होम मत-विमत iCET के माध्यम से जैव प्रौद्योगिकी सहयोग: एक नई शुरुआत

iCET के माध्यम से जैव प्रौद्योगिकी सहयोग: एक नई शुरुआत

प्राथमिक अनुसंधान और स्टेकहोल्डरों के बातचीत के आधार पर ऐसे चार क्षेत्र हैं जो दोनों देशों के बीच iCET के तहत सहयोग बढ़ाने के लिए ठोस एजेंडा आइटम में संभावित तौर पर शामिल हो सकते हैं.

स्पुतनिक-5, कोविड वैक्सीन /Twitter/@sputnikvaccine

31 जनवरी, 2023 को इनीशिएटिव ऑन क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज़ (iCET) पर भारत और अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच पहली उच्च स्तरीय वार्ता हुई. मई 2022 में शुरू की गई iCET का नेतृत्व भारत का राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (एनएससीएस) और अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) करते हैं.

वैसे तो दोनों देशों की iCET की प्राथमिकता सूची अभी भी सार्वजनिक नहीं की गई है, iCET के बारे में भारतीय बयान में जैव प्रौद्योगिकी (बायोटेक्नोलॉजी) को इसकी प्रमुख प्राथमिकताओं में रखा गया है. दूसरी तरफ, व्हाइट हाउस के बयान में बायोटेक्नोलॉजी का ज़िक्र साफ़-साफ़ नहीं किया गया है, हालांकि यह क्रिटिकल और इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज़ की उस सूची में शामिल है जिसे फरवरी 2022 में नेशनल साइंस एंड टेक्नोलॉजी काउंसिल ने एनएससी और दूसरी फेडरल एजेंसियों से सलाह के बाद तैयार किया था.

दोनों देश जिस तरह से बायोटेक्नोलॉजी को अहमियत देते हैं, ऐसी कोई वजह नहीं है कि यह iCET के तहत एजेंडा आइटम में ना हो. यह दोनों देशों की आपसी ICET प्राथमिकता सूची में नहीं शामिल होता है या नहीं, इसके बारे में साफ़-साफ़ आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की वार्ता के बाद ही पता चलेगा. हालांकि भारत और अमेरिका के बीच प्रौद्योगिकी सहयोग के मुद्दे को गति मिल रही है. इसलिए दोनों देशों को बायोटेक्नोलॉजी में सहयोग पर ध्यान केंद्रित करने के लिए इस गति का फायदा उठाने के बारे में सोचना चाहिए.

हालांकि भारत और अमेरिका बायोटेक्नोलॉजी इनोवेशन के वैज्ञानिक और व्यावसायिक पहलुओं को बढ़ाने के लिए लंबे समय से एक-दूसरे के साथ सहयोग कर रहे हैं, iCET दोनों देशों के बीच सहयोग का एक नया सूत्र शुरू कर सकता है — जैविक खतरों को कम करने के लिए बायोसेफ्टी और बायोसिक्योरिटी को मज़बूत करना. लेकिन इसके पहले कि iCET के तहत इसके लिए ठोस एजेंटा आइटमों पर चर्चा की जाए, यह ज़रूरी है कि भारत और अमेरिका के भीतर और दोनों देशों के बीच बायोसेफ्टी और बायोसिक्योरिटी की स्पष्ट और साझा समझ विकसित की जाए.

बायोसेफ्टी के तहत प्रयोगशालाओं में दुर्घटनाओं पर रोकथाम लगाने या पर्यावरण में रोगाणुओं के दुर्घटनावश फैलाव को रोकने के लिए बने तरीके आते हैं. दूसरी तरफ, बायोसिक्योरिटी के दायरे में वे तौर-तरीके आते हैं जिनके इस्तेमाल से खतरनाक रोगाणुओं के जानबूझकर दुरुपयोग पर रोक लगाई जाती है.

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बायोसेफ्टी और बायोसिक्योरिटी पर बातचीत अहम है क्योंकि बायोटेक्नोलॉजी में तेज़ी से हुई तरक्की ने दुनिया भर में महामारी पैदा करने वाले रोगाणुओं को इंजीनियर करने की क्षमता को बढ़ा दिया है. चूंकि iCET का नेतृत्व दोनों पक्षों के राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतिष्ठान करते हैं, यह सुरक्षा और वैज्ञानिक समुदायों के बीच जैव प्रौद्योगिकी के दोहरे उपयोग के प्रभावों पर विचार-मंथन को तेज़ करने का सही माध्यम है.

प्राथमिक अनुसंधान और स्टेकहोल्डरों के बातचीत के आधार पर ऐसे चार क्षेत्र हैं जो दोनों देशों के बीच iCET के तहत सहयोग बढ़ाने के लिए ठोस एजेंडा आइटम में संभावित तौर पर शामिल हो सकते हैं.

बायोसेफ्टी और बायोसिक्योरिटी के बारे में जागरूकता बढ़ाना

iCET भारत और अमेरिका दोनों देशों में एक वर्किंग ग्रुप बनाने की एक आदर्श पहल है. इस ग्रुप में अलग-अलग सरकारी विभागों, अनुसंधान और शैक्षणिक समुदाय, निजी क्षेत्र के हितधारकों और फंडिंग संगठनों के प्रतिनिधि, राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञ, स्वास्थ्य पेशेवर और थिंक टैंक्स के सदस्य शामिल किए जाएं जो आपस में मिलकर बायोटेक्नोलॉजी की अहम तरक्की के दोहरे इस्तेमाल वाले प्रभावों की पहचान कर पाएं. ऐसा इसलिए क्योंकि सुरक्षा संबंधी महत्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार की तरफ से समग्र कार्रवाई को संचालित करना और दोनों देशों के अलग-अलग विभागों के बीच नीतियों पर समन्वय बनाना, और साथ में सरकार के बाहर के स्टेकहोल्डरों को शामिल करना एनएससी और एनएससीएस के लिए तुलनात्मक रूप से आसान है.

वर्किंग ग्रुप उन प्रमुख प्रौद्योगिकियों की पहचान कर सकता है जिनसे जैविक खतरे सामने आते हैं, इन खतरों के बारे में जागरूकता पैदा कर सकता है, उन क्षेत्रों की पहचान कर सकता है जिनमें दोनों देश साथ काम करके संयुक्त प्रशिक्षण कार्यक्रम विकसित कर सकते हैं, और एक सुरक्षित ढंग से जैविक अनुसंधान करने के लिए मानकों को विकसित करने में सहयोग कर सकता है.

इसलिए, पहले कदम के तौर पर, वर्किंग ग्रुपों को वैज्ञानिक और सुरक्षा समुदायों के बीच के अंतर को कम करना चाहिए. यह महत्वपूर्ण है क्योंकि, ज़्यादातर मामलों में, भारत और अमेरिका दोनों देशों में बायोसेफ्टी और बायोसिक्योरिटी की समझ को लेकर दोनों समुदायों के बीच में अलगाव दिखता है. जहां वैज्ञानिक उनके अनुसंधानों के दोहरे इस्तेमाल वाले प्रभावों को हमेशा समझ नहीं सकते या उनसे सहमत नहीं हो सकते, सुरक्षा विशेषज्ञों में बायोटेक्नोलॉजी को नियंत्रित करने के लिए उनकी हालिया तरक्की के बारे में पर्याप्त समझ की कमी हो सकती है. कुछ मामलों में, प्रयोगशालाओं में काम कर रहे कर्मचारियों को प्रयोगशाला की प्रक्रियाओं की खराब समझ हो सकता है, जिससे अनजाने में रोगाणुओं को संभालने में गड़बड़ी हो सकती है, और इसका नतीजा हो सकता है दुर्घटनावश प्रयोगशाला से लीकेज. इसलिए, भारत और अमेरिका दोनों जगहों पर बायोसेफ्टी और बायोसिक्योरिटी को मज़बूत करने के लिए, दोनों देशों के वर्किंग ग्रुप के सदस्यों को आपसी सहयोग से मार्गदर्शक सिद्धांत या ट्रेनिंग मॉड्यूल्स विकसित करने चाहिए ताकि राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता पैदा की जा सके.

जब घरेलू स्तर पर स्टेकहोल्डरों के बीच एक बार संवाद होने लगे, तब इन चर्चाओं के नतीजों को दोनों देशों के बीच साझा करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि दोनों पक्ष जैविक खतरों की समझ और उनसे निपटने की रणनीतियों को लेकर एक जैसी सोच रख रहे हैं.

परस्पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से प्रतिभा विकसित करना

भारत और अमेरिका के बीच जैव प्रौद्योगिकी सहयोग बढ़ाने के पिछले समझौतों का फोकस अक्सर टेक्नोलॉजी और प्रोडक्ट ट्रांसफर के संबंध में एक्सपोर्ट कंट्रोल या बौद्धिक संपदा मुद्दे रहे हैं. पारंपरिक नौसैनिक या सैन्य अभ्यासों की तर्ज पर, एनएससी और एनएससीएस उभरते जैविक खतरों की बेहतर तैयारी के लिए उन दो वर्किंग ग्रुपों का इस्तेमाल कर सकते हैं जिनकी चर्चा ऊपर की गई है. ये ग्रुप ज्वॉइंट सिम्युलेशन एक्सरसाइज़, फेलोशिप प्रोग्राम्स, अनौपचारिक चर्चाएं, या बातचीत कर सकते हैं.

उदाहरण के लिए, अमेरिका में जॉन्स हॉपकिंस सेंटर फॉर हेल्थ सिक्योरिटी ने भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय में जैव प्रौद्योगिकी विभाग के अधीन स्वायत्त संस्थान, रीजनल सेंटर ऑफ बायोटेक्नोलॉजी के साथ मिलकर, बायोसिक्योरिटी पर ट्रैक 2 की कई वार्ताएं आयोजित की हैं. दोनों संस्थान इस वार्ता को 2017 से आयोजित कर रहे हैं ताकि दोनों देशों के बीच जैविक खतरों की समझ और जानकारी को बढ़ा सकें, साझा चिंताओं वाले जैविक खतरों के इर्द-गिर्द योजनाएं विकसित कर सकें, किसी रोग के उभरने की शुरुआत होते ही उसका पता लगाने की रणनीतियां बना सकें, रोग की रोकथाम के मेडिकल उपायों के उन्नत विकास के लिए प्रोत्साहन की पहचान की जा सके, और जैविक अनुसंधान प्रयोगशालाओं के निर्माण और रख-रखाव के लिए मानदंड बनाए जा सकें.

लंबे समय से चली आ रही इस साझेदारी की वजह से, इन दोनों देशों के लिए ज्वॉइंट फेलोशिप प्रोग्राम, हैकेथॉन, या जैविक खतरों की पहचान करने और उनसे निपटने के लिए भारत और अमेरिका दोनों जगहों पर क्षमता निर्माण के लिए प्रशिक्षण सत्रों के लिए एक औपचारिक करार पत्र पर दस्तखत करना तुलनात्मक रूप से आसान हो सकता है. जहां अब तक इस संबंध का समर्थन ज़्यादातर अमेरिकी रक्षा विभाग के तहत डिफेंस थ्रेट रेडक्शन एजेंसी ने किया है, दोनों देशों के लिए इस साझेदारी को बनाए रखने के लिए ज़रूरी हो सकता है कि वे सरकार, निजी क्षेत्र (वेंचर कैपिटलिस्टों समेत), या परोपकारी संगठनों से पैसे जुटाने के मौके तलाशें.

पूर्व चेतावनी प्रणाली के लिए संस्थागत क्षमता का निर्माण

यह ज़रूरी है कि ऐसी चेतावनी प्रणाली स्थापित की जाए जो किसी संक्रमण के बिलकुल शुरुआत का पता लगा सके. इसके लिए, भारत और अमेरिका दोनों सरकारों को अपने-अपने देशों में व्यापक रोग निगरानी नेटवर्क में निवेश करना चाहिए. ये नेटवर्क सिर्फ अपने देशों में संक्रामक रोगों (पौधे, इंसान, और जानवर से फैलने वाले) पर नज़र ना रखें, बल्कि दूसरे देशों में भी संक्रामक रोगों के प्रकोप को देखें, जो भारत और/या अमेरिका के लिए एक संभावित राष्ट्रीय सुरक्षा खतरा बन सकता है.

चूंकि रोग निगरानी तंत्र में शामिल लोगों को किसी देश की राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं की साफ़ समझ नहीं हो सकती है, iCET वह पुल हो सकता है जो देश की स्वास्थ्य प्राथमिकताओं को इसकी राष्ट्रीय सुरक्षा प्राथमिकताओं से जोड़ता है. ऐसा इसलिए क्योंकि एनएससी और एनएससीएस के पास उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा प्राथमिकताओं की पर्याप्त समझ है और इसलिए ये दोनों राष्ट्रीय सुरक्षा के नज़रिए से मौजूदा चिकित्सा या स्वास्थ्य खुफिया संगठनों द्वारा एकत्र की गई जानकारी का मूल्यांकन करने के लिए वैज्ञानिक और शैक्षणिक समुदाय के साथ सहयोग कर सकते हैं.

जहां कुछ हद तक, ऐसे स्वास्थ्य खुफिया तंत्र भारत और अमेरिका दोनों जगहों पर मौजूद हैं, यह महत्वपूर्ण है कि इन प्रक्रियाओं में आंकड़े लगातार अपडेट होते रहें और एक-दूसरे से जुड़े हों ताकि किसी रोग के प्रकोप का शुरुआत में ही पता लग सके और उससे निपटने के लिए बेहतर समन्वय बनाया जा सके.

अमेरिका में नेशनल सेंटर फॉर मेडिकल इंटेलिजेंस को रक्षा विभाग के तहत स्थापित किया गया है ताकि वह “उन सभी वैश्विक स्वास्थ्य घटनाओं की निगरानी और आकलन कर सके जो अमेरिकी सैन्य और नागरिक आबादी की सेहत पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं.” रोगों के वैश्विक प्रसार पर नज़र रखने के अलावा, यह संगठन जैव प्रौद्योगिकी में नई प्रगति के नागरिक और सैन्य प्रयोगों का आकलन करता है और नीति-निर्माताओं को यह जानकारी देता है ताकि वे किसी संभावित जैविक खतरे से निपटने के लिए त्वरित प्रतिक्रिया की तैयारी कर सकें.

इसी तरह, भारत में, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन सेंट्रल ब्यूरो ऑफ हेल्थ इंटेलिजेंस बनाया गया है. यह ब्यूरो देश के भीतर साक्ष्य-आधारित नीतिगत निर्णयों, योजना और अनुसंधान गतिविधियों के लिए स्वास्थ्य (संक्रामक और गैर-संक्रामक दोनों तरह के रोगों) पर आंकड़े इकट्ठा करता है, उनका विश्लेषण करता है और फिर प्रसार करता है. हालांकि यह संगठन किसी रोग के प्रकोप की वैश्विक निगरानी नहीं करता है जो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक संभावित खतरा बन सकता है. साथ ही, यह भी साफ़ नहीं है कि क्या यह संगठन उन रोग निगरानी कार्यक्रमों से जानकारी जुटाता है जो जानवरों और पौधों में रोगों का रिकॉर्ड रखते हैं. इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि इस इंटेलिजेंस ब्यूरो का दायरा बढ़ाकर उसमें पौधों, जानवरों, और इंसानों में होने वाली बीमारियों को शामिल किया जाए, ना सिर्फ देश के भीतर बल्कि देश के बाहर भी, और फिर इस जानकारी को नीति-निर्माताओं को दिया जाए ताकि वे रोकथाम और प्रतिक्रिया से जुड़ी रणनीतियां बनाने में बेहतर समन्वय दिखा सकें. साथ ही, इस ब्यूरो के लिए यह भी ज़रूरी है कि जैव प्रौद्योगिकी के नागरिक और सैन्य प्रयोगों और भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर उनके असर का मूल्यांकन करने के लिए सुरक्षा पेशेवरों और वैज्ञानिक समुदाय की विशेषज्ञता का फायदा उठाए.

जैविक खतरों से निपटने के लिए नोडल ऑफिस बनाना

कोरोनावायरस महामारी के हालिया अनुभवों को देखते हुए, भारत और अमेरिका दोनों को अपनी तैयारियों को प्राथमिकता देनी चाहिए और एक महत्वपूर्ण सरकारी प्राथमिकता के रूप में जैविक खतरों के प्रति सोची-समझी प्रतिक्रिया पर काम करना चाहिए.

इसलिए, एक दीर्घकालिक लक्ष्य के रूप में, iCET को दोनों देशों को प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे जैविक खतरों को रोकने और उनका प्रबंधन करने के लिए नोडल ऑफिस बनाएं. यह महत्वपूर्ण है क्योंकि iCET के समन्वय के लिए प्रभारी अधिकारियों को उनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद कोई दूसरा कार्य सौंपा जा सकता है. इसलिए, दोनों पक्षों के बीच बातचीत जारी रहे, इसके लिए ज़रूरी है कि इसी काम को ध्यान में रखते हुए एक ऑफिस बनाया जाए, जिसमें पूर्णकालिक कर्मचारी हों, और जो जैविक खतरों की विकसित होती प्रवृत्ति पर लगातार नज़र बनाए रखे. ये नोडल ऑफिस iCET के तहत बनाए गए वर्किंग ग्रुपों से सीख ले सकते हैं ताकि भविष्य में बीमारी के प्रकोप के लिए निवारक और प्रतिक्रिया रणनीति बनाने के लिए जैविक खतरों का शीघ्र पता लगाया जा सके.

अमेरिका में इस दिशा में पहले से ही कुछ हलचल दिखाई दे रही है. iCET के लॉन्च के तुरंत बाद, अमेरिका ने एक एग्जीक्यूटिव ऑर्डर जारी किया जिसमें सुझाव दिया गया कि देश को “बायोटेक्नोलॉजी में प्रगति से जुड़े जैविक जोखिमों को कम करने के लिए ठोस कदम” उठाने चाहिए. इसने यह भी सुझाव दिया कि हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विसेज सेक्रेटरी, दूसरी प्रासंगिक एजेंसियों के प्रमुखों के साथ मिलकर, एक “बायोसेफ्टी एंड बायोसिक्योरिटी इनोवेशन इनीशिएटिव” शुरू करेंगे जिसका ढांचा एक इंटरएजेंसी वर्किंग ग्रुप के रूप में होगा, इसमें पूर्णकालिक कर्मचारी होंगे, और इसका मकसद होगा बढ़ती जैव-अर्थव्यवस्था से जुड़े जैविक जोखिमों को कम करना. आगे जाकर, यह एक्सपर्ट वर्किंग ग्रुप एक पूर्णकालिक कार्यालय में बदला जा सकता है जो नियमित रूप से उभरती कमज़ोरियों की पहचान कर सकता है, जैविक अनुसंधान के अलग-अलग चरणों में शामिल हितधारकों के साथ मेल-जोल करते हुए सर्वश्रेष्ठ तरीके विकसित कर सकता है, और सामुदायिक जुड़ाव बढ़ा सकता है.

दूसरी तरफ, भारत ने 2017 में एक नया पब्लिक हेल्थ (प्रिवेंशन, कंट्रोल एंड मैनेजमेंट ऑफ एपिडेमिक्स, बायो-टेररिज़्म एंड डिज़ास्टर्स) बिल पेश किया. 2017 में इस बिल पर जन प्रतिक्रियाएं आमंत्रित की गई थीं, लेकिन इसकी वर्तमान स्थिति अज्ञात है. इसलिए, मौजूदा समय में, भारत में ना तो कोई व्यापक कानून है और ना ही कोई नोडल अथॉरिटी जो जैविक खतरों के प्रति इसकी प्रतिक्रिया को संचालित करे. इसलिए भारत के लिए यह बुद्धिमानी होगी कि iCET के अधीन बने वर्किंग ग्रुप को एक ऐसे ऑफिस में बदल दिया जाए जो जैविक खतरों के लिए तैयारियों और प्रतिक्रिया पर नज़र रखे.

एक बार जब दोनों देशों में नोडल ऑफिसेज़ बन जाते हैं, वे शुरुआती चेतावनी प्रणाली और संयुक्त प्रशिक्षण अभ्यासों के विकास पर समन्वय के लिए संभावित रूप से पंचवर्षीय योजना जारी कर सकते हैं, जिससे पारदर्शिता बढ़ेगी और जैविक खतरों से निपटने के लिए भारत और अमेरिका में सहयोग मज़बूत होगा.

निष्कर्ष

जैव प्रौद्योगिकी की तेज़ तरक्की और भारत और अमेरिका दोनों देशों में आर्थिक और सुरक्षा परिदृश्य पर इसके प्रभाव को देखते हुए, iCET जैविक खतरों के बारे में चर्चा शुरू करने और उनसे निपटने के लिए रणनीतियां तैयार करने के लिए सही माध्यम दिखता है. शुरुआत की जा सकती है एक मल्टीस्टेकहोल्डर वर्किंग ग्रुप तैयार करने के आसान लक्ष्य के साथ, जो पहले बायोसेफ्टी और बायोसिक्योरिटी के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए संयुक्त प्रशिक्षण कार्यक्रम लागू कर सकता है. और फिर दोनों देशों में औपचारिक संस्थागत क्षमताएं विकसित करने के दीर्घकालिक लक्ष्यों की तरफ बढ़ सकता है ताकि शुरुआती चेतावनी प्रणाली स्थापित करने के लिए सूचनाओं का आदान-प्रदान सुनिश्चित किया जा सके.

लेखक के विचार निजी हैं. यह लेख कार्नेगी इंडिया में पहले पब्लिश हो चुका है.


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