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गुजरात में भले ही AAP गूंजी, लेकिन न भूलें कि UP 2014 में BSP को 20% वोट के बाद भी मिलीं थीं 0 सीटें

आप का दावा है कि वह गुजरात की राजनीति में प्रतिनिधित्व और वैचारिक अंतर को भर देगी. लेकिन क्या वाकई ऐसा कोई खालीपन है?

अरविंद केजरीवाल | ANI

गुजरात विधानसभा चुनाव, जो पहले ही भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में जाते नजर आ रहे हैं, फिलहाल तो एक ही उत्सुकता जगाते हैं कि आम आदमी पार्टी कैसा प्रदर्शन करेगी और कांग्रेस एवं भाजपा को कितना नुकसान पहुंचाएगी. ये दोनों दल अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली पार्टी से उभरती चुनौती का सामना करने के लिए अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार कर रहे हैं.

गुजरात में आप इकाई को एक बड़ी बेदाग छवि का फायदा मिलेगा, जो जाहिर तौर पर किसी भी नए राजनीतिक दल को शुरुआत में मिलता है. पार्टी के आत्मविश्वास के पीछे कई फैक्टर हैं- केजरीवाल की लड़ने की प्रवृत्ति,  उनकी ओर से मुफ्त में सुविधाएं देने के वादों का आकर्षण, जबरदस्त तरीके से चलाए जा रहे सोशल मीडिया अभियान, पंजाब में मनोबल बढ़ाने वाली भारी जीत, तथाकथित दिल्ली शासन मॉडल की सकारात्मक धारणा वगैरह लेकिन क्या ये सब, 1995 से गुजरात की राजनीति का मुख्य आधार रहे दो दलों के इर्द-गिर्द घूम रही सत्ता की राजनीति में, कोई आमूल-चूल बदलाव लाने के लिए पर्याप्त हैं? जिसे छोटे दलों ने बदलने के काफी प्रयास किए है.


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गुजरात में आप के लिए बाधाएं

हालांकि कुछ जनमत सर्वे (एबीपी सी-वोटर सर्वे और हिंदू-सीएसडीएस सर्वे) ने आप के लिए लगभग 20 फीसदी वोट शेयर की भविष्यवाणी की है. इन सर्वेक्षणों ने गुजरात चुनावों में आप को बीजेपी के बाद और कांग्रेस से आगे रखा है. जबकि जमीनी हकीकत यह भविष्यवाणी कर रही है कि पार्टी के लिए कोई भी सरप्राइज दे पाना काफी चुनौतीपूर्ण होगा. भले ही वह कुल वोटों का एक बड़ा हिस्सा हासिल करने में कामयाब हो जाएं लेकिन क्या वह इसे सीटों में तब्दील करने में सफल हो पाएगी या फिर विफल रहेगी? यह बहस का मुद्दा है. फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट चुनाव प्रणाली में किसी एक निर्वाचन क्षेत्रों में मौजूद मतदाता, कुल वोटों की अधिक हिस्सेदारी से ज्यादा मायने रखते हैं.

क्योंकि पूरे राज्य में यहां वहां छितरे हुए वोटों से पार्टी का वोट शेयर भले ही बढ़ जाए, लेकिन वह सीटों में तब्दील नहीं हो सकता है. उदाहरण के तौर पर, बहुजन समाज पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में 20 फीसदी का तीसरा सबसे बड़ा वोट शेयर हासिल किया था, लेकिन जीती गईं सीटों की संख्या जीरो थी. इसी तरह पिछले साल हुए गांधीनगर नगर निगम चुनाव में भी AAP को 20 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन वह सिर्फ एक सीट पर अपना कब्जा जमा पाई.

दिल्ली और पंजाब में जो रणनीति सफल हुई, जरूरी नहीं कि वह किसी और राज्य में भी सफल हो. अलग-अलग राज्यों की राजनीति के परस्पर व्यवहार का तरीका और परिवर्तन की स्थितियां समान नहीं होती हैं. इसके अलावा, दो-दल के दबदबे वाले राज्य में नई पार्टियों को सफलता के लिए संरचनात्मक बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है. मतदाताओं का मनोविज्ञान मौजूदा दलों का पक्षधर है. मतदाता मुख्य रूप से एक जीतने वाली या जीतने योग्य पार्टी का चुनाव करना चाहते हैं. वे तीसरे पक्ष के लिए मतपत्र के इस्तेमाल को अवसर की बर्बादी के रूप में देखते हैं.

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जब भी आप ने नई जगहों पर जाने की कोशिश की, तो उन्हें अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा है. 2017 के गुजरात चुनाव में पार्टी ने 30 सीटों पर चुनाव लड़ा और सिर्फ 0.1 प्रतिशत वोट हासिल कर पाई. 2022 के गोवा चुनाव में उसे 6 फीसदी वोट और दो सीटें मिली थीं. यूपी और हरियाणा में इसकी शुरुआत काफी दुखद थी. दोनों राज्यों में पार्टी को आधे प्रतिशत से भी कम वोट मिले और केजरीवाल के धमाकेदार अभियान और पार्टी के लंबे दावों के बावजूद कोई सीट नहीं मिल पाई. आप ने उत्तराखंड की सभी 70 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन सिर्फ 3 फीसदी वोट हासिल कर पाई और सीटों के मामले में तो शून्य पर रहीं. एक नई पार्टी के रूप में आप के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाने के लिए एक न्यूनतम संगठनात्मक ढांचा तैयार करने की है.

गुजरात के लिए ‘आप’ ज्यादातर शहरी घटना है. इसकी राजनीतिक दृश्यता सूरत, राजकोट और अहमदाबाद-गांधीनगर क्षेत्र तक ही सीमित है. ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में लोग इसके प्रतीक, उम्मीदवारों और कार्यक्रमों के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं. आप ने अपना मुख्य मतदाता आधार पाटीदारों समुदाय से बनाया है. आप के प्रमुख राज्य के नेता या तो पाटीदार भाजपा नेता हार्दिक पटेल के पिछले सहयोगी हैं या पाटीदार अनामत आंदोलन समिति के कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने 2015-17 के बीच आरक्षण आंदोलन का नेतृत्व किया था. गुजरात के आदिवासी वोट बैंक में घुसने की पार्टी की योजना धराशायी होती दिख रही है क्योंकि भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) के साथ उसका गठबंधन टूट गया है.

इसकी लामबंदी और अभियान की रणनीतियों ने काफी हद तक दलितों अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) और अल्पसंख्यकों के हितों की अनदेखी की है. बीजेपी-आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) कैडरों के वर्चस्व वाले गुजरात के सिविल सोसायटी नेटवर्क (दुग्ध सहकारी समितियों, कृषि विपणन समितियों, छात्र निकायों, पेशेवर संघों, ट्रेड यूनियनों आदि) में AAP की उपस्थिति लगभग न के बराबर है.

पार्टी लाइन से इतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गुजरातियों के बीच एक आकर्षक छवि है. विनम्रता और भावनात्मक अपील पर केजरीवाल का सर्वश्रेष्ठ शॉट राज्य में मोदी के प्रतिष्ठित कद और लोकप्रियता को प्रभावित नहीं कर पाएगा. इसके अलावा, मुफ्त बिजली, सरकारी नौकरी, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं, तीर्थ स्थलों की मुफ्त यात्रा, सभी महिलाओं को मासिक वजीफा, बेरोजगारी भत्ता, मछली के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य आदि के वादे को गुजरात के मतदाताओं से ज्यादा तवज्जो नहीं मिल सकती है- भाजपा समर्थित एक बड़ा वर्ग अपनी हिंदू विचारधारा की उन्नति के लिए उन्हें त्यागने के लिए तैयार हैं, क्योंकि उनके लिए यह ज्यादा मायने रखता है.


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आप की डिकोडिंग रणनीति

तो फिर, आप किस पर निर्भर है? इसकी रणनीति भाजपा विरोधी वोटों का एक बड़ा हिस्सा हासिल करने पर केंद्रित है जो कांग्रेस के पाले में जाता रहा है. इसी तरह यह भाजपा के पाटीदार समर्थन आधार के साथ-साथ हिंदुत्व के आधार पर भी ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ को अपने प्रमुख अभियान विषय के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है. आम आदमी पार्टी सूरत (कतरगाम, वराछा, ओलपाड, कामरेज और करंज) की पांच पाटीदार बहुल सीटों पर जीत की ख्वाहिश रख सकती है.

पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार ईशुदान गढ़वी को छोड़कर राज्य के अहम नेता इन सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं. बाकी 182 सीटों पर तो आप सिर्फ कांग्रेस और बीजेपी के लिए बिगाड़ने वाली भूमिका निभाएगी. इस त्रिकोणीय परिदृश्य में कांग्रेस को सबसे अधिक नुकसान होने की संभावना है और भाजपा को साफ तौर पर फायदा होगा. आप की वोट-बांटने की भूमिका का असर ज्यादातर 57 सीटों (कुल सीटों का लगभग एक तिहाई) पर देखा जाएगा, जहां 2017 के चुनावों में कांग्रेस और भाजपा उम्मीदवारों की जीत का अंतर पांच प्रतिशत से भी कम रहा था. इनमें से 35 सीटों पर 5 हजार से कम वोटों के अंतर से जीत दर्ज की गई थी.

आप का दावा है कि वह गुजरात की राजनीति में प्रतिनिधित्व और वैचारिक अंतर को भर देगी. लेकिन क्या वाकई ऐसा खालीपन मौजूद है या फिर इसे भरने की जरूरत है? पुख्ता तथ्य इस दृष्टिकोण का समर्थन नहीं करते हैं कि पर्याप्त संख्या में भाजपा या कांग्रेस के मतदाता अपनी पार्टियों से इतने असंतुष्ट हैं कि वे अपनी वफादारी किसी तीसरे पक्ष की ओर दिखाएं. इसके अलावा, ऐसा कदम तभी उठाया जाएगा जब ‘आप’ को विचारधारा के आधार पर भाजपा और कांग्रेस से अलग माना जा रहा हो.

इन चुनौतियों के बावजूद अगर आप अगली गुजरात विधानसभा में दो अंकों में सीटें जीतने में सफल होती है, तो इसका मतलब गुजरात की राजनीति में एक मीडियम-टर्म-शिफ्ट होगा (कुछ समय तक चलने वाला जो न तो लंबा होता है और न ही छोटा.) और 2027 के चुनाव में कांग्रेस का संभावित हाशिए पर होना होगा. इसलिए 2022 का चुनाव आप से ज्यादा कांग्रेस के लिए करो या मरो की लड़ाई है. यहां तक कि बीजेपी भी गुजरात में मुख्य विपक्षी दल के रूप में आक्रामक और अप्रत्याशित आप की कामना नहीं करेगी क्योंकि उसने राज्य में अपने शासन के एक चौथाई सदी के दौरान कांग्रेस की राजनीति से निपटने में बहुत आराम का अनुभव किया है.

अमित ढोलकिया महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी, वडोदरा में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं. उनके विचार व्यक्तिगत हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: संघप्रिय मौर्य)


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