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सुप्रीम कोर्ट ने नूपुर शर्मा पर जो ‘लेक्चर’ दिया, उसे भारत क्या पूरी तरह समझ पाया

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों पर भारत में जो प्रतिक्रियाएं सामने आईं उनसे तो यही संकेत मिलता है कि यह महज शोरशराबे का देश बन गया है जिसका कोई मतलब नहीं होता.

सुप्रीम कोर्ट । विकीमीडिया कॉमन्स
सुप्रीम कोर्ट । विकीमीडिया कॉमन्स

भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा को पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट जो झाड़ सुननी पड़ी उसे केवल ‘नैतिकता का उपदेश’ कहकर खारिज नहीं किया जा सकता. देश की उच्चतम अदालत ने कहा कि शर्मा की ‘बदजबानी ने पूरे देश में आग लगा दी है.’ अफसोस की बात है कि इस टिप्पणी को देश की पूरी राजनीतिक बिरादरी ने बड़े हल्के में लिया है, चाहे वह हिंदू उदारवादी जमात हो या हिंदुत्व के समर्थक हों या मुस्लिम जमात हो.

हमें तो इस टिप्पणी को इस रूप में लेना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने उन लोगों को एक संकेत दे दिया है, जो यह सोचते हैं कि वे नफरत उगलने वाले बयान देकर भी ‘कानूनी उपायों’ के बूते बेदाग बच जाएंगे.

मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना इससे ज्यादा सटीक बयान नहीं दे सकते थे कि न्यायपालिका ‘संविधान और सिर्फ संविधान के प्रति जवाबदेह है.’

लेकिन किसी को यहां सच से मतलब नहीं है.

सब तरफ आग

एक छोर पर हिंदुत्व के समर्थक हैं, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों की आलोचना में हदें पार कर दी हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर वे सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर गला फाड़ कर शोर मचा रहे हैं. किसी भी मुद्दे पर बिना सोचे-समझे, सच और नैतिकता की परवाह न करते हुए वे अपनी एकजुटता जताते रहे हैं. ‘ऑप-इंडिया’ जैसे प्रकाशन ने तो यह तक सवाल उठा दिया कि क्या सुप्रीम कोर्ट शरीआ कानून पर चल रहा है? सुप्रीम कोर्ट के कई वकीलों ने बेबुनियाद टिप्पणियां की हैं.

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पूरा हिंदुत्ववादी कुनबा पहले दिन से शर्मा के पीछे खड़ा हो गाया है और पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ उनके बयान का समर्थन कर रहा है, बावजूद इसके कि राजनीतिक दल होने के नाते भाजपा ने शर्मा से खुद को अलग कर लिया है. कानून मंत्री किरण रिजिजू ने कहा है कि वे सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों पर कुछ नहीं कहना चाहेंगे, ‘बावजूद इसके कि मैं उस फैसले को पसंद नहीं करता या जिस लहजे में टिप्पणियां की गईं उस पर मुझे सख्त आपत्ति है.’

सबसे बुरी बात तो यह है कि इस पूरे तमाशे से सबसे नाराज होने वाले मुस्लिम पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ‘हिसाब बराबर’ करने की कोशिश बताकर उसकी आलोचना की है.


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उदारवादी भी नाखुश

अगर आप यह सोच रहे हों कि सबसे अफसोसनाक टिप्पणी हिंदुत्व ब्रिगेड की ओर से आई होगी, तो आपको आश्चर्य से सामना करना पड़ेगा. अक्सर ‘उदारवादी’ कहे जाने वाले, सबसे तार्किक दिमाग रखने वालों ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपना काम करने की जगह नूपुर शर्मा को नैतिकता का भाषण पिलाकर वाहवाही लूटने की कोशिश की है’.

उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट को शर्मा के खिलाफ दायर सभी एफआईआर को जोड़ लेना चाहिए था, क्योंकि अपराध एक ही है, कई नहीं, जिसके कारण देश की विभिन्न जगहों पर उनके खिलाफ मुकदमा उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बन जाता है.

उन्होंने इन दावों के समर्थन में 2001 के एक फैसले का हवाल दिया है जिसमें सुप्रीम कोर्टने टीटी एंटनी बनाम केरल सरकार मामले में फैसला दिया था कि एक ही मामले पर ‘दूसरा एफआईआर’ नहीं दर्ज किया जा सकता. कई एफआईआर को एक साथ जोड़ने के उचित ठहराने के लिए अर्णब गोस्वामी का उदाहरण भी दिया गया.

कानूनी मिसाल

अधिकतर भारतीय अपने पूर्वाग्रहों के समर्थन में सबूत ढूंढ़ रहे हैं. अधिकतर सामाजिक-राजनीतिक मसलों में पुष्टीकरण का आग्रह काम कर रहा है, और जोरदार बहसों को जन्म दे रहा है जिससे समाज में दरारें पैदा हो रही हैं.

राजस्थान में एक आदमी का गला रेत कर मार दिया जाता है और एक खतरनाक आतंकवादी साजिश आकार लेने लगती है. इसी तरह महाराष्ट्र में भी एक आदमी की हत्या कर दी जाती है. देशभर में हिंसक प्रदर्शन शूरू हो जाते हैं. पहले, पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ दिए गए बयान के विरोध में मुसलमान सड़कों पर उतरते हैं. इसमें कुछ लोग मारे जाते हैं.

इसके बाद हिंदू सड़कों पर उतरते हैं, जब उदयपुर में कन्हैयालाल का कत्ल आईएसआईएस स्टाइल में कर दिया जाता है.
यह सब एक शख्स की वजह से हुआ. लेकिन सुप्रीम कोर्ट जब नूपुर शर्मा को आड़े हाथों लेता है तब भ्रमित भारत उस बात पर अजीबोगरीब टिप्पणियां देने लगता है जिस बात की तारीफ नफरत उगलने वाले बयान (हेट स्पीच) के खिलाफ एक मिसाल के रूप में की जानी चाहिए थी. नूपुर शर्मा का मामला कोई मामूल अपराध का मामला नहीं है. इस मामले को ‘हेट स्पीच’ का अपनी तरह का एक पहला मामला कहा जा सकता है जिसमें टीवी पर लापरवाह बयानबाजी के कारण पूरा देश अरजकता की चपेट में आ गया और दुनिया भर में इसकी निंदा हुई. यह मामला आगे भी ‘हेट स्पीच’ के लिए एक मिशाल बन सकता है.

कई लोग अमेज़न फ्राम वीडियो की सीरीज ‘तांडव’ को लेकर हुए बवंडर को आसानी से भूल गए हैं, जिसने हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंची थी क्योंकि उस शो में शिव भगवान के लिए निंदनीय शब्दों का प्रयोग किया गया था. धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने के इस मामले पर भी सुप्रीम कोर्ट ने इसी तरह की मौखिक टिप्पणी की थी और याचिकाकर्ताओं से अपने-अपने राज्य के हाइकोर्ट जाने के लिए कहा था, जहां उनके खिलाफ कई एफआईआर दर्ज किए गए थे.

इस मामले की सुनवाई की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस एम. आर. शाह ने कहा था, ‘आपकी अभिव्यक्ति का अधिकार संपूर्ण नहीं है. इस पर रोक लगाई जा सकती है.’

सुप्रीम कोर्ट ने ज़ोर दिया है कि नूपुर शर्मा के गैरजिम्मेदाराना आचरण के कारण उनके जवाब से ‘अदालत की अंतरात्मा’ संतुष्ट नहीं हुई है इसलिए उन्हें ‘कानून को उसी हिसाब से बदलना चाहिए’. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी को भारत की राजनीतिक जमात ने गंभीरता से नहीं लिया है.

मेरी विनम्र राय है कि उसकी टिप्पणी को महान टिप्पणी माना जाए. लेकिन हम तो भारी शोरशराबा वाला देश बन गए हैं, जिसका कोई मतलब नहीं होता.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक राजनैतिक टिप्पणीकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @zainabsikander है. विचार निजी हैं.)


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