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शहरी भारत में शराबबंदी का विरोध वास्तविकता से परे, यह इलीट रवैये को दर्शाता है

भारत में शराबखोरी का चलन एक बड़ी स्वास्थ्य-समस्या बनकर उभरा है. साथ ही यह आर्थिक और सामाजिक समस्या भी है.

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शराब की बोतलें । फ्लिकर

आंध्रप्रदेश सरकार के सूबे में शराबबंदी के फैसले से एक बार फिर उजागर हुआ है कि हमारे देश में जनमत तैयार करने वाला तबका किस कदर शुतुरमुर्गी राह-रवैया अख्तियार किये रहता है. देश भर में शराबखोरी बढ़वार पर है और इस बढ़ती बुराई पर यह तबका एकदम से चुप्पी साधे रहता है लेकिन जैसे ही कोई समाधान के तौर पर शराबबंदी का प्रस्ताव करता है, हमारा जनमत तैयार करने वाला तबका उसके ऊपर एकदम से टूट पड़ता है कि ‘बड़ा लोक-लुभावन और अव्यावहारिक कदम उठाया जा रहा है’. मजा देखिए कि शराबखोरी जैसी बुराई को खत्म करने के लिए आखिर किया क्या जाय इसके बारे में यह तबका अपनी तरफ से कोई वैकल्पिक समाधान भी नहीं बताता.

आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने एलान किया कि हम सूबे में शराबबंदी लागू करने जा रहे हैं तो एक बार फिर से यही नाटक दोहराया गया. अंग्रेजी के दैनिकों ने झटपट अपने संपादकीय में जगन के इस कदम को ‘लोक-लुभावन’ करार दिया, कहा गया कि लोगों की निजी आजादी में ऐसे कदम को दखलंदाजी ना भी मानें तो भी यह कदम ऐसा है कि कभी कामयाब ही ना हो पायेगा. लेकिन शराबबंदी के पक्षधर कार्यकर्ताओं और आंदोलनों को लगता है कि पूर्ण प्रतिबंध इस समस्या का बिल्कुल सही समाधान है. शराबबंदी का नैतिक उपदेश देने वाले और शराबबंदी के विरोध के बहाने व्यक्ति की निजी किस्म की आजादी की दुहाई देने वालों की आपसी तकरार के बीच फौरी राष्ट्रीय प्राथमिकता के एक विषय पर रचनात्मक और तथ्यसम्मत बहस हो ही नहीं पाती.

शराब की समस्या

शराबखोरी के बढ़ते चलन का मामला मीडिया की नजरों में बार-बार आता है लेकिन हर बार मीडिया इस मामले को तनिक किनारे करके अपने रोजमर्रा की टेक पर चल देती है. हाल के सालों में बिहार, केरल और हरियाणा की सरकार ने शराबखोरी पर अंकुश लगाने के लिए अलग-अलग उपाय किये हैं. बिहार में पूर्ण प्रतिबंध का तरीका अपनाया गया और वहां इसके मिले-जुले परिणाम आये हैं. केरल की सरकार ने कहीं ज्यादा सूझ-बूझ का परिचय दिया और शराब की खपत पर चरणबद्ध तरीके से कमी लाने के उपाय किये. हरियाणा की नई सरकार ने आधे-अधूरे मन से कदम उठाते हुए इस नीति का एलान किया कि किसी गांव के 10 फीसद मतदाता अगर मांग करते हैं तो वहां चल रही शराब की दुकान बंद कर दी जायेगी. महाराष्ट्र में शराबबंदी को लेकर दमदार आंदोलन चले हैं सो वहां तीन जिलों में शराब पर प्रतिबंध है. शराबबंदी के आंदोलन तमिलनाडु और कर्नाटक में भी मजबूत हैं.


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मैंने साल 2018 की जुलाई में हरियाणा के रेवाड़ी जिले के 200 गांवों की अपनी पदयात्रा के दौरान इस मसले की अहमियत को समझा. वहां हर गांव में चाहे जिस महिला से पूछो वो यही कहती थी कि शराबखोरी का बढ़ता चलन हमारी सबसे बड़ी समस्या है. ये महिलाएं समाधान के लिए बेचैन थीं. महिलाओं का कहना था कि पंचायतों से इस मामले में क्या उम्मीद रखें, उन्हें तो शराब की बिक्री पर कमीशन मिलता है (जी हां, शराब की हर बोतल की बिक्री पर आधिकारिक तौर पर कमीशन नियत है!). महिलाएं चाहती थीं की शराब की ठेके टूट जायें, जला दिये जायें और उन्होंने इसकी कोशिश भी की थी लेकिन इससे बात बनी नहीं. महिलाओं का तो यह तक कहना था कि इस बुराई से छुटकारा पाने के लिए शराब में ज़हर मिला दिया जाना चाहिए !

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महानगरों में कायम बुद्धिजीवियों और नीति-निर्माताओं को शराबखोरी की समस्या के रंग-ढंग का कोई अता-पता नहीं है. वे शराब पीने के चलन को अपने तबके में प्रचलित सामाजिक रीति-नीति के चश्मे से देखते हैं. वे ये बात नहीं समझ पाते कि अभिजन तबके में प्रचलित एक-दो पेग पीने का सामाजिक आचार 300 रुपये रोजाना की कमाई करने वाले एक परिवार में रोजाना एक क्वार्टर (पौव्वा) शराब गटकने के चलन से एकदम ही अलग है. महानगरों के बुद्धिजीवी और नीति-निर्माता समझते हैं कि शराबखोरी पर प्रतिबंध की बात करना लोगों को नैतिकता का उपदेश देने के बराबर है.

ये बात ठीक है कि शराबखोरी पर प्रतिबंध लगाने की बात गांधीवादी या फिर धार्मिक काट के लोग कहते हैं तो वे इसे नैतिक आचार का मुद्दा बना डालते हैं जबकि मसले को नैतिक आचार के कोण से देखना ठीक नहीं. दरअसल भारत में शराबखोरी का चलन एक बड़ी स्वास्थ्य-समस्या बनकर उभरा है. साथ ही यह आर्थिक और सामाजिक समस्या भी है. शराब-माफिया और शराब बिक्री की हिमायती लॉबी अपने निहित स्वार्थ के वशीभूत चाहते हैं कि शराबखोरी का चलन अबाधित और बिना किसी बहस के हमेशा जारी रहे और अफसोस कहिये कि जनमत तैयार करने वाले हमारे तबके के तर्क इन लोगों के अनुकूल पड़ते हैं.

गरीबों पर भार बढ़ा

इस साल भारत सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने देशस्तर के व्यापक सर्वेक्षण के आधार पर मैग्नीट्यूड ऑफ सब्स्टांस यूज़ इन इंडिया नाम से एक बड़ी रिपोर्ट प्रकाशित की है. इस रिपोर्ट को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के भारत में बढ़ती शराब की खपत के नये आंकड़ों तथा ग्लोबल स्टेटस् रिपोर्ट ऑन अल्कोहल एंड हेल्थ के साथ मिलाकर पढ़ें तो शराबखोरी की समस्या और उसके स्वभाव के बारे में पता चलता है.

इस सिलसिले की पहली बात यह कि शराब की खपत हमारे सोच से कहीं ज्यादा है : तकरीबन 33 फीसद बालिग पुरुष (लेकिन 2 फीसद से भी कम बालिग महिलाएं) शराब पीते हैं. छत्तीसगढ़, त्रिपुरा, पंजाब, अरुणाचल, गोवा तथा उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में शराब पीने वाले बालिग पुरुषों का अनुपात 50 प्रतिशत से भी ज्यादा है. 10-17 साल के आयुवर्ग के लगभग 25 लाख बच्चे शराब पीते हैं. दूसरी बात, भारत में ‘पीने’ का मतलब होता है वाइन या बीयर जैसी हल्की शराब नहीं बल्कि स्पिरिट वाली शराब (हार्ड ड्रिंक) पीना ( कुल अल्कोहल-उपभोग में हार्ड ड्रिंक्स का वैश्विक औसत 44 प्रतिशत का है जबकि भारत में 92 प्रतिशत का). इससे सेहत से जुड़े जोखिम बढ़ते हैं. तीसरी बात, भारत में शराब पीने वाला हर व्यक्ति सालाना औसतन 18.3 लीटर शराब पी जाता है जबकि वैश्विक औसत इससे कम है. इतनी शराब पीने का मतलब हुआ 50 ग्राम शुद्ध अल्कोहल यानि पांच पेग रोजाना.

भारत में ज्यादा अल्कोहल वाली शराब पीने वालों का अनुपात 55 फीसद है और यह तादाद भी वैश्विक औसत से ज्यादा है. चौथी बात, लगभग 5.7 करोड़ यानि एक तिहाई शरोबखोर या तो इस व्यसन के आदी हो चुके हैं या फिर उन्हें अपनी लत का नुकसान भुगतना पड़ रहा है. ऐसे लोगों को मदद की जरुरत है लेकिन इनमें से मात्र 3 फीसद को किसी किस्म की चिकित्सीय या मनोवैज्ञानिक मदद हासिल हो पाती है. इस सिलसिले की आखिरी बात यह कि शराबखोरी का सेहत पर सीधा असर हो रहा है, आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं. देश में हर साल कम से कम 2.6 लाख की तादाद में लोग शराब पीने के कारण हुए लीवर के रोग, कैंसर या फिर दुर्घटना से मृत्यु के शिकार होते हैं.


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सेहत के अलावे शराब पीने के सामाजिक-आर्थिक नतीजे भुगतने होते हैं, खासकर गरीबों को. एक आम ग्रामीण परिवार अपनी आमदनी का 2.5 फीसद हिस्सा नशे की चीजों पर खर्च करता है जो जरुरी चीजों पर होने वाले उसके खर्च की राशि को हटाकर बची रकम के लिहाज से देखें तो आमदनी के आठवें हिस्से के बराबर है. नशे की लत का शिकार व्यक्ति अपने परिवार की आमदनी का 20 से 50 प्रतिशत तक सिर्फ शराबखोरी पर उड़ा देता है. सामाजिक मायने के लिहाज से देखें तो नजर आयेगा कि परिवार के पुरुषों की शराबखोरी की लत के नतीजे महिलाओं को भुगतने होते हैं. पत्नी और बच्चों के साथ मार-पीट, सामाजिक हिंसा, यौन-दुर्व्यवहार, पारिवारिक कलह, रिश्तों में टूटन और बच्चों की उपेक्षा जैसी कई बातें शराबखोरी के मामले में देखने को मिलती हैं. अचरज नहीं कि ज्यादातर महिलाएं शराबखोरी की लत से नफरत करती हैं. अब ये बात तथ्य रूप में साबित हो चुकी है कि शराब की खपत का हर लीटर सेहत और सामाजिक जीवन के लिहाज से गरीबों पर कहीं ज्यादा भारी पड़ता है.

राष्ट्रीय योजना

हमारे राष्ट्रीय अजेंडे में शराब पर अंकुश लगाने की नीति कहीं नजर ही नहीं आती जो समस्या की गंभीरता को देखते हुए किसी ‘स्कैंडल’ से कम नहीं. और, शराब पर अंकुश लगाने की नीति कैसी होनी चाहिए- यह कल्पना करना कोई मुश्किल बात नहीं. पूर्ण प्रतिबंध तो खैर ऐसी नीति में जगह नहीं पा सकता क्योंकि बारंबार ये बात साबित हो चुकी है कि पूर्ण प्रतिबंध अपने मकसद के उलट परिणाम देता है. बेशक, इससे शराबखोरी के वाकयों में तेजी से कमी आती है लेकिन पूर्ण प्रतिबंध शराब की तस्करी, अवैध शराब तथा शराब-माफिया को बढ़ावा देने वाला भी साबित होता है.

जरूरत शराब के उपयोग में क्रमिक ढंग से कमी लाने और अंकुश लगाने की राष्ट्रीय योजना तैयार करने की है. इसके लिए, सबसे पहले तो यही जरूरी है कि राज्यों की सरकारें शराब की बिक्री से आने वाले राजस्व पर अपनी निर्भरता कम करें. इससे शराब की बिक्री को तेजी से बढ़ावा देने के राज्य सरकारों के चलन पर रोक लगेगी. दूसरी बात ये कि शराब की खुदरा और थोक बिक्री, शराब-बिक्री की दुकानों, उनके खुलने और बंद होने के समय तथा ओट लेकर होने वाले विज्ञापनों से संबंधित कानून पर सख्ती से अमल होना चाहिए.

तीसरी बात, किसी गांव के भीतर या शहर के रिहायशी इलाके में अगर स्थानीय समुदाय के 10 फीसद व्यक्ति ऐतराज जताते हैं तो ऐसी जगहों पर शराब बिक्री के लाइसेंस ना दिये जायें. शराबखोरी की गिरफ्त में आने से लोगों, खासकर नौजवानों को बचाने के लिए उन्हें आगाह करने वाले नये किस्म के सामाजिक अभियान चलाये जाने चाहिए—ऐसा एक अभियान महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में मुक्तिपाठ नाम से चलाया गया है. इस सिलसिले की आखिरी बात यह कि शराब की बिक्री से आने वाले राजस्व का एक नियत प्रतिशत, मिसाल के लिए ऐसे राजस्व का पांचवां हिस्सा, पुनर्वास कार्यक्रमों पर खर्च किया जाना चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

(लेखकराजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

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