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राष्ट्रव्यापी एनआरसी की नाकामी तय है, मोदी सरकार को अपनी नागरिकता योजना के लिए यह करना चाहिए

अपूर्ण दस्तावेजों वाली मौजूदा स्थिति में 130 करोड़ लोगों को एनआरसी प्रक्रिया में झोंक कर मोदी सरकार मुसीबत ही मोल लेगी.

कामरूप, असम में लोग अपने दस्तावेजों को दिखाते हुए, क्योंकि उनके नाम अंतिम एनआरसी में शामिल नहीं थे-फोटो/एएनआई

देश के नागरिकों की सही पहचान करने में सक्षम होना एक बहुत ही उपयोगी बात है. राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर सार्वजनिक सेवाओं के वितरण तक, चुनावों में मतदान से लेकर सार्वजनिक पुस्तकालयों से पुस्तकें उधार लेने तक – लोगों की नागरिकता का अकाट्य प्रमाण शासन को अधिक प्रभावी और विभिन्न तरीकों से जनता को सशक्त बना सकता है. इसलिए मुझे उन लोगों में गिन सकते हैं जो मानते हैं कि नागरिकों के हाथों में नागरिकता का स्पष्ट प्रमाण थमाना अच्छी बात है. अधिकांश विकसित देशों ने ऐसा किया है; भारत को भी ये करना चाहिए.

दस साल पहले तत्कालीन यूनिक आइडेंटिफिकेशन (या यूआईडी) परियोजना के निर्माताओं में से एक के साथ बहस के पहले मैंने इस बारे में ज़्यादा सोचा तक नहीं था कि हम ये काम कैसे कर सकते हैं. यूआईडी के प्रारूप में नागरिकता संबंधी सूचना का विकल्प नहीं होने को लेकर मेरी आलोचना के बाद मेरे मित्र ने मुझे ढंग से समझाया कि नागरिकता साबित करना व्यावहारिक रूप से असंभव है क्योंकि 2008 में सर्वाधिक आबादी वाले कुछ राज्यों में जन्म पंजीकरण दर करीब 60 प्रतिशत ही थी. एक पीढ़ी पहले और भी कम लोग जन्म को पंजीकृत कराते होंगे. दूसरे शब्दों में, जब भारत में करोड़ों लोगों के पास जन्म प्रमाण पत्र ही नहीं हो तो ऐसे में नागरिकता का सटीक निर्धारण बहुत दूर की बात थी. कुल 130 करोड़ लोगों के देश के लिए पहचान पत्र बनाना ही काफी कठिन था; नागरिकता का अकाट्य प्रमाण तैयार करना तो लगभग असंभव ही था.

मौजूदा स्थिति से शुरुआत नामुमकिन

प्रामाणिक, असंदिग्ध और आसानी से उपलब्ध दस्तावेज नागरिकता के पक्के दस्तावेजीकरण की किसी भी कवायद के लिए बुनियादी आवश्यकताएं हैं. लेकिन हमारे दादा-नानाओं के पास दस्तावेज के नाम पर अधिक-से-अधिक जन्मकुंडली थी; हमारे माता-पिताओं की पीढ़ी में भी कइयों ने – विशेषकर महिलाओं ने – हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं की थी, और इसलिए उनके पास विद्यालय परित्याग प्रमाण पत्र नहीं है; अलग-अलग दस्तावेजों में नाम के हिज्जे अलग-अलग हैं; शादी के बाद अधिकांशत: महिलाओं के नाम बदल जाते हैं; और शायद मेरी पीढ़ी के आधे बच्चों – 1970 के दशक में पैदा हुए – के पास जन्म प्रमाण पत्र नहीं हैं.


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नरेंद्र मोदी सरकार नागरिकता सुनिश्चित करने के लिए एक ‘सुव्यवस्थित प्रक्रिया’ निर्धारित कर सकती है, लेकिन इतनी कमजोर नींव पर आधारित होने के कारण तमाम समस्याएं खड़ी होंगीं. एक समतुल्य उदाहरण के जरिए इसका अनुमान लगाया जा सकता है: यदि आपके डिजिटल फोटो का रिज़ॉल्यूशन फोटो खिंचने के समय ही कम रहा हो, तो कुछ भी कर लें उसे बेहतर नहीं बनाया जा सकता. आप अनुपलब्ध विवरण भर सकते हैं, लेकिन फिर उनकी प्रामाणिकता की गारंटी नहीं होगी. नागरिकता सुनिश्चित करने जैसी महत्वपूर्ण कवायद में अपील की एक विश्वसनीय प्रक्रिया की भी व्यवस्था होनी चाहिए. राजनीतिक और व्यावहारिक दृष्टि से, नागरिकता के आपके दावे के खिलाफ दूसरों की आपत्तियों पर विचार की भी प्रक्रिया होनी चाहिए.

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इतने कमज़ोर दस्तावेजी बुनियाद के ऊपर 100 करोड़ से अधिक लोगों को राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की कवायद में झोंकना प्रामाणिक नागरिकों की सूची तैयार करने के फायदों के मुकाबले कहीं अधिक मुसीबत मोल लेने के समान होगा.

शुरुआत जन्म प्रमाण पत्र से हो

स्पष्टता के साथ नागरिकता सुनिश्चित करने के भूतलक्षी दृष्टिकोण के बजाय, भविष्य के लिए ऐसा करने की प्रक्रिया कहीं अधिक प्रभावी साबित होगी. कुछ वर्षों में 130 करोड़ लोगों के दस्तावेजों की छानबीन करने के असंभव कार्य की कोशिश करने के बजाय बेहतर तरीका ये सुनिश्चित करने का होगा कि सभी नवजात बच्चों के पास नागरिकता के असंदिग्ध दस्तावेज हों. इसका मतलब हुआ जन्म पंजीकरण प्रक्रिया पर ध्यान देना. और इस बारे में एक अच्छी खबर भी है.

भारत के महारजिस्ट्रार द्वारा प्रकाशित 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार जन्म पंजीकरण के मामले में भारत अच्छी प्रगति कर रहा है – 2007 के 74.5 प्रतिशत के मुकाबले 2016 में भारत में पैदा कुल बच्चों में से 86 प्रतिशत के जन्म को पंजीकृत किया गया था. अरुणाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तराखंड पहले ही शत-प्रतिशत जन्म पंजीकरण का लक्ष्य हासिल कर चुके हैं. चंडीगढ़, दादरा और नगर हवेली, दिल्ली और पुदुचेरी के केंद्र शासित प्रदेशों ने भी यह मुकाम हासिल कर लिया है. यह उपलब्धि उल्लेखनीय है और इस बात का सबूत भी कि दस्तावेजीकरण की समस्या खुद-ब-खुद दूर हो रही है.

यदि सबसे कम जन्म पंजीकरण दरों वाले बिहार, जम्मू कश्मीर, मध्यप्रदेश, सिक्किम और उत्तरप्रदेश की सरकारों को उनका प्रदर्शन बेहतर करने के लिए प्रेरित किया जाए तो नागरिकता प्रमाणन की चुनौती बहुत सुगम हो जाएगी. अगर मोदी सरकार नागरिकता के दस्तावेजीकरण की समस्या के समाधान के बारे में सच में चिंतित है, तो उसके लिए जन्म पंजीकरण को एक मिशन के रूप में लेना बहुत उपयोगी साबित होगा.

भ्रष्टाचार रहित पंजीकरण

जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण कानून 1969 के तहत अनिवार्य होने के बाद भी माता-पिता अपने बच्चों के जन्म का पंजीकरण क्यों नहीं कराते हैं? जागरूकता की कमी इसकी शायद सबसे पुरानी वजह है, और यह समस्या अभी भी कुछ इलाकों में मौजूद हो सकती है. एक वजह बच्चों का नामकरण जन्म के कुछ सप्ताह बाद करने की सांस्कृतिक परंपरा की भी हो सकती है.

पंजीकरण नियमों के तहत जन्म के 21 दिनों के भीतर पंजीकरण कराने पर जन्म प्रमाण पत्र नि:शुल्क जारी किया जाता है, और इसमें बच्चे का नाम शामिल करने की भी अनिवार्यता नहीं है. जबकि 21वें और 30वें दिन के बीच पंजीकरण के लिए एक शुल्क वसूल किया जाता है.

इस अवधि के बाद जन्म पंजीकरण के लिए बहुत सारे कागजातों की आवश्यकता होती है और विभिन्न कार्यालयों के चक्कर भी काटने पड़ते हैं; और बच्चे के जन्म के एक साल बीत जाने के बाद प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के कार्यालय में भी जाना पड़ता है. मुझे यकीन है कि इन नियमों को अच्छी मंशा से ही तैयार किया गया होगा, लेकिन वास्तविक दुनिया में उनका मतलब अनिश्चितता, मनमाने विवेकाधीन अधिकार और भ्रष्टाचार से है. इसलिए जन्म पंजीकरण कम होने में निश्चय ही भ्रष्टाचार की भी भूमिका है. अंत में, ये भी संभव है कि भारत के कुछ हिस्सों में सामाजिक रूप से कमजोर समुदायों को पंजीकरण सुविधाओं से वंचित रखा जाता हो.


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यदि सरकार जन्म (और मृत्यु) के पंजीकरण की प्रक्रिया को कुशल, सर्वसुलभ और भ्रष्टाचारमुक्त बना दे, तो भारत कुछ वर्षों में ही 100 प्रतिशत जन्म पंजीकरण के स्तर को छू सकता है. इस तरह कुछेक दशकों में, सभी के पास जन्म प्रमाण पत्र होगा और नागरिकता सुनिश्चित करना बहुत आसान हो जाएगा. बेशक, यह दोषरहित नहीं होगा. बेशक, इसमें लंबा समय लगेगा. लेकिन फिर, यह मानना भी भूल ही है कि कभी भी सटीक तौर पर एक-एक नागरिक की गणना संभव हो सकती है. धीमे और यथासंभव सटीक तरीके का विकल्प अधिक अशुद्धियों वाली कठोर प्रक्रिया नहीं हो सकती जिसके कि अंतहीन प्रक्रियात्मक और न्यायिक देरी में फंसने की संभावना हो.

हमें पंजीकरण प्रक्रियाओं को लेकर व्यापक रोष के खतरे को भी कम नहीं आंकना चाहिए. भले ही धार्मिक जोश में ल्यूक ने ठीक से तारीख और ब्यौरे का अंकन नहीं किया हो, पर करीब दो हज़ार वर्ष पहले रोमन जनगणना के खिलाफ यहूदी विद्रोह ने इतिहास का रुख बदल डाला था.

(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

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