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सत्ताएं बदलती हैं, नियति नहीं बदलती’-‘बेस्ट’, ‘फिटेस्ट’ और ‘रिचेस्ट’ के तंत्र में बदल रहा हमारा गणतंत्र

आज देश में कुछ लोगों के पास कई-कई कारखाने हैं और करोड़ों के पास खाने को भी नहीं है-अस्सी करोड लोग मुफ्त के राशन पर गुज़ारा करने को अभिशप्त हैं.

गणतंत्र दिवस समारोह से पहले राजपथ की फाइल फोटो, दिल्ली | प्रवीण जैन | दिप्रिंट

आइये, पैंतालीसवें गणतंत्र दिवस के संदर्भ से बात शुरू करें, जो इस मायने में बहुत महत्वपूर्ण है कि जैसे इन दिनों नरेंद्र मोदी सरकार आम तौर पर किसी की नहीं सुनती, उन दिनों पीवी नरसिंहराव सरकार गैट व डंकल प्रस्तावों के समक्ष अपने ‘आत्मसमर्पण’ के विरुद्ध कियी एतराज को कान नहीं दे रही थी. भले ही कई प्रेक्षक आशंकित थे कि कहीं उसके आत्मसमर्पण का असर देश, खासकर उसकी संसद की सम्प्रभुता को ही सम्पूर्ण न रह जाने दे और पैतालीसवां गणतंत्र दिवस आखिरी न सिद्ध हो जाये.

‘बेस्ट’, ‘फिटेस्ट’ और ‘रिचेस्ट’

बहरहाल, दिन भर छाये रहने वाले कुहरे और अंदेशों के दोहरे धुंधलके के बीच राजधानी दिल्ली 26 जनवरी, 1994 की अलस्सुबह राजपथ पर टैंकों की गड़गड़ाहट, खट-खट बूट बजाते फौजियों की कवायद और ढेरों दूसरे परम्परागत तामझाम के लिए बन-संवर और कड़ी सुरक्षा में जकड़ रही थी तो एक ओर डंकल प्रस्ताव पर दस्तखत कर चुकी राव सरकार देशवासियों को गैट में शामिल होने के फायदे रटा रही थी-‘इससे काफी लाभ है….यह आधुनिकीकरण के लिए जरूरी है और इसमें शामिल नहीं हुए तो दुनिया से पिछड़ जायेंगे’ , दूसरी ओर कई अर्थशास्त्री देश पर बरबस थोपी जा रही भूमंडलीकरण व उदारीकरण की अर्थनीति में ‘बेस्ट’, ‘फिटेस्ट’ या ‘रिचेस्ट’ का ही ‘सर्वाइवल’ देख निचले तबकों पर संभावित कहर को लेकर सचेत कर रहे थे.

अफसोस कि ऐसे कठिन वक्त में संसदीय विपक्ष अपने दायित्वों को लेकर गम्भीर नहीं था. उस वक्त विपक्ष में भारतीय जनता पार्टी ही सर्वाधिक संभावनाशील मानी जाती थी, जो उस अर्थनीति से संभावित तबाहियों को लेकर ज्यादा फिक्रमन्द नहीं थी. क्योंकि उससे लड़ने में उसे ज्यादा संभावनाएं नहीं दिख रही थीं. इसलिए वह ‘बुद्धिमत्तापूर्वक’ अर्थनीति के विरुद्ध तो महज तलवारें भांज रही थी और बाबरी मस्जिद के ध्वंस की शर्म दरकिनार कर ‘वहीं’ राममन्दिर निर्माण की धार्मिक भावनाओं {पढ़िये: दुर्भावनाओं} के दोहन की ‘लड़ाई’ में जी-जान लगाये हुए थी.

उसके नित नये बवालों के दबाव में वामपंथी दलों ने भी अर्थनीति के बजाय साम्प्रदायिकता को दुश्मन नम्बर एक घोषित कर दिया था. यह समझने से इनकार करते हुए कि बढ़ती साम्प्रदायिकता आर्थिक तनाव पैदा करने वाली नीतियों का बाईप्रोडक्ट भर थी और उन तनावों के बढ़ते रहने तक किसी न किसी रूप में बनी ही रहनी थी-कभी थोड़ी घटती तो कभी थोड़ी बढती हुई. इस ‘समझदारी’ से वामपंथी दलों की कतारों में जो दुचित्तापन पैदा हुआ, उसके चलते वे न ‘जनविरोधी’ अर्थनीति से लड़ पाये, न ही स्वघोषित दुश्मन नम्बर एक यानी साम्प्रदायिकता से. विडम्बना यह कि वे लड़ते रहे और साम्प्रदायिकता निरंतर बढ़ती व ताकतवर होती रही. हमलावर होती जा रही बिग मनी के न सिर्फ हमारी राजसत्ता की शक्तियों बल्कि गणतांत्रिक सपनों तक के खुल्लमखुल्ला अतिक्रमण के हौसले भी आसमान छूते रहे.

गौरतलब है कि उन दिनों राजधानी दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक ‘समकालीन जनमत’ ने इन अतिक्रमणों को इस रूप में देखा था: ‘बहुत खतरनाक समय आ रहा है. देश की बहुसंख्यक आबादी की हालत यह है कि अचानक घर में दस हजार रुपये आ जायें तो आंखें ढेले-सी बाहर आ जाती हैं….लेकिन अब उसके घर के आसपास लाखों करोड़ रुपयोें की पूंजी वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने धंधे शुरू करेंगी. एक नई दुनिया जादू की तरह झटके से खुलेगी उसकी चैंधियाई आंखों के सामने. कोक-पेप्सी, मैडोना, माइकल जैक्सन की दुनिया-एक पारलौकिक शासक वर्ग, उसके धंधों के अपने तौर-तरीके, अलहदा नियम-कानून और हमारी इस ‘सुजलाम, सुफलाम मलयज, शीतलाम’ धरती पर खड़े उनके इस स्वर्ग में घुसने के लिए धकापेल मचायेंगे हमारे सट्टेबाज, व्यापारी, घूसखोर अफसर, जमींदार, नेता और ढेरों उभरतें छुटभैये.

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मुख्यधारा की राजनीति अभी भी जातिवादी और पूंजीवादी

पाक्षिक के अनुसार गैट की तारीफ में कसीदे पढ़कर दरअसल ‘नये श्वेत ब्राह्मण’ अपना जनेऊ संस्कार कर रहे थे और देश के नब्बे प्रतिशत ‘नव शूद्रों’ के लिए उनके पास अपने नये स्वर्ग के सड़े हुए जूठन, अपसंस्कृति व कुसंस्कार के अलावा वह गलाकाट होड ही थी, जो ‘मृत्यु के दुस्सह साम्राज्य’ तक ले जाती थी. कारण? इतिहास के हर निर्णायक मोड़ पर दगा करने वाले हिन्दुस्तानी शासक वर्ग ने भारतीय राष्ट्रवाद को ऐसे ही दुःस्वप्न तक पहुंचा दिया था.

आज तीन दशकों बाद इस संदर्भ को याद करके हम खुश हो सकते थे, बशर्ते इस आकलन को किंचित भी गलत ठहरा पाये होते. लेकिन इस दौरान अपनी धुरी पर पूरे तीन सौ साठ अंश घूम जाने के बावजूद देश की मुख्यधारा की राजनीति का जातिवादी, साम्प्रदायिक व पूंजीवादी स्वरूप अभी तक ज्यों का त्यों है. यों, यह कहना ज्यादा सही होगा कि ज्यादा कुटिल रूप में और ज्यादा निरावरण होकर हमारे सामने है.

1994 में जहां उक्त दुःस्वप्न इस लिहाज से बहुत बड़ा लग रहा था कि वह सत्ता-व्यवस्था का मुंह देशवासियों के लिए सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा व अवसर की समता और व्यक्ति की गरिमा आदि सुनिश्चित करने वाले संवैधानिक संकल्पों को उलटी दिशा में घुमाने की हिमाकत कर रहा था-सम्पूर्णप्रभुत्वसम्पन्न, लोकतंत्रात्मक, समाजवादी और पंथनिरपेक्ष गणराज्य बनाने की प्रतिज्ञा के भी विपरीत, वहीं अब इस मायने में बहुत बड़ा हो चला है कि इस बीच कई सत्तापरिवर्तनों में तत्कालीन सत्तापक्ष के विपक्ष और विपक्ष के सत्तापक्ष बन जाने के बावजूद जमीनी हकीकतें रंच मात्र भी नहीं बदली हैं.

इस कारण नीतिगत विपक्ष कहीं बचा ही नहीं है और दुर्दिव झेल रहे वामपंथियों को छोड़ दें तो प्रायः सारे दलों की टेक नीतियों के बजाय नायकों पर है. नायकों को लेकर मतभेदो के बावजूद उन्होंने सामूहिक रूप से मान रखा है कि उक्त अर्थनीति का कोई विकल्प नहीं है. उनमें से किसी को भी इस बात से शायद ही कोई फर्क पड़ता है कि उसके जाये गैरबराबरी के असुर समता के हमारे संवैधानिक संकल्प को अमीरी की असंवैधानिक व अनैतिक हवस के हवाले किये दे रहे हैं. दूसरी ओर उसके समाजवाद व धर्मनिरपेक्षता जैसे पवित्र मूल्यों के संविधान की पोथियों में बचे रहने पर भी संकट खड़े कर रहे हैं. तभी तो अतरराष्ट्रीय सूचकांकों में हमारी आजादी आंशिक और लोकतंत्र लंगड़ा हो गया है!

गौर कीजिए, वर्तमान सत्ताधीशों ने 2014 में देश की सत्ता पाने के लिए सब-कुछ बदल डालने के कैसे-कैसे जनकल्याणकारी वायदे किये थे. लेकिन अब जनकल्याण से हाथ खींचने के एक के बाद एक फैसलों के बीच वे राजपथ का नाम कर्तव्य पथ करके ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ले रहे और अर्थनीति पर नरसिंहराव के काल से चली आ रही राजनीतिक सर्वानुमति भंग करने को कतई तैयार नहीं हैं, जबकि भूमंडलीकरण का प्रवर्तक अमेरिका का अमेरिका फस्र्ट भी पुराना पड़ गया है.

नागरिकता छोड़ते अमीर  

आज देश में कुछ लोगों के पास कई-कई कारखाने हैं और करोड़ों के पास खाने को भी नहीं है-अस्सी करोड लोग मुफ्त के राशन पर गुज़ारा करने को अभिशप्त हैं. फिर भी संविधान के चैथे खंड में आर्थिक लोकतंत्र लाने के उद्देश्य से पूंजी व संसाधनों का ‘सर्वसाधारण के लिए अहितकारी’ संकेन्द्रण रोकने हेतु आर्थिक ढ़ांचा बदलने का जो दिशानिर्देश किया गया है, सत्ताधीशों में कोई उसका कोई नामलेवा नहीं है.

भले ही आक्सफेम इंटरनेशनल की ताजा रिपोर्ट कहती है कि एक प्रतिशत सबसे अमीर लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का 40 प्रतिशत से अधिक एकत्र हो गया है, जबकि नीचे से 50 प्रतिशत आबादी के पास कुल संपत्ति का सिर्फ तीन प्रतिशत बचा है! कोरोना शुरू होने के बाद से नवम्बर, 2022 तक अरबपतियों की संपत्ति में 121 प्रतिशत या 3,608 करोड़ रुपये प्रतिदिन की वृद्धि हुई और उनकी संख्या 2020 के 102 से बढ़कर 2022 में 166 हो गई. देश के 100 सबसे अमीर लोगों की संयुक्त संपत्ति 660 अरब डॉलर (54.12 लाख करोड़ रुपये) तक पहुंच गई है, जो देश के 18 महीनों के केन्द्रीय बजट की राशि के बराबर है.

रिपोर्ट यह भी कहती है कि हाशिये पर पड़े देशवासी-दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाएं और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक-एक दुष्चक्र से पीड़ित हैं और उनका यह पीड़ित होना ही सबसे अमीर लोगों का अस्तित्व सुनिश्चित करता है. इन अमीरों का एक हिस्सा अमीरी के लिए भारत के इस्तेमाल के बाद उसे असुरक्षित या अनुपयुक्त बताकर छोड़ देता और विदेश जा बसता है.

सोचिये जरा, कि क्या हमारा गणतंत्र इन हालातो को बदले बिना कुछ लोगों के पाले हुए गणों का तंत्र होने की अपनी नियति बदल सकता है और क्या ऐसे बदलाव राजपथ का नाम कर्तव्य पथ कर देने भर से आ जायेंगे?

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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