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विजय गोखले की नियुक्ति का मतलब: नहीं झुकेगा भारत आक्रामक चीन के सामने

विजय गोखले भारत के विदेश मंत्रालय में चीन के जानकारों की नई पीढ़ी के हैं, जो बीजिंग में हो रहे बदलावों की समझ रखती है और सीधा रवैया अपनाने में यकीन रखती है.

विदेश सचिव के पद पर विजय गोखले की नियुक्ति चीन के प्रति भारत के रुख में महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत देती है, उस बदलाव का जिसने डोकलाम में चीनी सैनिकों से निबटने के भारत के फैसले का खुलासा किया. उस समय गोखले बीजिंग में भारत के राजदूत थे और उन्होंने बातचीत करके यह व्यवस्था करवाई थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब ‘ब्रिक्स’ सम्मेलन के लिए झियामेन के दौरे पर हैं उससे पहले डाकलाम से सैनिकों की वापसी हो जाए. उस समय उन्होंने अपने चीनी वार्ताकारों के साथ दर्जनभर से ज्यादा बैठकें की थीं.

गोखले शायद उन चंद लोगों में थे जिन्हें इसका पूर्वाभास तभी हो गया था जब 2008-09 में वे संयुक्त सचिव थे और चीनी मामलों के प्रभारी थे. उस समय विदेश सचिव पद से विदा हो रहे एस. जयशंकर को चीन का राजदूत बनाया गया था. बीजिंग से निबटने को लेकर दोने के विचार काफी मिलते थे. उनके विचार भारतीय विदेश सेवा (आइएफएस) के उन आला राजनयिकों से बहुत नहीं मिलते थे, जो चीनी भाषा बोलते हैं और चीनी मामलों के विशेषज्ञ माने जाते हैं. इनमें पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन और पूर्व विदेश सचिव श्याम शरण शामिल हैं.

जयशंकर के विपरीत गोखले भी चीनी भाषा बोलने वाले भारतीय राजनयिकों के समूह के हैं मगर कुछ अलग विचार रखते हैं. वे सरकार में गहराई में जाकर काम करते रहे हैं, सार्वजनिक तौर पर काफी कम बोलते हैं लेकिन आइएफएस के आंतरिक दायरे में उन्होंने एक नई लाइन बनाई है. वे चीनी मामलों के विशेषज्ञों की नई पीढ़ी के हैं, जो यह रेखांकित करना चाहती है कि कई स्तरों पर सूक्ष्म वार्ताओं के जरिए बीजिंग से निबटने की पुरानी शैली अब बहुत काम की नहीं रह गई है.

इन लोगों का मानना है कि चीन अब डेंग श्याओ पिंग और जियांग जेमिन वाले दौर वाला चीन नहीं रह गया है. और हू जिनताओं के दौर में जो बदलाव आया, भले ही उस समय के प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ के हाव-भाव ज्यादा स्वीकार्य थे, उस बदलाव के कारण अब उससे ज्यादा सीधे संवाद की जरूरत होगी. नया चीनी राष्ट्रवाद चाहता है कि उसके वर्चस्व को दुनिया स्वीकार करे. इस राष्ट्रवाद ने उसे जापान और दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में ज्यादा आक्रामक नीति अपनाने की ओर प्रवृत्त किया.

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गोखले और गौतम बंबावाले (बीजिंग में भारत के वर्तमान राजदूत) जैसे विशेषज्ञों ने इस धारणा को चुनौती दी है कि भारत अगर अपनी चाले ठीक से चलें तो इस स्थिति से बच सकता है. उनके विचार से यह बस चंद समय की बात है क्योंकि बदलाव बुनियादी है. इसलिए भारत को अपनी स्थिति एकदम साफ रखनी चाहिए और कोई अस्पषटता नहीं छोड़नी चाहिए.

पुराना रुख यह होता कि वास्तविक नियंत्रण रेखा के अतिक्रमणों पर भारत चुप रहे. लेकिन 2013 में जब डेप्सांग संकट उभरा तब तक आकर चुनौतियों ने तीखा राजनीतिक रंग ले लिया. स्थिति और बिगड़ने ही वाली थी. इसके बाद चुमार और फिर डोकलाम संकट के साथ ही चीनी दावेदारी जोर पकड़ने लगी. इसने नई दिल्ली में एकदम नए विचार को जन्म दिया. गोखले ने, जो 2010 तक मुख्यतः चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया में काम कर रहे थे, इन संकटों के दौरान खुद को जर्मनी में पाया.

जयशंकर के विदेश सचिव बनने के बाद गोखले को बीजिंग में राजदूत बनाकर भेजना उनमें सरकार के भरोसे का प्रमाण था. दूसरे चीन विशेषज्ञ बंबावाले को उस समय पाकिस्तान भेजा गया था. अब गोखले जब मुख्यालय में लौट आए हैं और उन्हें विदेश सचिव बनाया जा रहा है, तो बंबावाले को बीजिंग भेजा गया है.

स्पष्ट है कि चीन को लेकर जो एक नई व्यवस्था आकार ले रही थी वह अब साउथ ब्लॉक में ठीक से जम गई है और पुरानी लाइन को बदलने में लगी है. हालांकि कई लोग कहेंगे कि उस लाइन ने अभी भी हार नहीं मानी है.

प्रणब धल सामंता दिप्रिंट के एडिटर हैं.

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