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जीते या हारे, BJP पूरब में पैर जमा रही है, भारत की राजनीति में यह एक बड़ा बदलाव है

भाजपा  के फैलते वर्चस्व की कहानी क्या दक्षिण में भी चलेगी, जहां वह एक छोटा खिलाड़ी है? निकट भविष्य में तो ऐसा होता नहीं दिखता.

रमनदीप कौर । दिप्रिंट

जब कि मतदान के सभी चरण पूरे न हुए हों, चुनाव नतीजे का अंदाजा लगाना जोखिम का काम होता है. फिर भी, पूरा चुनाव अभियान जिस तरह चला है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल और असम में भाजपा दौड़ में आगे है. दूसरे शब्दों में, दूसरी पार्टियों का लक्ष्य भाजपा को पछाड़ना है. दूर की सोचें, तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह जीतेगी या नहीं. इस बार नहीं तो अगली बार भाजपा पश्चिम बंगाल को जीत ही लेगी. असम और ज़्यादातर उत्तर-पूर्व में तो वह पहले से ही सत्ता में है. भाषा और संस्कृति के लिहाज से हिंदी पट्टी से अलग क्षेत्र के लिए यह बहुत बड़ा राजनीतिक बदलाव है.

पूरब को धीरे-धीरे जीता गया है. बिहार में पिछले चुनाव ने भाजपा को शासक गठबंधन में बड़ा साझीदार बना दिया, हालांकि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने हुए हैं. ओडिशा में नवीन पटनायक की उम्र घटने वाली नहीं है और उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता है लेकिन वे अपने उत्तराधिकारी को आगे बढ़ाना तो दूर, उसका नाम तक बताने से हिचक रहे हैं. राज्य में भाजपा उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी बन गई है तो ऐसा लगता है कि बाकी जगहों पर जो कहानी हुई वह यहां भी दोहराई जाएगी, यानी एक व्यक्ति या एक परिवार पर टिकी पार्टियों को भाजपा अंततः साफ कर देगी.

लगभग पूरा उत्तर और पश्चिम उसके काबू में है और कांग्रेस 1980 के दशक में जितनी मजबूत थी उससे ज्यादा ही मजबूत आज भाजपा दिख रही है. उसकी मजबूती में ममता बनर्जी जैसों की गलतियों ने मदद की है.

उन्होंने कम्युनिस्टों की व्यवस्थित हिंसा और पार्टी आधारित भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उनसे मुक़ाबला किया, लेकिन आज उन पर वही दो आरोप लगाए जा रहे हैं और साथ में मुस्लिम कार्ड खेलने का भी आरोप लगाया जा रहा है.

उधर, महाराष्ट्र में राज्य की पुलिस और राजनीतिक तंत्र की मिलीभगत से जो असामान्य छल-कपट चला उसने शासक गठबंधन को बदनाम कर दिया.

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जिन राज्यों में भाजपा चुनाव के जरिए सत्ता नहीं हासिल कर सकी, उनमें उसने संसद पर अपनी पकड़ का फायदा उठाया. दिल्ली में लगातार पांच चुनाव हारने के बाद वह सही-गलत कानून के जरिए वास्तविक नियंत्रण हासिल करने को तैयार है. यही काम 2019 में जम्मू-कश्मीर (जहां वह चुनाव में हावी होने की उम्मीद नहीं करती) में किया गया, जहां कभी एक राज्य सरकार काफी स्वायत्तता के साथ काम कर रही थी उसे बर्खास्त करके राज्य का उसका दर्जा भी खत्म कर दिया गया.

यह एक विचित्र बात ही होगी कि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की कुल आबादी से भी ज्यादा, 1.9 करोड़ की आबादी वाली दिल्ली के लोगों की चुनी हुई सरकार की शायद ही कुछ चलेगी, सब कुछ केंद्र सरकार के एजेंट के फैसले पर निर्भर होगा.

भाजपा  के फैलते वर्चस्व की कहानी क्या दक्षिण में भी चलेगी, जहां वह एक छोटा खिलाड़ी है? निकट भविष्य में तो ऐसा होता नहीं दिखता. दक्षिण के अधिकतर राज्यों में उसे अभी भी उत्तर भारतीयों की पार्टी के रूप में देखा जाता है, जिसे हिंदी भाषा को आगे बढ़ाने वाली, अभी भी ऊंची जातियों के पूर्वाग्रहों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी माना जाता है, जिन्हें आज दक्षिण की राजनीति में कोई तरजीह नहीं हासिल है.

पार्टी को आंध्र प्रदेश में वर्चस्व रखने वाली पार्टी को जीतना होगा, जैसे कि कर्नाटक में उसने लिंगायतों को अपने पक्ष में किया, या फिर कई छोटी जातियों के बीच आधार बनाकर आगे बढ़ना होगा. तमिलनाडु में उसे किसी एक द्रविड़ पार्टी में एक नीतीश कुमार को तलाशना होगा, चाहे अखिल भारतीय अन्नाद्रमुक का नेतृत्व करने वाला उम्मीदवार कोई भी हो. उधर केरल अपनी अनूठी धार्मिक विविधता के साथ अलग तरह की चुनौती पेश कर रहा है.

भारत के इतिहास में ज़्यादातर समय दक्षिण अपनी स्वायत्त नियति पर ज़ोर देता रहा है और आज भी उसकी कोशिश वही है. इसलिए भाजपा शब्दशः लगभग औरंगजेब के नक्शेकदम पर चल रही है, भले ही आज पंजाब के सिख किसानों ने विद्रोह का झंडा उठा लिया है.

भाजपा के इस फैलते दायरे का क्या अर्थ है? पहला यह कि यह पार्टी शासन चलाने से ज्यादा चुनाव जीतने की कला जानती है. शासन के मामले में वह बड़बोले दावे करके निकल जाती है.

दूसरे, यह अपने खास सामाजिक-राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने पर आमादा है, इसलिए दूसरे मुद्दों के अलावा, अब तक ठंडे बस्ते में पड़ा नागरिकता कानून चिनगारी साबित हो सकती है.

जहां तक बेरोजगारी और आजीविका जैसे अहम मुद्दों की बात है, जो लोग ‘पोरिबोर्तन’ की उम्मीद लगाए बैठे हैं, उन्हें मायूसी ही हाथ लग सकती है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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