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बाल ठाकरे के सामने नतमस्तक रही बीजेपी ने शिवसेना को कैसे जूनियर बना दिया?

समान तेवर और विचारधारा वाली दो पार्टियां एक साथ फल-फूल नहीं सकती. जब से बीजेपी ने उग्र हिंदुत्व को अपना लिया है तब से शिव सेना की जमीन लगातार सिंकुड़ती जा रही है. अब उसके सामने अस्तित्व का संकट है.

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मुंबई में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मिलते हुए शिवसेना प्रमुख उद्भव ठाकरे । फोटो साभार : पीटीआई

महाराष्ट्र में खुद को हिंदुत्व और मराठी अस्मिता की सबसे बड़ी अलमबरदार मानने वाली शिवसेना विधानसभा चुनावों में अब वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रही है. उसके अस्तित्व को चुनौती कांग्रेस या एनसीपी से नहीं, खुद बीजेपी से मिल रही है. बीजेपी के साथ गठबंधन में जूनियर पार्टनर होने की हैसियत स्वीकार करने के बाद ये तय हो चुका है कि शिव सेना का बाला साहब ठाकरे के दिनों वाला जलवा खत्म हो चुका है. साथ ही ये भी फैसला हो चुका है कि महाराष्ट्र में उग्र हिंदुत्व की प्रतिनिधि पार्टी अब शिव सेना नहीं, बीजेपी है.

महाराष्ट्र में एनडीए में सीटों का तालमेल जिस तरह से हुआ, उससे स्पष्ट है कि शिव सेना अब ये सोचना बंद कर चुकी है कि वह अकेले दम पर महाराष्ट्र की सत्ता में आएगी, या कि उसका अपना मुख्यमंत्री होगा. गठबंधन में बीजेपी 150 और शिव सेना 124 उम्मीदवार उतार रही है. अब शिवसेना सिर्फ इस बात के लिए लड़ रही है कि उसे इतनी सीटें तो मिल जाएं कि दूसरे दलों से शिवसेना में आने वाले नेता एडजस्ट किए जा सकें और गठबंधन सरकार बनने पर उसकी कुछ हैसियत बची रहे. अभी तक मुंबई महानगरपालिका में शिव सेना का दबदबा है, लेकिन बीजेपी इसे भी कब तक बर्दाश्त करेगी, ये देखना होगा.

उग्रता में बीजेपी ने शिव सेना को पीछे छोड़ा

उग्र हिंदुत्व, मुसलमान विरोध और पाकिस्तान के प्रति घृणा की जिस विचारधारा को शिवसेना लेकर चली थी, बीजेपी उससे ज्यादा उग्र तेवर अपनाकर और नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे नेताओं को आगे करके शिवसेना के सामने बड़ी लकीर खींच चुकी है. शिवसेना अल्पसंख्यकों जिस तरह कंट्रोल करने और दबाकर रखने का सपना अपने समर्थकों को दिखाती थी, बीजेपी उससे बहुत आगे बढ़ चुकी है. उसने उग्र हिंदुत्व के समर्थकों को न केवल सपना दिखाया है, बल्कि उस पर अमल करके भी दिखाया है. मॉब लिंचिंग करने वालों को माला पहनाने वाली बीजेपी को टक्कर दे पाना शिव सेना के लिए मुश्किल साबित हुआ. ऐसे में सवर्ण हिंदुओं और उग्र हिंदुत्व के समर्थकों के लिए शिवसेना की अहमियत नहीं रह गई है.

बाल ठाकरे के निधन के बाद नेतृत्व का संकट तो शिवसेना झेल ही रही है, साथ ही विभाजन का दंश भी उसने झेला है. इससे भी उसकी आक्रामकता कम हुई है और दूसरे, बीजेपी ने केंद्र में सत्ता पाने के बाद से लगातार अपनी आक्रामकता बढ़ाई है. ऐसे में शिवसेना उससे काफी पीछे छूटती दिख रही है.


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गठबंधन में बढ़ती रही बीजेपी, पिछड़ती गई शिवसेना

महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना के गठबंधन का इतिहास देखें तो 1984 में शिवसेना और बीजेपी ने मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ा. शिवसेना ने ये चुनाव बीजेपी के चुनाव चिह्न पर लड़ा क्योंकि शिव सेना के पास उस समय तक अपना निशान नहीं था. वह कांग्रेस की लहर का चुनाव था और इस गठबंधन को कोई सीट नहीं मिली. 1990 में दोनों ने मिलकर पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ा था. तब शिवसेना ने 183 सीट और बीजेपी ने 104 सीटों पर चुनाव लड़ा था. इसमें बीजेपी को 42 और शिवसेना को 52 सीटें मिलीं यानी शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में रही. शिवसेना से तालमेल की गुहार भी बीजेपी ने ही लगाई थी.

इस गठबंधन ने 1995 में फिर मिलकर चुनाव लड़ा जिसमें शिवसेना ने पहले से एक सीट बीजेपी को ज्यादा यानी 105 सीट दी और खुद 183 सीट पर लड़ी. जिसमें से शिवसेना को 73 और बीजेपी को 65 सीटें मिलीं. यानी बाबरी मस्जिद गिराए जाने और मुंबई ब्लास्ट और भीषण दंगों के बावजूद महाराष्ट्र में गठबंधन में बीजेपी के मुकाबले शिव सेना की बढ़त कायम रही. दोनों ने मिलकर पहली बार महाराष्ट्र में सरकार बनाई और मुख्यमंत्री शिवसेना का बना. लेकिन, अगले ही चुनाव में गठबंधन को पराजय मिली. 1999 में हुए चुनाव में शिवसेना ने 161 सीटों पर और बीजेपी ने 117 सीटों पर चुनाव लड़ा. तब शिवसेना के 69 और बीजेपी के 56 विधायक जीतकर आए, लेकिन ये गठबंधन कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन से हार गया. इतना स्पष्ट है कि इस पूरे दौर में बीजेपी बढ़ रही थी और शिव सेना घट रही थी.

2004 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन का वही हाल रहा, लेकिन बीजेपी ने कुछ सीटों का नुकसान सह लिया. शिवसेना 163 सीटों पर लड़ी तो बीजेपी 111 सीटों पर चुनाव लड़ी. इसमें शिवसेना को 62 और बीजेपी को 54 सीटें मिलीं, लेकिन गठबंधन को सत्ता नहीं मिल पाई.

2009 में पलट गया संतुलन

इसके बाद आए 2009 के चुनाव, जिसमें शिवसेना ने 169 और बीजेपी ने 119 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन इन चुनावों से खेल पलटना शुरू हो गया और यह तय हो गया कि बीजेपी जल्द ही गठबंधन की बड़ी पार्टी बनने वाली है0 और शिवसेना सिमटती जा रही है. इन चुनावों में बीजेपी ने शिवसेना से 2 सीटें ज्यादा जीतीं. बीजेपी के 46 विधायक जीते और शिवसेना के 44 विधायक विधानसभा में पहुंचे. कम सीटें लड़कर ज्यादा सीटें जीतने की वजह से बीजेपी का आत्मविश्वास बढ़ गया. इसके बाद ही बीजेपी को लगने लगा कि अब वह अपना मुख्यमंत्री बना सकती है.

इसी कारण से बीजेपी ने 2014 में शिवसेना के सामने झुकने से इंकार कर दिया और दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा. मोदी का जलवा बढ़ा और बीजेपी 260 सीटों पर लड़कर 122 सीटें जीत गई. शिवसेना ने 282 सीटों पर लड़ाई लड़ी लेकिन उसके केवल 63 विधायक ही जीते. इस तरह तय हो गया कि बीजेपी अगर शिवसेना से ज्यादा उग्र हिंदुत्व अपनाए तो शिवसेना का सिमटना तय है.


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ये अलग बात है कि बीजेपी अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई, और शिवसेना को भी कोई दूसरा रास्ता नहीं मिला, तथा उसे बीजेपी के सामने छुटभैये की भूमिका अपनानी पड़ी. यही कारण रहा कि एनडीए में रहते हुए भी शिवसेना ने बीजेपी और मोदी सरकार का विरोध जारी रखा, लेकिन गठबंधन से अलग होने की हिम्मत वह भी नहीं जुटा पाई.

फिलहाल दोनों दल गठबंधन करते दिख रहे हैं, लेकिन जानकारों को इसमें किसी भी तरह का शक नहीं है कि बीजेपी भी बहुत मजबूरी में ही, और हर हाल में जीत हासिल करने की नीति के तहत ही शिवसेना से मोल-तोल कर रही है. बीजेपी नहीं चाहती कि किसी भी तरह के वोट बंटवारे का फायदा कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को हो, वरना बीजेपी के अपने बूते सबसे बड़ी पार्टी बनने का आत्मविश्वास उसके हर छोटे-बड़े कार्यकर्ता को है ही.

क्यों पिछड़ने लगी शिवसेना

जब तक बीजेपी खुलकर उग्र हिंदुत्व और उग्र मुस्लिम-विरोध पर नहीं उतरी थी और मिलीजुली सरकार बनाने के लिए बीच के रास्ते (वाजपेयी फॉर्मूले) पर चल रही थी, तब तक तो शिवसेना जैसे दलों की उपयोगिता इसलिए थी क्योंकि बहुत सी बातें बीजेपी के कथित उदार नेता नहीं बोल पाते थे जो शिवसेना के बाल ठाकरे बोल देते थे.

अब बदली परिस्थितियों में शिवसेना की कोई उपयोगिता उसी तरह से नहीं रह गई है जैसे कि कभी आरएसएस के सामने अखिल भारतीय हिंदू महासभा और राम राज्य परिषद की नहीं रह गई थी. शिवसेना या उसके नेताओं से निजी तौर पर जुड़े लोगों को छोड़ दें, तो उसके बाकी समर्थक अब बीजेपीई हो चुके हैं.

इसके अलावा, ठाकरे परिवार का कायस्थ होना और ब्राह्मण न होना भी एक बाधा है. सवर्ण मतदाता उग्र हिंदुत्ववादी गैर-ब्राह्मण नेता को विकल्पहीनता की स्थिति में एक हद तक तो स्वीकार कर लेता है, लेकिन शीर्ष नेतृत्व पर उन्हें नहीं झेल पाता. यह कल्याण सिंह, उमा भारती और विनय कटियार जैसे नेताओं के मामले में उत्तर भारत में देखा जा चुका है. युवा देवेंद्र फड़नवीस को आगे बढ़ाकर उसने राज्य को ब्राह्मण नेतृत्व दे भी दिया है।. जबकि, शिवसेना का ठाकरे परिवार पहले तो सत्ता पर परोक्ष कब्जा करने की नीति अपनाता था और अब खुद सत्ता संभालने का इच्छुक है, तब भी उसके सामने बाल ठाकरे के पोते और उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे ही हैं, जो अपने पिता से भी कम प्रभावी साबित हो रहे हैं.

बीजेपी शिवसेना को साथ में लेकर भी, शिवसेना को ही खत्म करने की चेष्टा में है. क्षीण होते जनाधार के कारण शिवसेना उसका मुकाबला नहीं कर पा रही है. इस स्थिति को बिहार की तरह भी देखा जाना चाहिए कि जब तक बीजेपी को जरूरत थी, तब तक नीतीश कुमार के नेतृत्व में गठबंधन चला लेकिन अब राज्य में उसे अपना मुख्यमंत्री बनाने का शौक चढ़ रहा है.

ऐसी स्थिति में शिवसेना के सामने अब ज्यादा विकल्प बचे नहीं हैं. उसे यही फैसला करना है कि या तो बीजेपी से एकदम अलग होकर वह अभी खत्म होने का रास्ता चुने, या अपना स्वाभिमान पूरी तरह से त्यागकर बीजेपी के साथ रहकर जूनियर पार्टी बनकर एक-दो पारी और खेल ले.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनका निजी विचार है.)

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