेकिन उनका संदेश अचूक था: उनकी सरकार का महिला सशक्तिकरण में एक शानदार रिकॉर्ड है, और इसे उनके पार्टी के नेताओं के कथित कुकर्मों से कलंकित नहीं किया जा सकता है. अब लड़ाई ‘पहलवानों के बोल’ बनाम ‘मोदी के बोल’ के बीच है.

2014 के बाद से मोदी सरकार द्वारा शुरू की गई कल्याणकारी योजनाओं और प्रधानमंत्री की लोकप्रियता की बदौलत अधिकतर महिलाएं भाजपा की ओर मुड़ने लगी हैं. 2019 के लोकनीति-सीएसडीएस द्वारा चुनाव के बाद किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक, बीजेपी को वोट देने वाली महिलाओं का प्रतिशत 2014 के 29 प्रतिशत से बढ़कर 2019 के लोकसभा चुनाव में 36 प्रतिशत हो गया. कांग्रेस के लिए यह आंकड़ा क्रमश: 20 प्रतिशत और 19 प्रतिशत था. 2014 में कांग्रेस को वोट देने वाली 11 फीसदी महिलाओं ने 2019 में बीजेपी को वोट किया.

अगर आपने शनिवार को बेंगलुरु में पीएम मोदी का रोड शो देखा, तो आप शायद सोचते कि बीजेपी नेताओं के कथित कुकर्मों को लेकर हुए हालिया विवादों का महिलाओं के बीच मोदी की लोकप्रियता पर ज्यादा असर नहीं पड़ा है. बंगलुरु के मगदी रोड से नीस रोड तक, मैंने महिलाओं के समूहों को फुटपाथ पर खड़े या बैठे देखा और वहां बैठी महिलाओं ने दो घंटे से अधिक समय तक मोदी का इंतजार किया. जैसे ही उनका रोड शो शुरू हुआ, उनमें से कई उन्हें करीब से देखने के लिए उत्साहित होकर प्रधानमंत्री की गाड़ी के साथ साथ दौड़ने लगीं.

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इस संदर्भ में यह बताना उपयुक्त है कि, जब विधानसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात आती है तो कर्नाटक का रिकॉर्ड सबसे खराब रहा है. यहां महिलाओं के लिए सबसे अच्छा विधानसभा चुनाव 2018 में रहा था, जब सात महिला विधायक 224 सदस्यीय विधानसभा के लिए चुनी गई थीं.

हालांकि, इस विधानसभा चुनाव में भी स्थिति काफी बेहतर होने की संभावना नहीं है. इस विधानसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस ने क्रमश: 12 और 9 महिला उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा है.

बेंगलुरु के रोड शो में महिलाओं की उत्साहपूर्ण प्रतिक्रिया केवल उनके बीच मोदी की लोकप्रियता का संकेत देती है- या शायद उनके बारे में उनकी जिज्ञासा. हालांकि, इसे किसी भी तरह से दिल्ली में विरोध कर रहे पहलवानों के प्रति सहानुभूति की कमी के संकेत के रूप में नहीं लिया जा सकता है. जैसा कि हम जानते हैं, उनमें से अधिकांश शायद यह भी नहीं जानते होंगे कि लगभग 2,200 किलोमीटर दूर दिल्ली में क्या हो रहा है. मैं उनकी प्रतिक्रिया को केवल इस संदर्भ में उद्धृत कर रहा हूं कि पीएम मोदी ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में महिला सशक्तिकरण के लिए खुद को सामने रखकर और अपनी महिलाओं के लिए पहल को सामने रखते हुए अपनी पार्टी और सरकार को पार्टी सहयोगियों के कथित कृत्यों से एक ढाल प्रदान किया. ये बात बृजभूषण शरण सिंह के अलावा हरियाणा के मंत्री संदीप सिंह के केस में भी लागू होती है.

संदीप सिंह पर एक महिला कोच का यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगाया गया था और उन्हें भी मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और पार्टी नेतृत्व का समर्थन प्राप्त है.


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बृजभूषण सिंह कोई संत नहीं हैं

यह हमें इस सवाल पर लाता है कि बीजेपी अपने नेताओं के कथित गंभीर अपराधों पर मौन रहकर बचाव करते हुए मोदी के मतदाताओं को नाराज करने का जोखिम क्यों उठा रही है. ताजा आरोपों को एक तरफ रख भी दें तो बृजभूषण शरण सिंह कोई संत नहीं हैं. वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि सिंह के खिलाफ 40 मामले दर्ज हैं.

पिछले दिसंबर में यूपी के पूर्व मंत्री विनोद कुमार सिंह की हत्या के प्रयास के 29 साल पुराने एक मामले में एमपी-एमएलए कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया था. हालांकि, अदालत ने साक्ष्य एकत्र करने का कोई प्रयास नहीं करने के लिए जांच टीम की जमकर खिंचाई की.

पिछले साल द लल्लनटॉप के साथ एक साक्षात्कार में, बृज भूषण सिंह ने कैमरे पर स्वीकार किया था: ‘मेरे जीवन में मेरे हाथ से एक हत्या हुई है. लोग कुछ भी कहें, मैंने एक हत्या की है.’

अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम के लोगों की मदद करने के आरोप में 1990 के दशक के मध्य में उन्होंने आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधि अधिनियम (टाडा) के तहत कई महीने जेल में बिताए थे.

पिछले साल, उन्होंने बाढ़ को लेकर ‘घटिया तैयारियों’ को लेकर योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली उत्तरप्रदेश सरकार की आलोचना करते हुए कहा था, ‘जनप्रतिनिधि चुप हैं. बोलना मना है. यदि आप बोलते हैं, तो आपको विद्रोही करार दिया जाएगा.’

भाजपा के पास दूसरा रास्ता देखने के कारण हैं

तो, बीजेपी बृजभूषण शरण सिंह को क्यों बचाना चाह रही है? निश्चित रूप से उनका अपना बड़ा राजनीतिक रसूख है. वह तीन अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों- गोंडा, बलरामपुर, और कैसरगंज, से छह बार के सांसद हैं और आस-पास के दो-तीन निर्वाचन क्षेत्रों के राजपूतों के बीच उनकी अच्छी पकड़ है. वह राम जन्मभूमि आंदोलन का भी हिस्सा थे और बाबरी विध्वंस मामले में आरोपी भी थे. ये बातें सिंह को भाजपा का बहुचर्चित नेता बनाती है. पार्टी इस बात से भी वाकिफ हो सकती है कि उसके खिलाफ कोई भी कार्रवाई 4 और 11 मई को होने वाले स्थानीय शहरी निकाय चुनाव में उसकी संभावनाओं को प्रभावित कर सकती है.

एक और कारण जनता की धारणा बनाने की अपनी क्षमता के बारे में बीजेपी का अति-आत्मविश्वास हो सकता है. अपने नेताओं के खिलाफ कोई भी आरोप क्यों न हो, सत्ताधारी पार्टी ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने से इनकार करते हुए और जनता के आक्रोश को नजरअंदाज करते हुए हमेशा उन्हें मदद ही की है. जब केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष पर 2022 में लखीमपुर खीरी में कथित रूप से प्रदर्शनकारी किसानों की हत्या करने पर सार्वजनिक आक्रोश था, तो बीजेपी ने इसे नजरअंदाज कर दिया था. जूनियर होम मिनिस्टर को हाईकमान का समर्थन अब तक हासिल है. हरियाणा के मंत्री संदीप सिंह के यौन उत्पीड़न के आरोपों को मुख्य मंत्री खट्टर ने ‘बेतुका’ कह दिया जबकि उन्हीं की पुलिस अभी भी जांच कर रही है.

जब बृजभूषण शरण सिंह की आलोचना हो रही है तो पार्टी ने इसी तहर बात को नज़रअंदाज किया है. एक लोकप्रिय प्रधानमंत्री वाली पार्टी शायद अपने कुछ नेताओं के खिलाफ जनभावनाओं की अवहेलना कर सकती है. लेन-देन की राजनीति के दौर में, पार्टी के रणनीतिकारों को यह भी लग सकता है कि यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाले मुट्ठी भर पहलवानों के विरोध का कोई चुनावी नतीजा नहीं होगा. हमेशा की तरह, मोदी अपनी पार्टी के लाभ के लिए अपनी छवि दांव पर लगाने को तैयार दिखते हैं. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि लंबे समय में इससे बीजेपी को फायदा होगा या नुकसान. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि लंबे समय में इससे बीजेपी को फायदा होगा या नुकसान.

(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख़ को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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