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मैंने दल और गठबंधन बदल लिया है, आपको कोई शिकायत तो नहीं

धर्मनिरपेक्षता के इस झीनी चादर को थोड़ी देर के लिए अलग कर दीजिये तो तमाम राजनीतिक दलों का चरित्र लगभग एक समान नजर आता है. इनकी ज्यादातर नीतियां एक समान हो गई हैं.

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संसद, फाइल फोटो | प्रवीण जैन, दिप्रिंट

संसदीय राजनीति में दल, पाला और गठबंधन बदलने को सहज स्वीकार्य कर लिया गया है. अब इसे लेकर कोई खास माथापच्ची नहीं होती है और न वैचारिक ईमानदारी की दुहाई दी जाती है. राजनीतिक दलों के लिए यह संवैधानिक नैतिकता का प्रश्न नहीं रह गया है.

बुरी बात ये है कि इससे मतदाताओं को भी खास शिकायत नहीं है कि जिन्होंने अपने जन-प्रतिनिधि को किसी दल विशेष के प्रत्याशी के रूप में चुना, लेकिन उनसे पूछे बिना वह दूसरे दल या गठबंधन में शामिल हो गया या उस पार्टी की सरकार में शामिल हो गया जिसके खिलाफ उन्होंने वोट दिया था. सामान्यतः उनका प्रतिनिधि सत्ता में भागीदारी के लिए पाला बदलता है, इसलिए जनता को भी अपने प्रतिनिधि को मंत्री या सत्ता पक्ष का हिस्सेदार बनते देखने में अक्सर (हमेशा नहीं) प्रसन्नता होती है.

अभी-अभी हरियाणा चुनाव के बीच धूमकेतु की तरह उभरी जेजेपी पार्टी के दुष्यंत चौटाला, जो भाजपा के खिलाफ लड़ कर अपने दस विधायकों के साथ राजनीति के रंगमंच पर उभरे, भाजपा को समर्थन दे उनकी सरकार में शामिल हो गये. रामविलास पासवान जैसे दिग्गज नेता, जो राजनीति में लंबे अरसे तक भाजपा का विरोध करते रहे, भाजपा के खेमे में चले गये. नीतीश कुमार बिहार में मंडल राजनीति के प्रमुख नेता थे. लालू प्रसाद को मुख्यमंत्री बनाने में उन्होंने चाणक्य की भूमिका निभाई थी. अब वे भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति के बिहार में केंद्र बन गये हैं.

राजनीति में ढेरों ऐसे नेता मिल जायेंगे जो अनेक दलों में रह चुके हैं. राष्ट्रीय राजनीति में इस तरह के परिदृश्य आम हैं. एक पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी में जाने की खबरें लगातार सुर्खियां बनती रहती हैं. झारखंड में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के दो, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के दो और एक अन्य विधायक भाजपा में शामिल हो गये. इसे अवसरवादिता कहा जाए या फिर यह माना जाये कि राजनीतिक दलों की अलग-अलग नीतियां और सैद्धांतिक आधार एक दिखावा है या फिर संसदीय लोकतंत्र और चुनाव की भारतीय परंपरा में वैचारिक अंतर की ज्यादा गुंजाइश नहीं रह गई है.


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समाज में कई तरह के विभाजन हैं और ऊंच-नीच का दर्जा यानी हाइरार्की है. कम्युनिस्ट समाज को आर्थिक वर्गों में बांटकर देखते हैं – उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और निम्न वर्ग, किसान-सामंत, मजदूर-पूंजीपति आदि. समाजवादी भी वर्गीय विभाजन को मानते हैं. लोहियावादी वर्ग के अलावा वर्ण और जाति के विभाजन को भी स्वीकार करते हैं. लोहियावादियों की धारणा है कि जमे हुए वर्ग ही जातियां हैं. कमोबेस उच्च जातियां ही उच्च वर्ग, मध्य जातियां ही मध्य वर्ग और निम्न जातियां ही निम्न वर्ग हैं. हालांकि, ये हमेशा सच नहीं है.

सामाजिक ढांचा और राजनीतिक दलों का उभार

कई राजनीतिक दलों का उदय इसी सामाजिक-वर्गीय ढांचे के भीतर से हुआ है. अपने-अपने वर्ग के हितों को प्रमुखता देते हुए विभिन्न राजनीतिक दल अस्तित्व में आये. इसके अलावा धर्म, क्षेत्र और भाषा के आधार पर भी दल बने. हालांकि ज्यादातर दल अपने मूल वोटर के अलावा बाकी समुदायों और वर्गों को भी जोड़ने की कोशिश करते हैं क्योंकि कई बार सिर्फ एक समूह का समर्थन उन्हें सत्ता तक नहीं पहुंचा पाता.

सामान्य समझ यह है कि मंडल आयोग के आने के पूर्व तक कांग्रेस उच्च जातियों एवं वर्गों का, भाजपा मध्य वर्ग में ही बनियों का और कम संख्या में ब्राह्मणों का, समाजवादी खेमे के विभिन्न दल मध्य जातियों व किसानों तथा पशुपालक समूहों का और कम्युनिस्ट निम्न जातियों व निम्न वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं. यह अलग बात है कि वोट की राजनीति के लिए विभिन्न राजनीतिक दल अपने मूल वर्गीय, जातीय जनाधार के बाहर भी हाथ पांव पसारते रहे.

अल्पसंख्यक मोटे तौर पर कांग्रेस के साथ थे ही, कांग्रेस ने दलितों-आदिवासियों को जोड़ा. जनता दल और लोकदल जैसे दलों का आधार तो मूलतः पिछड़ी और मध्यवर्ती जातियां रहीं. लेकिन छिटपुट अगड़े भी उनके साथ शामिल हो जाया करते थे. कम्युनिस्टों का मुख्य काम मजदूरों और किसानों के बीच था, लेकिन कई जगह उन्हें जातीय समर्थन भी मिलता था.

साठ के दशक तक देश की राजनीति में सवर्ण जातियों का वर्चस्व रहा. लेकिन उसके बाद हालात बदलने लगे. मध्यवर्ती जातियां विभिन्न दलों के अंदर अपनी दावेदारी पेश करने लगीं. राममनोहर लोहिया ने इस उभार को एक वैचारिक आधार भी दे दिया. गैर-कांग्रेसवाद यानी किसी भी कीमत पर कांग्रेस को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर लोहिया ने हर विचार के दलों का गठबंधन बनाए जाने की वकालत की. फिर अस्सी के दशक में कांशीराम के नेतृत्व में दलितों के एक बड़े हिस्से ने बहुजन राजनीति के साथ खुद को जोड़ लिया. बीएसपी का भी लक्ष्य किसी भी तरह के सत्ता तक पहुंचना था और इसके लिए उसने कई बार बेमेल समझौते किए.

दलबदल और पालाबदल की संस्कृति

ये धाराएं सत्ता तक भी पहुंचीं. लेकिन यही वह समय है जब किसी एक दल के लिए राज्यों में और कई बार केंद्र में भी सरकार बनाना संभव नहीं रह गया. सवर्णों के साथ-साथ कांग्रेस का भी दबदबा टूटा और उसकी जगह लेने के लिए कोई एक सामाजिक समूह या दल सक्षम नहीं था. इस वजह से ये मिली-जुली सरकारों का दौर साबित हुआ.

इस दौर में दलबदल एक बड़ी समस्या की तरह सामने आया और आखिरकार दलबदल रोकने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ा. लेकिन इस कानून से कई नई दिक्कतें सामने आईं. व्यक्तिगत सांसदों और विधायकों के दलबदल की जगह, पूरे के पूरे दल को अपने साथ लाने और मिला लेने तथा इसके लिए तमाम तरह के प्रलोभन और दबाव का चलन शुरू हुआ, जो अब भी जारी है. इसके साथ ही दलों के अंदर नेताओं की तानाशाही भी बढ़ी है क्योंकि दलों की नीतियों या नेताओं के व्यवहार के बावजूद विधायक और सांसद दलों के अनुशासन में बंधे रहने को मजबूर हो गए क्योंकि उनके सामने सदन की सदस्यता जाने का खतरा होता है.


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80 के ही दशक में देश में सांप्रदायिकता का उभार हुआ और बीजेपी ने इसकी सवारी करते हुए तेजी से अपना विकास किया. बाबरी मस्जिद के ध्वंस, उसके बाद हुए दंगों व गुजरात में मुसलमानों के खिलाफ दंगों से पहले तक देश में आम तौर पर गैर-कांग्रेसी गठबंधन बनते थे. इन घटनाओं के बाद गैर-भाजपा गठबंधन बनने लगे.

धर्मनिरपेक्षता की चादर और दलबदल

लेकिन धर्मनिरपेक्षता के इस झीनी चादर को थोड़ी देर के लिए अलग कर दीजिये तो तमाम राजनीतिक दलों का चरित्र लगभग एक समान नजर आता है. आप झंडों के रंग को देख कर तो उन्हें अलग कर सकते हैं, लेकिन नेताओं की चाल, ढाल, चरित्र, सब बेहद मिलते-जुलते हैं. चुनावी राजनीति की प्रकृति और उसका स्वरूप, जन प्रतिनिधि बनने के बाद मिलने वाली एक तरह की सुविधाएं और उसके उपभोग की लालसा ने उनकी चारित्रिक विशिष्टताओं को लगभग मिटा दिया है. जन प्रतिनिधियों को मिलने वाली सुविधाओं में निरंतर वृद्धि हो रही है. कुछ वामपंथियों के अलावा इसका कोई भी विरोध नहीं करता.

दलों के बीच विचारों की समरूपता उनकी आर्थिक नीतियों में भी दिखाई देती है. वैकल्पिक आर्थिक नीति का कोई खाका किसी भी दल के पास नहीं है. थोड़ा बहुत विरोध विपक्ष में रहकर पार्टियां फिर भी कर लेती हैं. लेकिन सत्ता में आने के बाद उनकी आर्थिक नीतियों में खास फर्क नहीं रह जाता. उदारीकरण को लेकर सभी पार्टियां एक स्थान पर खड़ी हैं. दलों के पास कोई रोजगार नीति नहीं है और ये सभी दलों की समस्या है. विदेश नीति को लेकर भी दलों के बीच नीतियों का विभाजन नहीं है. स्वास्थ्य नीति को लेकर अमेरिका में दलों के बीच स्पष्ट मतभेद हैं, वैसा भेद भारत में नहीं है. कोई दल ये दावा नहीं कर रहा है कि उसकी सत्ता आएगी तो स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए वह क्या करेगी. यही हाल शिक्षा और कृषि नीति का है. इस वजह से देखा गया है कि जीएसटी जैसे सवालों पर पक्ष और विपक्ष अक्सर एक स्थान पर खड़े मिलते हैं.

इसलिए दल या पाला बदलते नेताओं और पार्टियों को किसी तरह की नैतिक हिचकिचाहट नहीं होती. ये एक कमरे से टहलते हुए दूसरे कमरे में जाने जैसा मामला होता है. टॉलस्टाय कहते हैं कि ‘मनुष्य जो जीवन जीता है, उसे जस्टीफाई करता है, सही ठहराता है. यदि वह ऐसा न करे तो उसका जीना मुश्किल हो जायेगा.’ यह राजनीतिक दलों के लिए भी सच है. सत्ता चूंकि लक्ष्य है, इसलिए साधनों की पवित्रता को विश्राम करने दिया जा सकता है.

(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है, यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

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