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वैचारिक झुकाव के आधार पर पुलिस प्रमुखों की नियुक्ति राष्ट्र-विरोधी हैः जूलियो रिबेरो

मुंबई पुलिस एक अच्छा बल रही है. सही नेतृत्व मिलने पर यह कभी अपने प्रदर्शन में नाकाम साबित नहीं हुई. बहुत कुछ नेतृत्व करने वाले पर निर्भर करता है, एक गलत विकल्प चुनना पतन की ओर धकेल देता है.

मुंबई पुलिस के पूर्व प्रमुख परमबीर सिंह । ट्विटर/ @ANI

यदि सत्ता में बैठे राजनेता देशभर में पुलिस बलों का नेतृत्व करने वाले पदों पर ईमानदार और सक्षम अधिकारियों को नियुक्त करें, तो सुरक्षा प्रबंधन की स्थिति उससे कहीं ज्यादा बेहतर होगी जो आज के समय में है. लेकिन जब कोई चयन पार्टी की वैचारिक प्रतिबद्धताएं आगे बढ़ाने की अधिकारी की इच्छा के आधार पर होता है तो सांप्रदायिकता और अन्याय को बल मिलता है और इसमें वृद्धि होती है. इसी तरह यदि चयन धन के बदले में या फिर भविष्य में होने वाले लेन-देन पर आधारित होता है, तो भ्रष्टाचार और अन्याय का पलड़ा भारी हो जाता है. दोनों ही राजनीति और देश की उन्नति के लिए हानिकारक हैं. मेरे हिसाब से ये दोनों ही विकल्प राष्ट्र-विरोधी हैं.

पुलिस नेतृत्व का चयन सत्ता में बैठे राजनेताओं के हाथ में होता है. राष्ट्रीय पुलिस आयोग और सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सहमति जताई थी कि किसी राज्य के डीजीपी और बड़े शहरों के पुलिस आयुक्तों का चयन प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट/राज्य के हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस की तरफ से डाले गए वोट में बहुमत के आधार पर होना चाहिए. इस समझदारी भरी सलाह पर किसी भी सरकार की तरफ से अमल न किया जाना सार्वजनिक चिंता का विषय है.

यदि परम बीर सिंह को इसी बुद्धिमत्ता पूर्ण तरीके से मुंबई का पुलिस आयुक्त नियुक्त किया होता तो व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार, कथित तौर पर महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख की तरफ से रखी गई मांग की शिकायत सामने आने पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पास इसके खिलाफ खड़े होने का कोई आधार नहीं होता. गृह मंत्री अनिल देशमुख शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) से हैं. मेरे राज्य में महा विकास अघाड़ी (एमवीए) में शामिल तीनों घटक दलों के बीच विभागों के बंटवारे में एनसीपी को काफी अहम माना जाने वाला गृह विभाग मिला था.


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भ्रष्टाचार पुलिस को कैसे चपेट में लेता है

मुंबई पुलिस एक अच्छी फोर्स रही है, और अब भी है. सही नेतृत्व मिलने पर यह कभी अपने प्रदर्शन में नाकाम साबित नहीं हुई. बहुत कुछ नेतृत्व करने वाले पर निर्भर करता है. वास्तव में, सब कुछ उस पर ही निर्भर करता है. जब कोई गलत विकल्प चुन लिया जाता है तो पतन की शुरुआत हो जाती है. बहुत अच्छा काम न करने वाले जूनियर्स की मौज हो जाती है, अच्छे काम करने वालों को समझ नहीं आता है कि क्या करना है. भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच जाता है. अनुशासन ताक पर रख दिया जाता है. राहत की बात यही है कि ऐसा हमेशा नहीं चलता रहता क्योंकि महाराष्ट्र के राजनीतिक दलों को अच्छी तरह पता है मुंबई पुलिस का प्रदर्शन सरकार को बनाने या बिगाड़ने वाला भी साबित हो सकता है.

शरद पवार का अपने दिनों में पुलिस का पूरा नियंत्रण था. वह हर एक वरिष्ठ अधिकारी को जानते थे, उनकी ताकत, उनकी कमजोरियां, गुण-अवगुण सब कुछ. लगता है कि वह अब इस सबसे कहीं दूर हो गए हैं. या फिर गठबंधन सरकार की मजबूरियों ने उनके हाथ बांध दिए हैं? मुझे जितनी जानकारी उपलब्ध है उसके अनुसार, परम बीर सिंह की शीर्ष पद पर नियुक्ति से पहले पवार ने उनके साथ दो मैराथन बैठकें की थीं. क्या उन्होंने अधिकारी के बारे में मिले फीडबैक की अच्छी तरह पड़ताल की थी? खासकर, पड़ोसी जिले ठाणे की कमिश्नरी में उनका रवैया कैसा था? ठाणे में उनकी पार्टी से जुड़े सदस्यों ने निश्चित तौर पर अपने प्रमुख को अपने अधीनस्थों और आम जनता के साथ पुलिस अधिकारी के तालमेल के बारे में जानकारी दी होगी. उन्होंने क्या सूचना दी?

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पिछले 13 सालों से निलंबन पर चल रहे एक ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ को अचानक सारी शालीनता और नैतिकता ताक पर रखकर और यहां तक कि कानूनी नियमों को भी धता बताकर फिर से सेवा में लाना यही दर्शाता है कि असल में पुलिस प्रशासन की हालत क्या हो गई है. एक सहायक पुलिस निरीक्षक (एपीआई) की क्राइम ब्रांच में अपराध खुफिया इकाई के प्रमुख के तौर पर नियुक्ति इसका अगला संकेत थी. यहां तक कि पदानुक्रम ढांचे की अनदेखी और एपीआई सचिन वाजे को सीधे आयुक्त को रिपोर्ट करने की अनुमति दिए जाने ने तो अनुशासन के मानदंडों पर सारी हदें पार कर दी थीं.

काफी ताकतवर मानी जाने वाली मुंबई पुलिस और देशभर में ख्यात इसकी क्राइम ब्रांच एक मामूली से अधीनस्थ अधिकारी के हाथों का खिलौना बन गई. इस मामले में जैसा हम अब तक जानते हैं कि कथित तौर पर एपीआई ने देश के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी के घर के बाहर खड़ी की जाने वाली बीस जिलेटिन छड़ों से लदी एक कार की व्यवस्था की थी. कार के अंदर मुकेश अंबानी और उनकी पत्नी नीता को संबोधित एक संदेश था. इसमें गंभीर नतीजों की धमकी दी गई थी—क्या? यह स्पष्ट तौर पर नहीं बताया गया, लेकिन इस बारे में अच्छी तरह से अनुमान लगाया जा सकता है.

यदि सीधे तौर पर शहर के शीर्ष पुलिस अधिकारी के साथ गहराई से जुड़ा और सीधे उससे ही आदेश लेने वाला इस रैंक का कोई अधिकारी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यात कारोबारी और उनकी पत्नी, जो क्रिकेट और शिक्षा के क्षेत्र में भी समान रूप से जाना-माना नाम है, को इस तरह डराने या इसकी कोशिश करने का दुस्साहस कर रहा है तो आखिर उसने किसके इशारे पर जिलेटिन छड़ों से लदी कार को प्लांट किया और इसके पीछे मकसद क्या था?

संभावित मकसद के बारे में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से इन सब बातों को स्पष्ट तौर पर निर्धारित करना होगा कि कार किस तारीख को खड़ी की गई, पुलिस से ‘हर माह 100 करोड़ रुपये’ की कथित मांग किस तारीख को की गई, परम बीर सिंह को यह बात एपीआई वाजे और कमाऊ समाज सेवा शाखा के एसीपी संजय पाटिल ने किस तारीख को बताई, कब परम बीर सिंह ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को इस बारे में सूचित किया, यह सनसनीखेज और कथित मांग किस दिन प्रेस की जानकारी में आई.

मैं यह बात मान ही नहीं सकता कि वाजे, भले ही वह कितने भी बड़े अपराध को अंजाम देने की क्षमता क्यों न रखता हो, ने बड़ी राशि उगाहने की कोशिश में एक इतनी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था वाले शीर्ष कारोबारी को डराने के बारे में सोचा होगा. इस तरह के दुस्साहिक अपराध के बारे में सोचना भी न केवल बेतुका है बल्कि हास्यास्पद भी है. क्या किसी का दिमाग इतना खराब हो गया है कि वह 100 करोड़ रुपये की ऐसी ही बेतुकी मांग को पूरा करने के लिए इस तरह की रणनीति बनाने के बारे में सोचेगा? इस पूरे अविवेकपूर्ण प्रकरण के पीछे वजह कुछ और ही है, जिसका पता लगाने की जरूरत है.

(लेखक एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी, मुंबई पुलिस के पूर्व आयुक्त हैं और गुजरात और पंजाब के डीजीपी रहे हैं. व्यक्त विचार निजी है.)

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