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1962 वॉर, गलवान- क्यों चीन के दिए गए संकेतों को नजरअंदाज करना भारत के लिए पड़ सकता है भारी

शी जिनपिंग बतौर राष्ट्रपति अपने तीसरे कार्यकाल के पहले अपनी घरेलू और वैश्विक स्थितियों का जायजा ले रहे हैं तो उनकी पार्टी, अर्थव्यवस्था और चीन का समाज अपने दुश्मनों से मुखातिब हो सकता है.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की फाइल फोटो । कॉमन्स

राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) की 20वीं कांग्रेस में ‘नया चीन’ का जिक्र किया मगर उसकी विशेषताएं, उद्देश्य और अंतिम लक्ष्य के बारे में कुछ नहीं बताया. हर जगह चीन के जानकार संकेतों को पढ़ने की कोशिश में समूचे आयोजन की मिनट-दर-मिनट फुटेज खंगाल रहे होंगे.

चीन के नेता सीधे दो-टूक कुछ कहने के बदले अपने विचार संकेतों और इशारों में जाहिर करते हैं. नई दिल्ली को बीजिंग से निकल रहे, खासकर ‘नए चीन’, 1962 के जिक्र और तीसरे कार्यकाल में राष्ट्रपति की 2020 में गलवान घाटी संघर्ष में मारे गए पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के जवान की श्रद्धांजलि से जुड़े संकेतों को पढ़ना शुरू कर देना चाहिए.

पीएलए संग्रहालय की अपनी यात्रा में शी ने उल्लेख किया कि सीसीपी पीएलए का नेतृत्व उसकी ‘राजनीतिक वफादारी’ बढ़ाने और बेहतर युद्ध तैयारी के खातिर सैन्य प्रशिक्षण में तेजी लाने की दिशा में कर रही है.

आश्चर्य नहीं कि संग्रहालय में 1962 के युद्ध के लिए भारत को दोषी ठहराने वाली प्रदर्शनी, गलवान संघर्ष में मारे गए पीएलए जवान का स्मारक और एक ‘काराकोरम पत्थर’ शामिल है, जहां आगंतुक सीमा पर पीएलए सैनिकों के समर्थन में एक बटन दबाते हैं.

शी ने इस दावे का खंडन किया कि चीन का कोई विस्तारवादी एजेंडा है और कहा कि देश की सुरक्षा और शांतिपूर्ण उद्देश्यों, न कि युद्ध के लिए ताकतवर पीएलए की दरकार है.

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लेकिन उन्होंने क्षितिज पर घुमड़ते ‘खतरनाक तूफान’ की चेतावनी जरूर दी. नई दिल्ली को इशारों को पढ़ना सीखना चाहिए.

शी के लिए तीसरा कार्यकाल पहले और दूसरे कार्यकाल की तरह खुशनुमा और आसान नहीं हो सकता है. शी के दूसरे कार्यकाल के दौरान, अमेरिका डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व में ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) से हट गया था और एशिया में आर्थिक खालीपन छोड़ गया था, जिसे चीन भर सकता था.

लेकिन अब, शी जब घरेलू और वैश्विक स्थितियों का जायजा ले रहे हैं, तो उनकी पार्टी, अर्थव्यवस्था और चीनी समाज विरोधियों की ओर मुखातिब हो सकता है, शी के वैचारिक विरोधियों की बात तो अलहदा है.


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पूरा नियंत्रण

सीसीपी की 2017 में 19वीं कांग्रेस, जिसमें शी जिनपिंग को पार्टी के महासचिव के रूप में दूसरे पांच साल के कार्यकाल के लिए फिर से चुना गया था, के पहले ‘ठोस प्रयासों के पांच साल’ का जोरदार प्रचार अभियान चलाया गया था, जिसमें पीएलए के आधुनिकीकरण से लेकर चेयरमैन माओ की स्मृति में अंतरिक्ष कार्यक्रमों में सफलता तक हर काम का श्रेय शी को दिया गया था.

विराट छवि वाले माओ निर्मम नेता थे, जिनके प्रति आदर से अधिक डर था. उन्होंने पर्सनाल्टी कल्ट तैयार किया, विनाशकारी ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ परियोजना पर अमल किया, जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर भुखमरी हुई और शी जिनपिंग के पिता शी झोंगक्सुन सहित अपने कई सहयोगियों और विरोधियों का पत्ता साफ कर दिया.

संयोग से, शी जिनपिंग के पिता उन लोगों में थे जिन्होंने क्रांति की सफलता के लिए सिर्फ माओ को श्रेय देने और कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का विरोध किया था. लेकिन तब माओ सीसीपी को अपने ढर्रे में ढ़ालने में कामयाब रहे.

शी जिनपिंग के दूसरे कार्यकाल में पार्टी के लोगोंं ने उनकी कार्यशैली में बदलाव को नोटिस करना शुरू कर दिया. वे माओ के उत्तराधिकारी देंग श्याओ फिंग के सामूहिक नेतृत्व मॉडल से ‘हट’ रहे थे.

देंग ने 1980 के दशक में नियमों में संशोधन के साथ सीसीपी में सामूहिक नेतृत्व व्यवस्था की शुरुआत की थी, जिसमें पोलित ब्यूरो और स्टैंडिंग कमेटी के सदस्यों के कार्यकाल को सीमित किया गया था और उनके रिटायर होने की उम्र तय की गई थी.

सत्ता का स्वाद चखने और एकछत्र सत्ता को ही शक्ति का श्रोत मानने की कम्युनिस्ट व्यवस्था की कड़वी सच्चाई के एहसास के बाद शी जिनपिंग ने तय किया कि देंग की राह छोड़ी जाए और माओ के रास्ते पर चला जाए.

इसलिए, उन्हें पार्टी, राजनीतिक तंत्र और पीएलए, टेक्नॉलजी और वित्तीय संस्थानों जैसे सत्ता केंद्रों में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए अपने संभावित उत्तराधिकारियों और विरोधियों को साफ करना पड़ा, उसके लिए भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का बहाना तलाशना पड़ा.

इस मामले में कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस के अंतिम सत्र में शी के बगल में बैठे पूर्व राष्ट्रपति हू जिंताओ को जबरन बाहर ले जाने के दृश्य ने कड़ा संदेश दिया. आखिर, सर्वसत्तावाद के खिलाफ आखिरी योद्धा हू जिंताओ विकेंद्रीकरण प्रक्रिया का हिस्सा रहे हैं.

अब, सीसीपी में शी जिनपिंग का पूर्ण नियंत्रण लगता है. लेकिन सर्वसत्तावादी शासक और तानाशाह पर्सनाल्टी कल्ट और शेर की सवारी के खतरों से पूरी तरह वाकिफ होते हैं.

शी जिनपिंग ने पदभार ग्रहण करने के बाद अपनी टीम के साथ सबसे पहले यन्नान का दौरा किया, ताकि उन्हें पार्टी की आवश्यकता और महत्व के बारे में बताया जा सके, जिसे उन्होंने बेरहमी से पीछे ढकेल दिया है.

यनान की गुफाओं के दौरे में, शी जिनपिंग ने कथित तौर पर 7वीं पार्टी कांग्रेस, 1945 के प्रस्ताव और चेयरमैन माओ के नेतृत्व में आखिरी लड़ाई के बारे में लंबा व्याख्यान दिया.

सार-संक्षेप वही था, जो माओ ने पार्टी के बारे में कहा था, पार्टी पर लोग नज़र रखेंगे. शी ने कथित तौर पर कहा, ‘इससे संकेत मिलता है कि पार्टी अपनी राजनीति, अपनी विचारधारा और अपने संगठन में परिपक्वता की ओर बढ़ गई है.’

यानी स्टैंडिंग कमेटी के सदस्यों और सीसीपी के लिए संकेत यही है कि पार्टी महासचिव, देश के राष्ट्रपति और सैन्य आयोग के प्रमुख शी जिनपिंग नए चीन के नए माओ हैं.

बाइबिल की कहावत (जो तलवार उठाता है, वह तलवार से नष्ट हो जाएगा) की तरह चीन में कहावत होगी ‘जो पार्टी को मारते हैं, वे पार्टी द्वारा मारे जाते हैं.’


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दिल्ली की बाजी

आर्थिक मोर्चे पर, चीन को समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि नई टीम में कोई नामी अर्थशास्त्री नहीं है, जो उभरती स्थितियों से निबट सके, और भारी बंदिशों वाली शून्य-कोविड नीति के साथ उत्पादन व्यवस्था का तालमेल बिठा सके. चीन की औद्योगिक नीति के तहत कई प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में कहीं अधिक खर्च किया गया, जो 2019 में जीडीपी का कम से कम 1.73 प्रतिशत या क्रय शक्ति के संदर्भ में $400 अरब डॉलर से अधिक था. यह 2019 में चीन के रक्षा खर्च से अधिक है. महामारी के बाद धीमी गति से बहाली और यूक्रेन युद्ध ने चीन की अधिकांश ग्राहक अर्थव्यवस्थाओं को खर्च में कटौती करने पर मजबूर किया है, शायद भारत अपवाद है.

गलवान संघर्ष और कोविड महामारी ने भारत को बीजिंग के साथ अपने आर्थिक संबंधों पर गंभीरता से पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया है. अप्रैल-अगस्त 2022 के दौरान चीन को भारत के लौह अयस्क निर्यात में लगभग 1.5 अरब डॉलर, कपास के निर्यात में 70 करोड़ डॉलर और कुछ धातुओं, प्लास्टिक और कागज के निर्यात में उल्लेखनीय गिरावट आई. भारत ने घरेलू उत्पादकों पर दबाव कम करने और कीमतों को स्थिर करने के लिए लौह और इस्पात इनपुट पर 15-45 प्रतिशत तक निर्यात शुल्क लगाया, जिसका निर्यात पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा.

पश्चिम की विकसित अर्थव्यवस्थाएं देर-सबेर बीजिंग के साथ जुड़ाव के अपने स्वतंत्र और सामूहिक मानकों में बदलाव करेंगी. उत्पादन केंद्र की आवश्यकता पैदा होगी. नई दिल्ली को अपनी आर्थिक नीतियों को फिर से जांचना चाहिए लेकिन हमेशा सतर्क और हर आपात स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए.

(लेखक ‘ऑर्गनाइजर’ के पूर्व संपादक हैं. जिनका ट्विटर हैंडल @seshadrichari है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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