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ज्ञानवापी मामले में AIMPLB की अपील असंवैधानिक, गरीब मुसलमानों को ही होगा नुकसान

देश के सामने उत्पन्न इस गम्भीर स्थिति में दोनों पक्षों की ओर से सद्भाव, समभाव एवं समरसता का वातावरण बनाने का प्रयास करना चाहिए ताकि मसले को हल बिना किसी अप्रिय घटना के अंजाम पर पा सके.

चित्रणः मनीषा यादव । दिप्रिंट

ज्ञानवापी विवाद के बीच मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने देश भर के मुसलमानों से अपील करते हुए कहा है कि ‘भारत के मुसलमानों को मस्जिदों की रक्षा और सेवा के लिए हर समय तैयार रहना चाहिए.’ बोर्ड ने सभी मस्जिदों के इमामों से इस विषय पर बोलने का अनुरोध भी किया है. वर्तमान समय में बढ़ते हुए साम्प्रदायिक माहौल के बीच मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा इस तरह की साम्प्रदायिक और गैर संवैधानिक अपील करने से देश के सामाजिक सौहार्द का खतरे में पड़ने का अंदेशा है.

बोर्ड द्वारा एक धर्म विशेष के लोगों को अपने धार्मिक स्थल की रक्षा करने के इस तरह के अपरिपक्व एवं जोखिम भरे बयान से इस देश में बसने वाले गरीब और कमज़ोर हिन्दू और मुसलमानों को अधिक प्रभाव पड़ेगा या यूं कहें की दुष्प्रभाव पड़ेगा.

ज्ञात रहे कि कानून व्यवस्था को बनाए रखना राज्य का दायित्व है ना कि किसी धार्मिक संगठन और धर्म विशेष के लोगों का. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अलावा भी अशराफ (स्व घोषित विदेशी शासक वर्गीय मुसलमान) उलेमा द्वारा इस मुद्दे को लेकर देशव्यापी आंदोलन और जेल भरो आंदोलन की बात भी खुलेआम कही जा रही है. ऐसा प्रतीत होता है कि इस पूरे मामले को अशराफ, बाबरी मस्जिद की तरह साम्प्रदायिक रंग देने का प्रयास कर रहा है.

देश के सामने उत्पन्न इस गम्भीर स्थिति में दोनों पक्षों की ओर से सद्भाव, समभाव एवं समरसता का वातावरण बनाने का प्रयास करना चाहिए ताकि मसले को हल बिना किसी अप्रिय घटना के अंजाम पर पा सके.

इस मामले में देशज पसमांदा (भारतीय मूल के मुसलमान) को आगे बढ़कर अपने रसूल मुहम्मद (स०) के ‘मिसाके मदीना’ (मोहम्मद साहब मक्का से मदीना आने के बाद मदीने में पहले से रह रहे अन्य धर्मों के लोगों के साथ जैसे ईसाई और यहूदी एक दूसरे की धार्मिक आस्थाओं का सम्मान करते हुए साथ रहने का समझौता) और ‘सुलह हुदैबिया‘ (मदीना में आने के बाद जब मुहम्मद साहब काफी मजबूत हो गए तब वो वापस मक्का वापस पहुंचे, तो उन्होंने झुककर वहां अपने विचारधारा विरोधी परिवार वालों और रिश्तेदारों के आगे झुके जिसका मदीना से साथ आए अनुयायियों ने विरोध भी किया..लेकिन मुहम्मद साहेब के उस समय झुकने का काफी असर पड़ा मदीना तो उनका था ही, मक्का में भी उनके अनुयायी बने. कुरान में इसे मुहम्मद की खुली हुई जीत की संज्ञा दी है.) मॉडल को अपनाते हुए और देश के हित को सामने रखते हुए सामाजिक सौहार्द के खातिर ज्ञानवापी मस्जिद पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए. जिस तरह से सुलह हुदैबिया में बजाहिर देखने में तो नुकसान दिख रहा था लेकिन अरब समाज के सामाजिक सौहार्द में इसका अच्छा परिणाम देखने को मिला था.

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ज्ञानवापी में हिंदू पक्ष मजबूत

गौरतलब है कि इस विवाद में हिन्दू पक्ष अधिक मजबूत लगता है उनके लिए ज्ञानवापी केवल एक आम शिवालय नहीं बल्कि बारह ज्योतिर्लिंग स्थानों में से एक स्थान है.

जबकि मुस्लिम समाज के लिए यह केवल एक आम मस्जिद की तरह है. हिन्दू समाज के लिए धार्मिक रूप से यह स्थान वैसे ही महत्वपूर्ण है जैसे मुस्लिम समाज के लिए खाने काबा, मस्जिद नबवी और हरम इमाम अली हैं.

अगर सिर्फ एक मस्जिद के मामले में पीछे हटने से देश के साम्प्रदायिक माहौल और उससे उत्पन्न होने वाले हालत में हजारों लोगो के जीवन एवं संपत्ति को नुकसान से बचाया जा सकता है तो ऐसा करना ना सिर्फ देश और समाज के लिए लाभकारी होगा बल्कि इस्लामी शिक्षाओं के अनुरूप भी होगा. देशज पसमांदा को यह देखना होगा कि वो जिस नबी का मानने वाला है वो दुनिया के लिए रहमत (दया) बनाकर भेजा गया था. और वैसे भी बनारस देशज पसमांदा के पूर्वज बाबा कबीर की भूमि रही है जिन्होंने धर्म के वाह्य स्वरूप और आडंबर से ऊपर उठकर हिन्दू मुसलमानों की बीच बनी खाई को पाटने का काम किया था. सुबह सुबह खुशबुओं से लिपटी हुई मंदिरों के घंटों की आवाज़ों को सुनकर पला बढ़ा बनारस के देशज पसमांदा के लिए यह बहुत मुश्किल भी नहीं.

वाराणसी के रहने वाले एक देशज पसमांदा शायर, नजीर बनारसी ने ठीक ही कहा है

मैं वो काशी का मुसलमां हूं के जिसको ऐ ‘नज़ीर’
अपने घेरे में लिये रहते हैं ‘बुतख़ाने’ कई

दूसरा रास्ता न्यायालय के फैसले का इंतजार इस मनो भाव से करना चाहिए कि जो भी फैसला होगा उसे स्वीकार कर लेने में कोई झिझक ना महसूस हो.

सरकार को भी चाहिए कि इस मुद्दे को बाबरी मस्जिद की तरह पब्लिक के बीच का मुद्दा नहीं बनने दे. जो भी ज्ञानवापी क्षेत्र के लोकल मुस्लिम (अशराफ और देशज पसमांदा) हैं और जो वहां पांच समय की नमाज पढ़ते हैं सिर्फ उन्हें ही पार्टी मानकर और उनको विश्वास में लेकर सरकारी स्तर पर मामला हल कर लेने का प्रयास करना चाहिए पूरे भारत के मुसलमानो को पक्ष बनाना शायद ठीक नही होगा.

प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया को भी संयम बरतना चाहिए और ऐसी रिपोर्टिंग और पोस्ट से परहेज़ करना चाहिए जिससे किसी की धार्मिक भावना आहत होने का अंदेशा हो.

अगर हम ऐसा कुछ कर पाएं और यह मसला शांति एवं सौहार्द के माहौल में निपट जाए तो आने वाले पीढ़ियों के लिए यह जरूर एक अच्छा उदाहरण साबित होगा.

(लेखक, अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चिकित्सक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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