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अयोध्या विवाद: मोदी खुद को और ​हिंदुओं को पीड़ित दिखाकर वोट लेना चाह रहे हैं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह । पीटीआई

आरएसएस और बीजेपी सुप्रीम कोर्ट को अपनी ओछी राजनीति में खींचकर खतरनाक खेल खेल रही हैं.

2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए भाजपा और आरएसएस ने एक अच्छी योजना बनाई है कि सभी हिंदू मतदाताओं को पीड़ित दिखाएंगे. योजना हिंदू मतदाताओं को यह बताने की है कि उनका अयोध्या के राम मंदिर में प्रार्थना करने का अधिकार अस्वीकार कर दिया गया है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्मभूमि मुद्दे पर फैसले को प्राथमिकता नहीं दी है.

पिछले साढ़े चार साल से आपके पास एक ऐसा प्रधानमंत्री है जो बखूबी पीड़ित कार्ड खेलना जानता है और उसके लिए फिट भी है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और बीजेपी 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले जो छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं उसको जानने के लिए शेरलॉक होम्स के कौशल की आवश्यकता नहीं है. देश में हिंदू राम मंदिर चाहते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसकी अनुमति नहीं दे रहा है.

वे लोग केवल छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं. संघ के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी ने आरोप लगाया कि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले की सुनवाई जनवरी तक टाल कर हिंदुओं का अपमान किया है. आरएसएस और बीजेपी एक खतरनाक खेल खेल रहे हैं. शीर्ष अदालत को अपनी ओछी राजनीति में डालकर हिंदुओं को अदालत के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं.

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मैं यह भी अनुमान लगा सकता हूं कि कुछ दिनों में कुछ शीर्ष बीजेपी नेता चुनाव रैली में कह सकते हैं कि कांग्रेस और मुसलमानों की तरह ही सुप्रीम कोर्ट ने भी हिंदुओं को अयोध्या में पूजा करने का अधिकार को अस्वीकार कर दिया है.

हाल के हफ्तों में पर्याप्त संकेत मिले हैं और आरएसएस ने एक अध्यादेश लाने का दबाव बनाया है. मांग यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार को राम मंदिर बनाने के ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के लिए विवादित भूमि हासिल करने के लिए एक अध्यादेश लाना चाहिए. आरएसएस के सह सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य ने मोदी सरकार को यह सुझाव दिया कि सरकार अयोध्या में विवादित भूमि हासिल करके राम मंदिर के निर्माण के लिए सौंप दें.

अगर ये अध्यादेश कानून की नज़र में खराब भी है या फिर असंवैधानिक है या फिर सुप्रीम कोर्ट इस पर रोक लगा देता है. अगर इस में से कुछ भी होता है तो ये भाजपा को हिंदुओं के मत पाने में मदद ही करेगा क्योंकि ये हिदुओं की बेचारगी का कार्ड खेलेगा.

मोदी सरकार की कथनी और करनी के बीच भारी विसंगति के कारण वह ‘विकास’ या ‘अच्छे दिन’ के नारे पर अगला चुनाव जीत नहीं सकते हैं. बीजेपी और आरएसएस इस निष्कर्ष पर आ गए हैं कि केवल ‘रामलला’ ही उन्हें बचा सकते हैं.

सत्ता में आने की उनकी महत्वाकांक्षा में वे किसी भी प्रकार के गंभीर मुद्दे जो कि सुप्रीम कोर्ट में अटके हुए है या आरएसएस और भाजपा के नेता कुछ ऐसे मांग कर रहे हो जोकि असंवैधनिक हो उसको रास्ते में नहीं आने देंगे.

क्या सरकार ऐसा कानून ला सकती है ?

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्ती चेलेश्वर ने पिछले हफ्ते कांग्रेस के कार्यक्रम में सवालों का जवाब देते हुए कहा था. हां बिल्कुल, संवैधानिक रूप से जो मामले कोर्ट में लंबित हो सरकार उन मामलों पर भी कानून ला सकती है उस पर कोई रोक नहीं है.

मुद्दा यह है: क्या यह कानून अदालत में दीर्घकालिक होगा?

इस पर उन्होंने कहा कि इसका एक पहलू है कि कानूनी तौर पर यह संभव है. दूसरा है कि यह होगा (या नहीं). ऐसे कई मामले हैं जो पहले हो चुके हैं, इनमें विधायी प्रक्रिया ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले में रुकावट पैदा की थी.

संविधान सरकार को ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के लिए भूमि अधिग्रहण करने की अनुमति देता है. कुछ मामलों में मंदिर या पूजा के दूसरे स्थान के आसपास भूमि का एक टुकड़ा प्राप्त करना वास्तविक रूप से सार्वजनिक उद्देश्य बन जाता है.

लेकिन, क्या अदालतें इस बात से सहमत होंगी कि अयोध्या में विवादित भूमि का अधिग्रहण सार्वजनिक उद्देश्य की श्रेणी में आता है?

अदालत का फैसला क्या होगा उस पर कयास लगाना मुश्किल है खासतौर पर इसलिए कि ये मामला संवेदनशील है राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण भी. अगर आप केवल कानून की नज़र से देखे तो शायद आप सरकार को हारने वालें पक्ष के रूप में देखें.

सुप्रीम कोर्ट इस बारे में क्या कहता है?

सात जनवरी 1993, अयोध्या में कार सेवकों द्वारा विवादित बाबरी मस्जिद ढ़ांचे के गिराए जाने के बाद पीवी नरसिंह राव सरकार एक कानून लेकर आई जिसमें उसने विवादित स्थल के आसपास की 67.703 एकड़ भूमि अधिग्रहित कर ली. इसको अयोध्या में कतिपय क्षेत्र अर्जन अधिनियम के तहत किया गया जिसे बाद में , अयोध्या में कतिपय क्षेत्र अर्जन कानून 1993 में तब्दील कर दिया गया.

विवादित ढांचे के स्थान को छोड़कर अधिग्रहित क्षेत्र को दो ट्रस्टों को राम मंदिर निर्माण और मस्जिद निर्माण के लिए देना था. पर भूमि अधिग्रहण से उपजे विवाद के बाद राव सरकार ने राष्ट्रपति से मामले को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भिजवाया और उसकी इस पर राय मांगी कि क्या विवादित ढ़ांचे के पहले वहा राम मंदिर था. उसने ये भी फैसले किया कि मामला जस का तस रहेगा, जब तक अदालत इसपर अपना मत नहीं दे देता.

कुछ अन्य पक्ष भी मामले में शामिल हो गए और उन्होंने धर्मनिरपेक्षता, बराबरी के अधिकार और धर्म की आज़ादी के आधार पर इस कानून पर सवाल उठाए. राव सरकार ने अदालत को ये समझाने का प्रयास किया कि कानून व्यवस्था कि स्थिति को बिगड़ने देने से बचाने के लिए इस कानून की ज़रूरत है.

अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून के एक हिस्से को निरस्त कर दिया. और सरकार को भूमि के मालिकाना हक पाने से उस समय तक रोक दिया जब तक सारे मामलों में अंतिम फैसला न आ जाता.

केंद्र सरकार अपने अधिनियम या कानून से दावेदारों को कानूनी सुधार के अधिकार से वंचित नहीं कर सकती. और यही कोशिश कानून के सेक्शन 4(3) की थी. उसने सभी मामलों, अपील और कानूनी प्रक्रियाओं को रोक दिया था.

सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान को असंवैधानिक बता कर निरस्त कर दिया. उसने कहा कि न्यायिक सुधार प्रक्रिया को संविधान की मूल संरचना बताया और कहा कि इस पर अंकुश नहीं लगाया जो सकता.

पर फिर मोदी की बीजेपी और आरआरएस ऐसी छोटी मोटी बातों को अपने उद्देश्य से भटकने नहीं देने वाला. और अगर मामले में अदालत का दखल होता है तो ये पार्टी के लिए और अधिक वोट जुटाएगा.

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