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पैंगांग त्सो के दक्षिणी किनारे पर सेना का पीएलए को नाकाम करना भारत की चेतावनी है कि वो ‘मजबूती से लड़ने’ में सक्षम है

पीएलए जिस समय उन क्षेत्रों में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रहा है जहां उसने अतिक्रमण कर रखा है, वहीं भारतीय सेना के आगे बढ़ने से नई दिल्ली को चीन के साथ चल रही वार्ता में कुछ लाभ मिलता दिख रहा है.

द्रास में जोजिला दर्रे की ओर बढ़ रहा सेना का काफिला | प्रतीकात्मक तस्वीर/ एएनआई

लद्दाख क्षेत्र में पांच महीने से जारी गतिरोध सुलझाने के लिए जब चुशुल में ब्रिगेड कमांडर स्तर की बातचीत चल रही है, उस समय सामारिक स्तर पर सेना को पैंगांग त्सो के दक्षिण से लेकर स्पैंगुर त्सो तक मिली बढ़त चीनी महत्वाकांक्षाओं को ध्वस्त करने की एक बेहतरीन रणनीति है. अब आईएसआर की रिपोर्टों ने स्पष्ट कर दिया है कि चीनी टुकड़ियों की गतिविधियां और सक्रियता इन चोटियों की तलहटी में ही है. अगर चीनी सेना चोटियों पर नियंत्रण हासिल करने में कामयाब हो जाती तो यह किसी आपदा से कम नहीं होता.

पीएलए प्रमुख के रूप में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस गतिरोध को लेकर घटने वाली किसी भी चीज के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार होते हैं, चाहे अच्छा हो या बुरा. सेना का इन ऊंचाइयों पर कब्जा जमा लेना बीजिंग के लिए एक चेतावनी के तौर पर सामने आया है कि भारत की प्रतिक्रिया लंबी लड़ाई के लिए मजबूत स्थिति वाली है और नई दिल्ली सैन्य और मनोवैज्ञानिक रूप से एक लंबी जंग के लिए तैयार है.

क्या बीजिंग पीछे हट रहा?

सेना ने कथित तौर पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के शिविरों की अनदेखी करते हुए मगर और गुरुंग पहाड़ियों, रिचिन ला और कुछ अन्य रणनीतिक चोटियों पर कब्जा कर लिया है. अपुष्ट रिपोर्ट यह भी बताती हैं कि सेना ने पांच चोटियों ब्लैकटॉप, हेलमेटॉप, स्पैंगुर गैप, त्रिशूल और हुनान/रिक्यिन या रेनचेनला पर तिरंगा फहराया है. यह सर्वविदित है कि 1962 से ये चोटियां अनऑक्यूपाइड बनी हुई थीं. यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि सेना ने इन्हें बिना कब्जे के क्यों छोड़ दिया था, जमा देने वाली ठंड एक प्रमुख कारण हो सकता है. पीएलए दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आती थी, इसलिए तत्कालिक खतरे को कम मानते हुए शायद इन चोटियों को ऐसे ही छोड़ दिया गया था.


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पीएलए का इस बार कम प्रतिरोध दिखाना इस बात का संकेत देता है कि बीजिंग अपने सैन्य बलों से पीछे हटाने के लिए कहने को तरजीह दे रहा है. इसका एक मतलब किसी आक्रामक हमले के पहले तनाव घटाना या रणनीतिक वापसी शुरू करना भी हो सकता है. चीन की तरफ से दिए गए बयानों पर गौर करें तो पहले वाली स्थिति प्रतीत होती है. चीन को संभवतः भारतीय बलों की ताकत की अंदाजा हो गया है जो अग्रिम क्षेत्रों की सुरक्षा में तैनात हैं. ये स्पेशल फ्रंटियर फोर्स की विकास रेजिमेंट से चुने गए बेहतरीन प्रशिक्षण वाले सैनिक हैं, जिसमें भारत में जन्मे तिब्बती भी शामिल हैं जो शारीरिक तौर पर बेहद ऊंचाई वाले इलाकों के कठोर मौसम को झेलने की क्षमता रखते हैं.

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पीएलए जहां उन क्षेत्रों में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रहा है जहां उसने अतिक्रमण कर रखा है, वहीं भारतीय सेना के आगे बढ़ने से नई दिल्ली को चीन के साथ चल रही वार्ता में कुछ लाभ मिलता दिख रहा है. भारत सेना द्वारा जमाए गए कब्जे वाले नए इलाकों को खाली करने पर सहमत नहीं हो सकता है, लेकिन चीन पर निश्चित रूप से यथास्थिति बहाल करने का दबाव डालेगा.

एलएसी की मुश्किल

भारत-चीन सीमा क्षेत्रों में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए 7 सितंबर 1993 को हस्ताक्षरित समझौता दोनों देशों के बीच विश्वास बहाली की दिशा में पहला प्रमुख पारंपरिक कदम था. यह सीबीएम दोनों देशों के बीच मैत्रीपूर्ण परामर्श के जरिये शांतिपूर्ण ढंग से सीमा मसला सुलझाने की वकालत करता है. दोनों देश ‘पारस्परिक और समान’ सुरक्षा के सिद्धांत के अनुरूप न्यूनतम सुरक्षा बल रखने के लिए सहमत हुए थे.

1996 में हस्ताक्षरित दूसरा समझौता भारत-चीन सीमा क्षेत्रों में वास्तविक नियंत्रण रेखा के सैन्य क्षेत्र में सीबीएम से संबंधित है. यह समझौता मुख्यत: 1993 के पहले सीबीएम समझौते के एजेंडे को पूरा करने के उद्देश्य से किया गया था. इस समझौते का अनुच्छेद 10 एलएसी को लेकर फिर दोनों पक्षों की प्रतिबद्धता की पुष्टि करने के साथ ही कुछ चौकियों पर ‘अलग-अलग धारणाओं’ को पूरी मान्यता देता है, जिसके संबंध में दोनों पक्षों के बीच ‘स्पष्टीकरण प्रक्रिया में तेजी लाने’ और ‘अपनी-अपनी धारणा के अनुरूप नक्शों का आदान-प्रदान करने’ पर सहमति बनी थी. भारत और चीन के बीच एलएसी का अभी तक जमीनी स्तर या सैन्य नक्शों में भौतिक रूप से सीमांकन/रेखांकन नहीं किया गया है. यही वजह है कि दोनों देश अपने-अपने पक्ष में दावे करते रहते हैं.


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बीजिंग ने एकतरफा ढंग से एलएसी में यथास्थिति बदलने का फैसला किया और पीएलए के जरिये कार्रवाई शुरू की. सेना ने उचित जवाब दिया और उचित और जवाबी कार्रवाई की. यथास्थिति बहाली पर बीजिंग के मिले-जुले संकेतों के मद्देनजर नई दिल्ली को एक लंबे दौर की दुश्मनी झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए और आने वाले दिनों में और अधिक सतर्कता बरतनी चाहिए.

शी ने सशक्त चेहरा दिखाया

इसमें कोई संदेह नहीं कि चीनी अर्थव्यवस्था बुरे हालात से गुजर रही है और बीजिंग पूरी दुनिया के सामने अपनी मजबूत छवि पेश कर रहा है. कई देशों ने खाद्य पदार्थों का आयात और निर्यात प्रभावी ढंग से रद्द करते हुए चीन के साथ व्यापार समझौते तोड़ दिए हैं. इससे मांग-आपूर्ति में गंभीर असंतुलन हो सकता है, जो शी जिनपिंग को ‘ऑपरेशन क्लीन प्लेट’ घोषित करने को बाध्य कर सकता है. अपने लोगों को भोजन की बर्बादी से बचने की सीख देना किसी भी नेता का विशेषाधिकार है. लेकिन ऐसे समय में जब देश भोजन की संभावित कमी का सामना कर रहा है, इसे अमेरिका से बढ़ती दुश्मनी और भारत के साथ सीमा पर गतिरोध के बीच विश्व स्तर पर चीन विरोधी गठजोड़ के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए.

रक्षा विशेषज्ञों ने गतिरोध बढ़ने, खासकर गलवान संघर्ष और उसके बाद वार्ता बेनतीजा रहने के समय ही अनुमान लगाया था कि भारत यह दौर लंबा खिंचने के लिए पूरी तरह तैयार है. लेकिन पैंगोंग त्सो के दक्षिण किनारे में जो हुआ है, वह निश्चित रूप से ‘भारत के लिए फायदेमंद’ है.

(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के सदस्य और ऑर्गनाइजर के पूर्व संपादक हैं. विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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