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प्रेस की आज़ादी के लिए साथ लड़ो या मरो : भारतीय पत्रकारों के लिए मुश्किलों से भरा बैलेंस

Journalists
रेप्रेसेंटेशनल फोटो| गेट्टी

मीडिया एक-दूसरे से असहमत हो सकती है, लड़-झगड़ सकती है और आलोचना कर सकती है। लेकिन यह तभी बची रह सकती है और पनप सकती है जब ये सब मतभेद भुलाकर एक होकर रहे, खासकर तब जब इसके प्रमुख सिद्धांतों पर हमले हो रहे हों|

िछले 50 वर्षों में, भारत में बहुमत वाले तीन पूर्णकालिक शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों को देखा गया है। उनमें से पहली इंदिरा गाँधी थीं, जो 1971 में अपनी अवधि के दौरान पूर्ण-बहुमत के साथ जनता के बीच छा गईं। 1984 में, दूसरे राजीव गाँधी थे। इसी तरह हमारे पास तीसरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, जो अपने कार्यकाल के 5वें साल में बस प्रवेश करने ही जा रहे हैं।

आप इन तीनों सरकारों के बीच एक बात के बारे में सोचिए, जो आपको सामान्य लग सकती है।
मैं आपको “फ़ोन ए फ्रैंड” वाला एक संकेत देता हूँ। उस बारे में सोचिये जो इन सभी ने अपने कार्यकाल के आखिरी वर्ष में करने का प्रयास किया है|

अभी भी सोच रहे हैं? ये रहा दूसरा संकेत। एक पत्रकार की तरह सोचिए।

तथ्यः– इनमें से प्रत्येक ने अपने अंतिम वर्ष में मीडिया को निशाना बनाया है। इंदिरा गाँधी, अपने कार्यकाल के ठीक पाँचवे वर्ष की शुरुआत में सेंसरशिप लेकर आईं (बाद में उन्होंने अपने आपको 6 वर्ष के कार्यकाल का उपहार देने के लिए उस संसद की अवधि एक वर्ष बढ़ा दी)। उन्होंने मीडिया पर निशाना साधते हुए कहा था कि भारत को अस्थिर करने के लिए एक “विदेशी हाथ” द्वारा प्रेस को निहित स्वार्थों का लालच देकर नियंत्रित किया गया था इसलिए प्रेस नकारात्मकता और मानवद्वेषवाद फैला रहा था।

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

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राजीव गाँधी ने जैसे ही अपने अंतिम वर्ष में प्रवेश किया वैसे ही वह तथाकथित एंटी डिफेमेशन बिल (मानहानि विरोधी विधेयक) लेकर आए। वह बोफोर्स, जेल सिंह की चुनौती, वी. पी. सिंह का विद्रोह और भी कई मुद्दों के साथ घेरे में लिए गए और उन्होंने इसके लिए प्रेस को दोषी ठहराया। लेकिन वह भी विफल रहे।

अब मोदी सरकार ने “फेक न्यूज” से लड़ाई के बहाने मुख्यधारा की मीडिया पर एक चाल चली है। इसे उसी नाटकीय रूप से वापस लिया गया जिस नाटकीय रूप से इसकी घोषणा की गयी। सरकार अभी भी असंतृप्त है। जैसे कि एक संकेत ये कि डिजिटल मीडिया के लिए शासन के मानदंडों के निर्माण लिए एक समिति के संविधान द्वारा वापस ली गयी प्रेस विज्ञप्ति का अनुगमन किया गया। तर्क यह दिया है कि दोनों प्रिंट और ब्राडकास्ट के पास उनके नियामक हैं (क्रमशः प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्डस अथॉरिटी) लेकिन अव्यवस्थित नए डिजिटल मीडिया के पास कोई भी नियामक नहीं है। इसे स्वायत्य शून्य में कार्य करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।

पत्रकारिता के सिद्धांतों में सबसे पुराना है “थ्री-एक्साम्पल रूल”. यदि आप एक ही बिंदु तक पहुचाने वाले तीन तथ्यों को पाते हैं, तो यह एक सीधी रेखा के सूत्र को पूरा करता है|

इसलिए हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि वास्तव में शक्तिशाली सरकारों के कार्यकाल के आखिरी वर्ष में कुछ ऐसा होता है जो उन्हें संदेशवाहकों का आखेट करने का विचार देता है| क्यों? ये कुल मिलाकर एक अलग बहस है, किसी और दिन के लिए| यद्यपि, संभवतः वे अपने अगले कार्यकाल के बारे में बढती हुई असुरक्षा, जिसे उन्होंने हल्के में ले लिया था, को संभाल नहीं सकते हैं|

1975 की शुरुआत से हम जानते हैं कि 20% से अधिक मुद्रास्फीति और जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के साथ इंदिरा पतन पर थीं| हम ये विश्वास करने में भ्रम का शिकार हो जायेंगे कि मतदाताओं ने उन्हें प्रेस सेंसरशिप के लिए दण्ड दिया| यदि उन्होंने बलपूर्वक नसबंदी जैसी भारी भूल नहीं की थी, तो आपातकाल का अनुशासन काफी लोकप्रिय था! लेकिन हार और प्रतिद्वंदियों के उदय के बाद वो जेल गयीं, एक सामाजिक अनुबंध विकसित हुआ जिससे सार्वजनिक सम्मति ने सेंसरशिप की राक्षसता को स्वीकार किया और प्रेस स्वतंत्रता में हिस्सेदारी ली| एक देश, जहाँ प्रेस स्वतंत्रता की प्रत्याभूति के लिए कोई भी विशिष्ट नियम नहीं है, के लिए एक बड़ा बदलाव था| आपातकाल के साथ अपनी सहभागिता पर पश्चाताप के साथ उच्चतम न्यायलय ने भी दशकों से इस सामाजिक अनुबंध को एक न्यायिक मेरुदंड प्रदान किया है| प्रेस को नियंत्रित करने का इंदिरा गाँधी का ये खेल उन्हीं के लिए प्रतिकूल बन गया|

राजीव गाँधी ने भी अपने पतन के लिए मीडिया पर आरोप लगाने का प्रयास किया था और उनकी माँ की ही तरह उन पर भी ये दांव उल्टा पड़ गया| उच्च भारतीय संपादकों और यहाँ तक कि मालिकों ने भी अपने प्रतिद्वंदियों को भुला दिया और आपातकाल के दौरान खो चुकी एकजुटता को दर्शाने वाले पोस्टरों के साथ राजपथ पर विरोध प्रदर्शन करने उतर गये| राजीव पीछे हट गये लेकिन इस प्रक्रिया में भारत ने मीडिया की नयी एकजुटता और अपनी स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्धता को देखा था, इससे इसे प्रशंसा भी मिली|

क्तिशाली और पूर्णबहुमत वाली सरकारों द्वारा मीडिया का गला घोंटने के लिए किये गये ये सभी बड़े प्रयास वास्तव में विपरीततः मीडिया को मजबूत करने के साथ समाप्त हो गये| क्या ये इस बार भी होगा? क्या एक नया थ्री-एक्साम्पल रूल हरकत में आएगा और ये सिद्ध करेगा कि कुपित सरकारें मीडिया का गला घोटने में हमेशा नाकाम रहेंगीं|

बीजेपी सरकार जैसे ही अपने अंतिम वर्ष में प्रवेश करती है, इनके सामने बहुत सारी चुनौतियाँ हैं। लेकिन ये उन अस्तित्व सम्बन्धी संकटों की तुलना में कुछ भी नहीं है, जिनका सामना पिछली दो सरकारों ने किया था। भारतीय मीडिया अब बहुत बड़ी, अधिक शक्तिशाली, लोकप्रिय, समृद्ध और भिन्न प्रकार की हो गई है। लेकिन आज कुछ मजबूत नकारात्मक तथ्य सामने हैं। पहला, जिस सामाजिक अनुबंध के बारे में हमने बात की थी वह बिगड़ रहा है, जिसके बारे में मैं पहले भी चिंतित रहा हूँ। दूसरा है, मीडिया अब अधिक विभाजित है। इसमें हमेशा विचारधाराओं और विचारों का विभाजन था, जैसा कि एक सभ्य लोकतंत्र में होना भी चाहिए। आज, यह प्लेटफार्मों के आधार पर भी विभाजित है। यह वहां दरारें पैदा करता है जहाँ एक दृढ़ प्रतिष्ठान झगडे को ख़त्म कर सकता है। सरकार इन दरारों पर धारदार चाकू चलाकर जांच कर रही है। निश्चित रूप से एक बड़ा झटका लगेगा, जब ये दरारें चौड़ी हो जाएंगी।

लाइनों के बीच पढ़ें जहाँ सरकार का कहना है कि प्रिंट और प्रसारण मीडिया के पास उनकी शासन प्रणाली है, लेकिन डिजिटल मीडिया के पास नहीं है। यह योजना मीडिया समुदाय को एक-एक करके कम करने की है। यह कैसे काम करेगा, या शायद नहीं करेगा, बहस के लायक है। सबसे पहले, विरासती मीडिया हाउस, जिनमें तीनों प्लेटफार्मों- प्रिंट, प्रसारण और डिजिटल पर काम करने वाले कई लोग शामिल हैं, सोच सकते हैं कि यह उन्हें परेशान नहीं करता, क्योंकि वे अपने खुद के संबंधित “सिस्टम” द्वारा फंसे हैं। तो डिजिटल मीडिया का भी नया उत्थान होने दें जिसके वे हकदार हैं। यह बहुत ही आकर्षक होगा, क्योंकि कई शक्तिशाली विरासती मीडिया उत्तेजित हो रही है, जो वे (कुछ हद तक औचित्य के साथ) डिजिटल खिलाडियों द्वारा तुच्छ, समझौता करने वाले, भ्रष्ट और अक्षम होने पर विरासती मीडिया का मजाक उड़ाने के प्रयास के रूप में देखते हैं|

सके विपरीत, कई नए डिजिटल खिलाड़ियों का मानना है कि इंटरनेट को विनियमित करना असंभव है, इसलिए सरकार को सिर्फ यह बता दो की हट जाओ। वास्तविक दुनिया में इस तरह काम नहीं होता। एक सरकार बस अधिसूचना जारी कर सकती है और लाइसेंसिंग के समकक्ष या इससे भी निणन नियम ला सकती है। आज इंटरनेट एक संप्रभु गणराज्य और वैश्विक मनोदशा नहीं, खासकर अत्यन्त उदार समुदाय में, जहाँ इसे नियंत्रित करना है। जब ऐसा होता है तो याद रखो, आप इससे अकेले लड़ने में सक्षम नहीं होंगे।

याद रखना, जब ऐसा होता है तब आप अकेले लड़ाई करने में सक्षम नहीं होंगे। आपको उसी विरासती मीडिया की आवश्यकता होगी जिसे आप घृणित और कमजोर कर रहे हैं। और इसकी विपरीतता भी एक सच है कि बिना किसी राजस्व प्रतिरुपों के साथ इन अभिमानी दावेदारों के लिए घुसपैठी संस्थाओं की अवमानना स्वयं को ही हराना होगा।
यह सप्ताह उत्तर प्रदेश के केन्द्र में उन्नाव तथा जम्मू और कश्मीर में कठुआ में होने वाली अन्यायपूर्ण भयानक कहानियों का प्रभुत्व रखने वाला था। दोनों जगहों पर राजनीतिक प्रतिष्ठान की उद्दंडता ने अन्याय को बढ़ावा दे दिया था। यह मुख्य रूप से सभी प्लेटफार्मों पर मीडिया द्वारा तारकीय कार्य के कारण हुआ, जिससे उल्टी गंगा बहने लगी। विपत्ति पड़ने पर आपको मीडिया की जरूरत है। यहाँ कोई मुख्यधारा, अनुप्रवाह, स्लिपस्ट्रीम वैशिष्ट्य या रंगभेद नहीं है।

हम एक-दूसरे का विरोध और प्रायः आलोचना करने के लिए विसंगत होंगे। हम पत्रकार ऐसे ही हैं (देवेगौड़ा जी हमें खेद है, आपके रूपक को चुराने के लिए)। जब प्रेस की आजादी पर हमले होते हैं, ये उन घटनाओं में से नहीं है| समीकरण क्रूर है| या तो आप सभी की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए एक साथ मिलकर लड़ें या तो एक एक करके कम होते जाएँ और नष्ट हो जाएँ। इसलिए अब दूसरे का न्याय न करें हालांकि आप उनकी पत्रकारिता से घृणा कर सकते हैं। आप अपनी स्वतंत्रता को तभी संरक्षित कर सकते हैं यदि आप अपने प्रतिद्वंद्वियों या वैचारिक विरोधियों के लिए भी लड़ाई करते हैं।

मैं आपातकाल के दौरान एक पत्रकारिता के छात्र के रूप में कहता हूं, वहां कार्यकाल के व्यापक अर्थ में काम किया और अब सभी तीनों आयामों में एक साथ काम करता हूँ। भारतीय संपादकीय श्रेणी की वार्षिक आम बैठक का यह कॉलम सुबह पर भी दिखाई देता है। मैं इस श्रमिक निकाय में अपर्याप्त समय के लिए दोषी लोगों में से एक रहा हूं, जो कि इसे बेकार समझते रहे हैं। मैं अभिमानी रूप से उपेक्षापूर्ण और गलत कर रहा था। हम पत्रकारों को अपनी सभी संस्थानों फिर चाहे वह पुरानी और नई ही क्यों न हो सभी को मजबूत बनाने की जरूरत है। यह समय हम सभी के मध्य पारस्परिक सम्मान और हमारे प्रमुख सिद्धांतों की रक्षा करने हेतु एकता के लिए है, भले ही हम अपनी बात को कहीं भी चाहे जैसे भी रखें परन्तु हम लोगों का मत एक जैसा ही होना चाहिए। क्योंकि, याद रखिए, स्वतंत्रता को ख़त्म नहीं किया जा सकता।

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