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12th Fail उम्मीद तो जगाती है लेकिन फिल्म को खुरचिए सच्चाई सतह के नीचे दबी पड़ी है

विक्रांत मैसी जो किरदार इस फिल्म में निभा रहे हैं वह संघर्ष और प्रिविलेज यानी बिना मेहमत के मिले विशेषाधिकारों के असर का घालमेल कर दिया गया है, पता नहीं चलता कि जो हो रहा है वह संघर्ष है या प्रिविलेज.

12वीं फेल के एक दृश्य में विक्रांत मैसी/ फोटो: विशेष व्यवस्था
12वीं फेल के एक दृश्य में विक्रांत मैसी/ फोटो: विशेष व्यवस्था

सिनेमा, कला, किताबें, गाने ये सब समाज के दर्पण हैं. इनका असर दोतरफा है. ये सब समाज से प्रभावित हैं.पर इन सब माध्यमों का असर समाज पर भी पड़ता है. खासकर सिनेमा का क्योंकि इसके दर्शक ज्यादा हैं और लोग अक्सर इसमें दिखाई गई बातों को सच मान लेते हैं. फिल्मों का फैशन और विचारों पर गहरा असर पड़ता है.

इस बात को ध्यान में रखते हुए हाल में आई फिल्म 12th Fail पर एक समाजशास्त्रीय नजर डालते हैं. ये फिल्म पहली नजर में गरीबी से उबरकर ऊंचाई छूने और संघर्ष करके कामयाबी हासिल करने की कहानी लगती है, जिसमें हिंदी मीडियम का एक स्टूडेंट तमाम बाधाएं पार करके आईएएस अफसर बनता है. ये उत्साह और जोश बढ़ाने वाली फिल्म है, जो उम्मीद जगाती है. इसमें ये भी दिखाया गया है कि प्रेम किस तरह से कुछ कर दिखाने का जज्बा पैदा कर सकता है. ये फिल्म हार नहीं मानूंगा का संदेश देती है.


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विशेषाधिकारों की भूमिका

लेकिन ये फिल्म को देखने का बेहद सतही तरीका है. इसे सतह को खुरचकर देखें तो पता चलेगा कि सत्य सतह के नीचे दबा पड़ा है और बेहद उलझा हुआ है. इस लेख में ये देखने की कोशिश की जाएगी कि फिल्म के नायक मनोज शर्मा की यात्रा में जन्मों से मिले, अनर्जित विशेषाधिकारों यानी प्रिविलेज ने किस तरह भूमिका निभाई है और अगर वे न होते तो उनके लिए वे तमाम दरवाजे इतनी आसानी से न खुलते.

मनोज शर्मा के जीवन संघर्ष में उनके साथ एक सपोर्ट सिस्टम साथ चल रहा था. संसाधनों की एक पूरी पोटली लगातार उनके कंधों से झूल रही थी, जिसमें से वे समय समय पर काम की चीजें निकाल रहे थे. उनकी यात्रा इन संसाधनों और विशेषाधिकारों के बिना शायद वैसी शानदार न होती. साथ ही यहां ये कहना जरूरी है कि देश की अधिकांश आबादी के पास वे विशेषाधिकार नहीं हैं, इसलिए कोई युवा अगर सोचता है कि दिल्ली आने के बाद सब कुछ इतनी ही सरलता से हो जाएगा, तो इसे उसका भ्रम ही माना जाएगा.

मैं यहां स्टूडेंट मनोज शर्मा के कुछ विशेषाधिकारों की लिस्ट पेश कर रहा हूं.

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1. दिल्ली आने से पहले मनोज शर्मा जब चंबल अंचल में एक गांव में रहते हैं तो उनका और उनके भाई का स्थानीय विधायक के लोगों से झगड़ा हो जाता है. हिरासत में लिए जाने के बाद दोनों का पुलिस से विवाद हो जाता है और मनोज भागकर रात में ही डीएसपी के सरकारी आवास के अहाते में घुस जाते हैं और डीएसपी को ललकारते हुए सिस्टम को बुरा भला कहने लगते हैं. आश्चर्यजनक रूप से डीएसपी, मनोज को लेकर थाने पहुंचते हैं और दोनों को रिहा करा देते हैं. वर्तमान व्यवस्था में ये लगभग असंभव बात है. अब ये समझने का बात है कि शर्मा के मामले में ये कैसे संभव हुआ और ये भी समझना होगा कि डीएसपी के घर में रात में घुस जाने का आत्मविश्वास कहीं उस जातीय पृष्ठभूमि के कारण तो नहीं है, जहां से मनोज शर्मा आते हैं.

2. इस फिल्म को कई समीक्षक गरीब के संघर्ष के रूप में देख रहे हैं. पर ये कतई गरीब परिवार नहीं है. मनोज के दादा फौज में जूनियर कमीशंड अफसर थे. दादी को पेंशन मिलती है. पिता सरकारी कर्मचारी थे, जिन्हें नौकरी से निकाल दिया गया था और वे आरोपों के खिलाफ हाई कोर्ट में केस लड़ रहे हैं. फिल्म में दिखाया गया है कि उनके पास जमीन और गायें भी हैं. यानी यह बीपीएल परिवार से आईएएस बनने की ड्रीम स्टोरी नहीं है. कुल मिलाकर इसे एक मिडिल क्लास परिवार ही कहा जाएगा.

3. ये बात भी चौंकाती ही है कि मनोज ही नहीं, पूरे परिवार को भरोसा है कि 12वीं पास करते ही मनोज को सरकारी नौकरी लग जाएगी. पता नहीं इस आत्मविश्वास का कारण क्या है. ये 1980-1990 के दशक की कहानी है और तब 12वीं पास करने पर नौकरी लग जाने का इतना भरोसा होना स्वाभाविक नहीं है क्योंकि तब तक नौकरियो के लिए मारामारी शुरू हो चुकी थी. इस आत्मविश्वास का कारण कौन सा विशेषाधिकार रहा होगा, ये फिल्म देखने से पता नहीं चलता.

4. जब मनोज प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने ग्वालियर से आता है और रास्ते में उसका रुपया और सामान चोरी हो जाता है तो वह एक होटल में खाना मांगता है और उसे बाकायदा टेबल-कुर्सी पर बिठाकर मुफ्त खाना खिलाया जाता है. क्या ये आपको स्वाभाविक लगता है? वहीं उसकी मुलाकात श्रीमान पांडे से होती है जो मनोज शर्मा को अपने खर्च पर दिल्ली ले जाते हैं. इतने सारे सुखद संयोग हर किसी के जीवन में नहीं होते.

5. गौरी भैया मनोज की जिंदगी में देवता की तरह आते हैं. वे खुद कैंडिडेट हैं, पर बाकी लोगों को फ्री कोचिंग देते हैं. मनोज को वे अपनी शागिर्दी में ले लेते हैं. आगे चलकर मनोज के लिए वे अपना कमरा छोड़ देते हैं और उसे चौबीस घंटे वाला एक सहायक भी उपलब्ध करा देते हैं. ये भी एक दिलचस्प संयोग है जो मनोज शर्मा के जीवन में होता है, लेकिन कितने लोगों के जीवन में ऐसे संयोग होते हैं. और फिर किन लोगों के जीवन में लगातार संयोग होते ही रहते हैं. क्या इसे किसी तरह के प्रिविलेज या विशेषाधिकार का नतीजा माना जा सकता है? गौरी भैया का चरित्र सिर्फ इसलिए खड़ा किया गया है ताकि ये बताया जा सके कि मनोज का संघर्ष कितना महान है क्योंकि गौरी भैया को छह और मनोज का चार अटैंप्ट मिलने हैं.

6. मनोज शर्मा और श्रद्धा जोशी की प्रेम कहानी मसाला फिल्मों की तरह ही है. हिंदी फिल्मों में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि प्रेम एक ही जाति के लोगों के बीच कराया जाए, ताकि शादी में दिक्कत न हो. श्रद्धा के पिता भी कुछ समय ना नुकुर करके मान ही जाते हैं. आखिर लड़का सिविल सर्विस का इंटरव्यू जो देने वाला है और बिरादरी का भी है.

7. दिल्ली के एक नामी कोचिंग इंस्टीट्यूट में गरीब मनोज एडमिशन ले लेता है. ये भी संयोग ही है.

8. मनोज शर्मा जब मेंस में फेल हो जाता है तो करियर गाइडेंस लेने सीधे पिछले आईएएस टॉपर, जो अब बड़े अफसर हैं, के पास चला जाता है. यही नहीं, अफसर जबरन घुस आए एक युवा को बिठाकर बात करते हैं और जरूरी बात समझा भी देते हैं. ये किस प्रिविलेज के कारण हुआ होगा, ये हम समझ सकते हैं. पर इसे मनोज शर्मा के संघर्ष की तरह दिखाया गया है.

9. मनोज शर्मा का यूपीएससी का इंटरव्यू बेहद नाटकीय और सनसनीखेज है. इंटरव्यू लेने वाले उसके जवाबों को सुनकर उसे बाहर कर देते हैं. फिर उनमें से एक हस्तक्षेप करती हैं और मनोज को दोबारा बुलाया जाता है, उसकी कहानी सुनी जाती है और उसका सलेक्शन हो जाता है. ये हर किसी के साथ घटित होने वाला संयोग नहीं है. जिस तरह यूपीएसएसी इंटरव्यू में वंचित वर्गों को नंबर देने का पैटर्न है, उसे देखते हुए मुझे नही लगता कि ऐसा संयोग एससी, एसटी या ओबीसी कैंडिडेट के साथ हो सकता है.

10. हिंदी के कैडिडेट बेशक इंग्लिश मीडियम कैंडिडेट से कमतर माने जाते हैं, पर अन्य भारतीय भाषाओं के मुकाबले उन्हें बढ़त हासिल होती है. दिल्ली में इंटरव्यू होने की वजह से या संरचनात्मक कारणों से बोर्ड में हिंदी जानने वाले ज्यादा होते हैं. इसलिए मनोज शर्मा की बात सुन ली गई. लेकिन वे अगर तमिल, तेलुगू या कन्नड़ या ओड़िया ही बोलते तो उनकी कहानी कौन सुनता?

दरअसल इस फिल्म में संघर्ष और प्रिविलेज यानी बिना मेहमत के मिले विशेषाधिकारों के असर का घालमेल कर दिया गया है. अक्सर पता नहीं चलता कि जो हो रहा है वह संघर्ष है या प्रिविलेज.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका एक्स हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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