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भीमा कोरेगांव: कब्र फोड़कर निकल आई एक गौरवगाथा

भीमा कारेगांव का युद्ध भारतीय समाज को लोकतांत्रिक बनाने की लड़ाई का गौरवशाली अध्याय है. अंग्रेजों की जीत नहीं, जातिवाद की हार का जश्न है भीमा कोरेगांव.

Bhima Koregaon
महार रेजीमेंट के साथ डॉ आंबेडकर. (फोटो: महार रेजीमेंट के फेसबुक पेज से)

यह दो सौ साल पहले की दास्तान है. ब्रिटिश इतिहासकार इसे पूरब में हुई सबसे निर्णायक लड़ाइयों में एक मानते हैं. अंग्रेजों के लिए इसका महत्व इसलिए है क्योंकि इस युद्ध में उनकी जीत और पेशवा की हार के साथ ही भारत में उनके लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं बची थी. भारत में इतिहास की टेक्स्ट बुक आम तौर पर इस बारे में विस्तार में नहीं जातीं कि भीमा कोरेगांव में क्या हुआ था. इसलिए भारत के युवाओं में इस युद्ध को लेकर प्रामाणिक जानकारियों का अभाव है.

पुणे के पास भीमा नदी के तट पर उस दिन जो हुआ था, उसका सिर्फ राजनीतिक और रणनीतिक महत्व नहीं है. उस दिन उस मैदान में सिर्फ अंग्रेज और पेशवा नहीं लड़ रहे थे. वहां जातिवाद के खिलाफ भी एक महासंग्राम हुआ था. इस लड़ाई में अछूत मानी जाने वाले महार ​जाति के सैनिकों ने जातिवादी पेशवाई को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद कर दिया. भारतीय समाज को लोकतांत्रिक और मानवीय बनाने में इस युद्ध ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

ये जरूर है कि आजादी के बाद भारतीय इतिहास का जो केंद्रीय नैरेटिव या आख्यान बनाया गया, उसमें आजादी की लड़ाई को उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के एकल चश्मे से देखा गया और इसमें अंग्रेज बनाम भारतीय की बायनरी बनाई गई, जबकि उस समय देश की एक विशाल आबादी अपने इंसान होने के हक के लिए जूझ रही थी.


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इस नैरेटिव का असर ये था कि लगभग सत्तर साल तक भीमा कोरेगांव को मुख्यधारा में वह स्थान नहीं मिला, जिस पर उसका वाजिब हक था. अब भीमा कोरेगांव की दफना दी गई गौरवगाथा कब्र फोड़कर निकल आई है और अब लाखों लोग इसकी बात करने लगे हैं. हालांकि टेक्स्ट बुक में भीमा कोरेगांव को वाजिब स्थान मिलना अभी बाकी है.

भीमा कोरेगांव युद्ध – कहा जाता है कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया की पांच सौ सैनिकों की एक छोटी कंपनी ने, जिसमें ज्यादातर सैनिक महार (अछूत) थे, पेशवा शासक बाजीराव द्वितीय की 28,000 हज़ार की सेना को महज 12 घंटे चले युद्ध में पराजित कर दिया था. कोरेगांव के मैदान में जिन महार सैनिकों ने लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की, उनके सम्मान में सन 1822 ई. में भीमा नदी के किनारे काले पत्थरों के रणस्तंभ का निर्माण किया गया, जिन पर उनके नाम खुदे हैं.

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इस घटना को देश भर के दलित अपने इतिहास का एक वीरतापूर्ण प्रकरण मानते हैं और कई वर्षों से इसे सेलिब्रेट करने क्रांति स्तंभ पर पहुंचते रहे हैं. बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी भीमा कोरेगांव पहुंचकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी थी.


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पेशवाओं की यह पराजय असाधारण पराजय थी और महारों की इस विजय को सिर्फ़ सामरिक कुशलता या रणनीति के द्वारा नहीं बल्कि मनोविज्ञान के द्वारा समझा जाना चाहिए. पेशवा पहले मराठा राजाओं के ब्राह्मण मंत्री हुआ करते थे, जिन्होंने बाद में शिवाजी के वंशजों को बेदखल करके शासन पर कब्जा कर लिया था. उनके शासन काल में ‘अस्पृश्यों’ पर अमानवीय अत्याचार होते थे.

भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ

भीमा कोरेगांव के युद्ध में हजारों वर्ष की यातना, अत्याचार और वेदना की अभिव्यक्ति अप्रत्याशित आक्रोश के रूप में हुई. महारों के लिए यह ‘करो या मरो’, अपने स्वाभिमान की रक्षा, अपनी काबिलियत को प्रदर्शित का अवसर था. इस युद्ध में अंग्रेजों और पेशवाओं के उद्देश्य अलग-अलग थे. पर महारों ने इसे सामाजिक क्रांति के अवसर के रूप में लड़ा – खोने के लिए कुछ नहीं, लेकिन पाने के लिए आत्म-सम्मान, बराबरी और प्रतिष्ठा. इस दृष्टिकोण से इसे अनोखा युद्ध समझा जाना चाहिए!

बहरहाल, पिछले साल इस युद्ध की दो सौवीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी काफी पहले से चल रही थी और यह भी स्पष्ट था कि इस अवसर पर देश भर से लाखों लोग (सिर्फ दलित नहीं) एकत्रित होंगे. फिर अचानक हमला! जिन व्यक्तियों और संगठनों के नाम इस उपद्रव में आए हैं, वे सभी अतिवादी ‘हिंदूवादी’ संगठनों से जुड़े हुए हैं और इनका संबंध महाराष्ट्र और वर्तमान केंद्र सरकार से बताया जा रहा है. तो क्या यह समझा जाय कि यह सुनियोजित हमला था जिसमें सरकार से जुड़े संगठन शामिल थे? क्या भाजपा शासन में पुनः पेशवाई शासन की पुनरावृत्ति हो रही है?

पिछले चार वर्षों में दलितों/वंचितों पर हमलों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है और इन सभी घटनाओं में एक समानता है – तक़रीबन एक ही तरह के लोग और संगठन शामिल हैं. इनका लक्ष्य साफ़ है. दलितों में बढ़ती चेतना को कुंद करने के लिए इस तरह की हिंसक वारदातों के द्वारा उन्हें आतंकित करना.


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इस तरह की बढ़ती घटनाओं को समझने के लिए आंबेडकर को पढ़ना प्रासंगिक होगा. वे लिखते हैं, ‘एक हिंदू को इससे क्या आघात पहुंच सकता है: यदि एक अस्पृश्य साफ वस्त्र पहने, यदि वह अपने घर पर खपरैल की छत डालता है, यदि वह अपने बच्चे को स्कूल भेजना चाहता है, यदि वह अपना धर्म बदलना चाहता है, यदि वह अपना सुंदर एवं सम्माननीय नामकरण करता है, यदि वह अपना घर का द्वार मुख्य सड़क की ओर खोलना चाहता है, यदि वह कोई प्राधिकार वाला कोई पद प्राप्त कर लेता है, भूमि खरीद लेता है, व्यापार करता है, आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाता है और उसकी गिनती खाते-पीते लोगों में होने लगती है?’

वे आगे लिखते हैं, ‘सभी हिंदू, चाहे सरकारी हो या गैर सरकारी, मिलकर अस्पृश्यों का दमन क्यूं करते हैं? सभी जातियां, चाहे वे आपस में लड़ती झगड़ती, हिंदू धर्म की आड़ में एकजुट होकर क्यों साजिश करती हैं और अस्पृश्यों को असहाय स्थिति में रखती हैं.’ डॉ आंबेडकर आगे लिखते हैं, ‘यदि आप किसी हिंदू से पूछेंगे कि वह ऐसा बर्बर व्यवहार क्यूं करता है?….वह कहेगा, अस्पृश्यों के जिस प्रयास को आप सुधार कहते हैं, वह सुधार नहीं है. वह हमारे धर्म का घोर अपमान है. यदि आप फिर पूछेंगे कि इस धर्म की व्यवस्था कहां है, तो पुनः उसका उत्तर सीधा-सा होगा – हमारा धर्म, हमारे शास्त्रों में है.’


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दलितों के खिलाफ हो रही हिंसा का उत्तर डॉ आंबेडकर के उपरोक्त वक्तव्यों में मिल जाता है. आरक्षण की वजह से दलितों में एक छोटा सा ऐसा वर्ग तैयार जरूर हुआ है जो अंग्रेजी बोलता है, अच्छे नामकरण करता है, घर बनाता है, बड़ी गाड़ी में चलता है और सबसे बड़ी बात, सवाल करता है. जैसे-जैसे दलित और वंचित जमात में समृद्धि बढ़ेगी, सवाल करेगा, वैसे-वैसे इस तरह इस तरह के हमले और टकराव बढ़ने की संभावना बढ़ेगी. 2018 में भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा को इस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए.

(डॉ. रतन लाल इतिहास विभाग, हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)

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