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क्या भारत की तुलना में पाकिस्तान रॉ एजेंटो को बेहतर पहचानता है

पाकिस्तान में सरकार से असहमत लोग विपरीत राय रखने वाले नहीं, बल्कि विदेशी एजेंट हैं.

A Pakistani soldier stands guard on a street in Karachi (Representational image) | Asim Hafeez/Bloomberg News
कराची की सड़क पर पाकिस्तानी सैनिक (प्रतिकात्मक फोटो) | असीम हाफ़िज़ / ब्लूमबर्ग न्यूज़

किसी देश में कितने एजेंट हो सकते हैं? जितने अधिक, उतना बढ़िया.

ये कहना गलत नहीं होगा कि इन दिनों पाकिस्तान अधिकांश विदेशी एजेंटों के लिए एक महफूज़ पनाहगाह है, यहां तक कि ‘रॉ’ के एजेंटों लिए भी. रॉ या किसी अन्य विदेशी एजेंट के लक्षण उतने जटिल नहीं हैं जैसा कि कुछ लोग समझते होंगे. आप पाकिस्तानी शासन के तौर-तरीकों की आलोचना करते हैं. आप इतिहास के पाकिस्तानी संस्करण पर यकीन नहीं करते. आप दिल की गहराइयों से मानते हैं कि हुक्मरानों के खिलाफ आवाज़ उठाने से बदलाव आ सकेगा, ये जानते हुए भी कि आपके जीते-जी ऐसा नहीं होने वाला.

आप ताकतवर संस्थानों के ऊपर संविधान के वर्चस्व के हामी हैं. आप जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए बराबर के अधिकारों की मांग करते हैं. आप सरकार के उन छद्म युद्धों को लेकर मुखर हैं. जिनसे कि पड़ोसी देशों के साथ शांतिपूर्ण रिश्तों को खतरा है. आप महिला अधिकारों की बात करते हैं.

यदि आपके बारे में उपरोक्त सभी बातें सही हैं, तो फिर आपका काम हो गया. आप खुद को एजेंट ठहराए जाने के काबिल मान सकते हैं. कुछ साल पहले कराची यात्रा के दौरान समाजसेवी अब्दुल सत्तार एधी  के बारे में मेरी एक स्थानीय पत्रकार से बड़ी अजीब बातचीत हुई थी. उस पत्रकार को शायद एधी के कार्यों पर ज़्यादा ऐतबार नहीं था. उसने मुझे बताया कि कैसे एधी नमाज़ नहीं पढ़ते थे और मानवता को ही अपना धर्म मानते थे. इस कारण अंतत: उन पर रॉ एजेंट का ठप्पा लग गया क्योंकि अपने परोपकारी कार्यों में वह धर्म या राष्ट्रवाद का इस्तेमाल नहीं करते थे.

https://youtu.be/mMC9W-_ThSU

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इसी तरह, मानवाधिकार कार्यकर्ता अस्मां जहांगरी को ताउम्र विदेश एजेंट होने का आरोप झेलना पड़ा था. उनका एकमात्र अपराध? मानवाधिकारों के लिए अथक लड़ाई करना और निडरता के साथ शासन की आलोचना करना. उनके साथ असहमति को सिर्फ दुर्भावनापूर्ण दुष्प्रचार के ज़रिए जाहिर किया जाता था.

2008 की भारत यात्रा की तत्कालीन शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के साथ उनकी भगवा सलवार-कमीज़ वाली तस्वीर मानो ‘देशभक्तों’ को बौखलाने के लिए काफी नहीं थी कि उसी दौरे की उनकी एक और तस्वीर सामने आ गई जिसमें वह गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ थीं. और, मौजूदा दौर में एक फोटो हर किस्म की दगाबाज़ी का सबूत हो सकता है.


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असहमति जताने वालों को एजेंट, गद्दार, काफिर और यहां तक कि ईशनिंदक तक कहने का चलन दशकों से है. पाकिस्तान में सरकार द्वारा तय कथानक से सहमति नहीं रखने वाले नेताओं, वकीलों, लेखकों, कवियों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों को विदेशी एजेंट करार दिया जाता है.

यहां तक कि जिन्ना के परिवार को भी नहीं छोड़ा गया था. सैनिक तानाशाह अयूब ख़ान ने एक बार जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना को काबुल की एजेंट बताया था. देशद्रोहियों और विदेशी एजेंटों की सम्मानित सूची में ये नाम भी शामिल रहे हैं: बाचा ख़ान, वली ख़ान, अताउल्ला मेंगल, ग़ौस बख़्श बिज़ेंजो, ज़ुल्फिकार अली भुट्टो, मुजीबुर रहमान, नवाब अकबर बुग़ती, अल्ताफ हुसैन और नवाज़ शरीफ़.

अतीत से लेकर वर्तमान तक जिस एक चीज में निरंतरता बनी हुई है वो है पुरस्कार देने वाली संस्था, और उनसे संबद्ध करीब 30 देशभक्त. जब 2016 में नवाज़ शरीफ़ सरकार ने सेना को चेतावनी दी थी कि या तो वो चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई करे या अंतरराष्ट्रीय अलगाव का सामना करने के लिए तैयार रहे तो ये एक बहुत बड़ा कांड बन गया था. जो ‘डॉन लीक’ के नाम से जाना गया. लेकिन न्यूयॉर्क टाइम्स को एक इंटरव्यू में जब मौजूदा प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने पाकिस्तानी सेना को चरमपंथियों का जनक बताया तो किसी ने ख़ान को देशद्रोही नहीं कहा.


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शरीफ़ के खिलाफ एक मज़ेदार आरोप ये था कि उनके चीनी मिल में 300 हिंदुस्तानी मज़दूर कार्यरत हैं जिनमें से अधिकांश रॉ के जासूस हैं. विरोधी तहीरुल क़ादरी के इस आरोप का शरीफ़ परिवार ने खंडन किया था, पर भूल-सुधार की भला किसे परवाह है. आज तक समाचार प्रसारणों में मंत्रियों द्वारा इस किस्से को नवाज़ के खिलाफ सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.

जब नवाज़ ने डॉन को दिए इंटरव्यू में ये कहा, ‘चरमपंथी संगठन सक्रिय हैं. उन्हें गैर-सरकारी इदारा कह लें, पर क्या हमें उन्हें सीमा पार करने और मुंबई में 150 लोगों को कत्ल करने की इजाज़त देनी चाहिए? बताएं मुझे. हम मुकदमे की कार्यवाही पूरी क्यों नहीं कर सकते?’, तो उनके खिलाफ देशद्रोह का मामला शुरू कर दिया गया.

बालाकोट में भारत के हमले के बाद, बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने आतंकवादी संगठनों के खिलाफ सरकार की कार्रवाई पर सवाल उठाया था. उन्होंने कहा था कि चरमपंथियों को गिरफ्तार नहीं किया गया है. बल्कि उन्हें हिफाज़ती हिरासत में लिया गया है. ताकि भारतीय विमान उन पर बमबारी नहीं कर सकें.

बस फिर तो हंगामा ही खड़ा हो गया और अति-देशभक्त समाचार एंकरों को पक्का यकीन हो गया कि युवा भुट्टो किसी विदेशी एजेंडे पर काम कर रहे हैं. मामला इतना संगीन हो गया कि बिलावल के बयान के अंश मात्र को ट्वीट करने वालों के लिए भी कहा जाने लगा: ‘ये भी उन्हीं के हैं.’ ये था उन लोगों को भी हिंदुस्तानी एजेंट बताने का विनम्र तरीका.

बलूच नेता सरदार अख़्तर मेंगल ने संसद में गत सप्ताह कहा: 80 फीसदी पाकिस्तानी गद्दार हैं. यदि सारे नेता गद्दार हैं, तो उन्हें वोट देने वाले लोग भी गद्दार हैं.’ देश का सबसे नया दुश्मन बराबरी के अधिकारों का स्थानीय आंदोलन पश्तून तहफुज़ मूवमेंट है, जिसे अफ़ग़ान एनडीएस और भारतीय रॉ का प्रोजेक्ट करार दिया गया है. इस संगठन के संस्थापक मंज़ूर पश्तीन सवाल करते हैं: ‘शांतिपूर्ण जीवन की मांग करना विदेशी एजेंडा कैसे हो गया?’

हाशिये पर पड़े एक जातीय समूह पर विदेशी मिलीभगत का आरोप लगाना तथा आरोपों के समर्थन में बिना कोई सबूत पेश किए गंभीर परिणामों की धमकी देना अब आम बात है. आरोपी को ही अपनी बेकसूरी साबित करनी होगी, आरोप लगाने वाले को कोई सफाई देने की ज़रूरत नहीं.

असहमत लोग विपरीत राय रखने वाले लोग नहीं, बल्कि विदेशी एजेंट हैं. पाकिस्तान में इस धारणा का बोलबाला है. इसलिए, हम खुद को विदेशी एजेंट बताएं और स्वीकार करें कि अधिकतर पाकिस्तानी सीआईए, रॉ, एनडीएस आदि से पैसे पा रहे हैं और भविष्य के इंतजार में दिन काट रहे हैं.

(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @nailainayat है.)

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