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अखलाक से कन्हैया लाल तक बहुत हुआ, अब जाग जाइए

हमने यथासमय निर्णायक होकर यह बात तय नहीं की तो आश्चर्य नहीं कि जल्दी ही हमें मिर्जा गालिब की तरह कहना पड़े: कोई उम्मीदवर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती!

अंतिम संस्कार के लिए कन्हैया लाल को ले जाते हुए, फाइल फोटो | मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

अरे इन दोउन राह न पाई.’ 15वीं शताब्दी में संत कबीर के यह पद कहने के बाद से कई शताब्दियां बीत चुकी हैं और देश की नदियों में बहुत पानी बह चुका है और उनके ‘इन दोउन’ 21वीं शताब्दी के 22वें साल में आ पहुंचे हैं, फिर भी बात ज्यों की त्यों है. यों, कहना चाहिए, थोड़ी बढ़ गई है क्योंकि कबीर के समय में इनकी सिर्फ राह ही गुम थी, लेकिन अब अक्ल भी गुम हो गई है.

अगर ये दादरी (2015 में जिसके बिसाहड़ा गांव के निवासी मोहम्मद अखलाक के घर में घुसकर उन्हें बेदर्दी से मार डाला गया था), राजसमन्द (जहां 2017 में शंभूलाल रैगर नाम के नराधम ने बंगाली मजदूर अफराजुल शेख की जान लेने के लिए ऐसी हैवानियत की थी कि उसे देखकर बेरहमी भी शर्मा जाये) और हिलाकर रख देने वाली वहशत की ऐसी ही कई अन्य वारदातों के सिलसिले को बेरोकटोक उदयपुर (जहां गत मंगलवार को कन्हैयालाल की टेलरिंग शॉप में ही शैतानियत बरतकर उनकी जान ले ली गई) और अमरावती (जहां उमेश कोल्हे की गरदन तब रेत दी गई, जब वे कार्यस्थल से अपने घर लौट रहे थे और चूंकि तब वहां सत्ता पर कब्जे का नाटक उरूज पर था, उन्हें राजनेताओं के कन्हैयालाल जितने आंसू भी नसीब नहीं हुए) तक उठा लाये हैं और अपने तईं कतई कोई अपराधबोध प्रदर्शित नहीं कर रहे तो इसके सिवा और कहा भी क्या जा सकता है?

वह भी जब हम लगातार यह देखने को अभिशप्त हैं कि झूठों, छलों, दम्भों, प्रपंचों और साजिशों से सराबोर घृणा की राह हमवार करने के लिए उस राह को आबाद करने के प्रयत्न पूरी तरह छोड़ दिये गये हैं, जिसके बारे में कबीर का कहना था कि ये दोनो उसे पा नहीं सके हैं. ये प्रयत्न छोड़ न दिये गये होते तो वे आरोप-पत्र उतने लम्बे हो ही नहीं सकते थे, मोहम्मद अखलाक से उमेश कोल्हे तक के हत्यारे जिनके अपने पास होने का दावा करते और मानते आये हैं कि उनके बदले में उन्हें दलील, अपील व वकील का मौका दिये बिना आरोपितों को मौत के घाट उतारने का हक हासिल है. क्योंकि तब ये हत्यारे जैसे ही घृणा से भरकर किसी आरोपित पर कोई हथियार उठाते, कवि कुंवरनारायण जैसी ‘अजीब-सी मुश्किल’ में फंस जाते.

प्रसंगवश, कुंवरनारायण ने अपनी एक कविता में अपनी इस अजीब-सी मुश्किल को ‘प्रेम रोग’ बताते हुए यों बयान किया है: एक अजीब-सी मुश्किल में हूं इन दिनों-/मेरी भरपूर नफरत कर सकने की आदत/दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही/अंग्रेजों से नफरत करना चाहता/जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया/तो शेक्सपियर आड़े आ जाते/जिनके मुझ पर अब तक न जाने कितने एहसान हैं. /मुसलमानों से नफरत करने चलता/तो सामने गालिब आ कर खड़े हो जाते./अब आप ही बताइये किसी की कुछ चलती है/उनके सामने?/सिखों से नफरत करना चाहता/तो गुरुनानक आंखों में छा जाते/और सर अपने आप झुक जाता./और ये कंबन, त्यागराज, मुत्तुस्वामी…/लाख समझाता अपने को/कि वे मेरे नहीं/दूर कहीं दक्षिण के हैं/पर मन है कि मानता ही नहीं/बिना इन्हें अपनाए/…हर समय/पागलों की तरह भटकता रहता/कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए जिससे भरपूर नफरत करके/अपना जी हल्का कर लूं./पर होता है ठीक इसका उलटा/कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी/ऐसा मिल जाता/जिससे प्यार किए बिना रह ही नहीं पाता.


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जाहिर है कि हत्यारों और उन्हें शह देने वालों को यह ‘प्रेम रोग’ होता तो बात यहां तक पहुंच ही नहीं पाती. जिन नूपूर शर्मा के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उन्होंने अपनी बदजुबानी से देश में आग लगा दी है और उदयपुर में जो बर्बरता बरती गई, उसके लिए भी वही जिम्मेदार हैं, दादरी में मोहम्मद अखलाक के मारे जाते वक्त ही उनका अंतस्तल हाहाकार कर उठता. उनको गंवाने के बाद ही कह उठतीं वे कि बस, बहुत हो चुका. अब हम इस घृणा का बोझ आगे और नहीं बर्दाश्त कर सकते. क्योंकि ‘लगेगी आग गुलशन में तो उट्ठेगा धुआं बरसों. बनाते ही रहेंगे लोग अपना आशियां बरसों!’

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लेकिन अफसोस कि ‘इन दोउन’ में बहुविध घृणा को ही धर्म मानने व समझने वालों की जो एक नई जमात इधर तेजी से पलने बढ़ने लगी है और जो ‘दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई’ को सही सिद्ध करने में कुद भी उठा नहीं रखती, उसे इस प्रेम रोग का संक्रमण कतई होता ही नहीं है. कभी किसी रेपिस्ट के समर्थन में तिरंगे लहराकर और कभी किसी हत्यारे के महिमामंडन के लिए रैलियां व जुलूस निकालकर उसने इन दिनों अपने इस गुमान को बहुत बड़ा कर लिया है कि उनकी घृणा की ताकत उस प्रेम को हरा देगी, जिसके बारे में कहा जाता है कि भले ही उसकी राह पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा हो लेकिन वह कभी हारता नहीं है.

ऐसा नहीं कि इन गुमानियों को मालूम नहीं है कि कट्टरताएं धार्मिक हों या साम्प्रदायिक, वे समाज को हिंसक और अराजक ही बनाती हैं, क्योंकि उनसे इस प्रवृत्ति का पोषण किये बिना रहा नहीं जाता कि अपने धर्म को श्रेष्ठता साबित करने के लिए दूसरे धर्म को नीचा दिखाया जाए. उन्हें यह भी मालूम है कि एक बार यह सिलसिला शुरू हो जाता है तो उसे थामना बहुत कठिन होता है. यह तय करना भी तब व्यर्थ ही रहता है कि उसके सिलसिले की शुरुआत किसने की.

जैसा कि पिछले दिनों एक प्रेक्षक ने लिखा, भारत जैसे बहुलतावादी और सदियों से धार्मिक बहुलताओं को पालते पोसते आ रहे देश में तो यह तय करने की कोशिश अंततः इतिहास की गहराइयों में जा पहुंचती है और इस सामाजिक विवेक को भी नहीं बचने देती कि किसने मंदिर लूटे, किसने मस्जिदें तोड़ीं, किस राजा का साथ किस सेनापति ने दिया और किस सुल्तान ने सत्ता के लिए कौन से समझौते किए, आज 21वीं सदी के 22वें साल में इन सबका हिसाब-किताब किया जाने लगेगा तो तबाही के अलावा कुछ हाथ नहीं आएगा. और जब सामाजिक विवेक ही नहीं बचता तो यह बात ही भला कैसे याद रखी जा सकती है कि आंख के बदले आंख वाला कानून पूरी दुनिया को किसी और दिशा में नहीं, अंधी बनाने की ओर ही ले जा सकता है?

मुुश्किल यह कि आज ऐसे कई राजनीतिक दल और नेता, जिनको धर्म को सत्ता की सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने और लाभ उठाने की लत लगी हुई है, इस सामाजिक विवेक को अविवेक की उस दिशा में ले जा रहे हैं, जहां किसी को अपनी कट्टरता व पोंगापंथी कट्टरता व पोंगापंथी लगती ही नहीं है. वैसे ही जैसे बहुतों को अपना भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार नहीं लगता.
वे चाहते हैं कि परम्परा से चली आ रही यह समझदारी भी बेमौत मर जाये कि कोई भी सच्चा धर्म बदला लेना या नफरत करना नहीं सिखाया. क्योंकि यह समझदारी एक झटके में उनका सारा खेल बिगाड़कर रख सकती है.

इसी समझदारी के तहत 2017 में राजस्थान के राजसमंद में शंभूलाल रैगर की हैवानियत के शिकार बंगाली मजदूर मोहम्मद अफराजुल शेख के परिजनों ने रैगर के लिए फांसी की मांग की तो यह भी कहा था कि रैगर ने अफराजुल के साथ जैसी बर्बरता बरती, उससे उस बर्बर तरीके का बदला लेने की वे सोच नहीं सकते. यानी न उसे उस तरह मार सकते हैं, न ही जला सकते हैं.

क्या ताज्जुब कि आज देश की सबसे बड़ी समस्या यह हो गई है कि ‘जिन दोउन’ ने कबीर के समय में राह नहीं पाई थी, लगता है कि अब वे राह पाना ही नहीं चाहते और सारी समझदारियों व विवेकों की राह रोककर कुतर्क के गुणगान व नफरत को जायज ठहराने को ही धर्म बनाये डाल रहे हैं. ऐसे में हमारा और हमारे देश का भविष्य, नि:स्संदेह, बहुत कुछ इस पर निर्भर करने वाला है कि हम, जिन्हें देश के संविधान में ‘हम भारत के लोग’ कहा गया है, इन दोनों से कैसा सलूक करते हैं? ऐसे ही इनके जाल में फंसे रह जायेंगे या यत्नपूर्वक उसे लेकर उड़ जायेंगे और इन्हें विफलमनोरथ करके ही दम लेंगे.

कवि बल्ली सिंह चीमा के शब्दों में कहें तो हमारे सामने बरबस वह समय आ पहुंचा है, जब हर हाल में हमें तय करना ही होगा कि हम किस ओर हैं. बल्ली के ही शब्दों में कहें तो: आदमी के पक्ष में हैं या कि आदमखोर हैं? हमने यथासमय निर्णायक होकर यह बात तय नहीं की तो आश्चर्य नहीं कि जल्दी ही हमें मिर्जा गालिब की तरह कहना पड़े: कोई उम्मीदवर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती!

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के स्थानीय संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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