होम मत-विमत पंजाब नेशनल बैंक फ्रॉड: बैंकों में भारी अनुशासन की जरूरत

पंजाब नेशनल बैंक फ्रॉड: बैंकों में भारी अनुशासन की जरूरत

चित्रण। पिएलीडेजीन

समस्या उभरते ही सरकार पैसे फेंकने लगती है और सुधारों के आदेश जारी करने लगती है लेकिन सुधार होते नहीं या उनसे शायद कोई फर्क नहीं पड़ता.

जब आप किसी को पैसा उधार देते हैं तब एक आशंका तो यह रहती है कि वह वापस नहीं लौटेगा. अगर आप अपने लिए वित्तीय फैसले करने की छूट देते हैं तब वे इस अधिकार का दुरुपयोग भी कर सकते हैं. बैंक ये दोनों काम हमेशा करते रहते हैं. इसलिए उनके व्यवसाय का मूल यह है कि वे अपने जोखिमों का आकलन करते रहें और या तो उसके लिए सही कीमत (जोखिम वाले ग्राहकों के लिए ऊंची ब्याज दर) रखें या कदम वापस खींच ले (कर्ज दें ही नहीं). व्यवस्था, प्रक्रिया, जांच, सीमाओं, और सुरक्षा उपायों को लागू करके बैंक दूसरी तरह का जोखिम भी उठाते हैं (अधिकारों के दुरुपयोग का). इनके बावजूद गड़बड़ी हो सकती है क्योंकि जोखिम कम तो होता है, खत्म नहीं होता. विस्तृत नियमों, ऑडिटरों, इंस्पेक्टरों, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों, बोंण्ड मार्केट के संकेतों, इक्विटी के विश्लेषण आदि का सुपरस्ट्रक्चर बैंकों को इस काम में मदद करता है. इन सबके बावजूद जिन बैंकों को आगे बढ़ने में मुश्किल होती है तो इसका मतलब यह है कि उनका प्रबंधन खराब है या व्यवस्था खराब है या दोनों खराब हैं. और जब भारी गड़बड़ियां बार-बार होती रहें तो व्यवसाय पहले जैसा नहीं रह जाता.

इस व्यवस्था में 70 प्रतिशत से ज्यादा भागीदारी सरकारी बैंकों की ही है इसलिए आप अपेक्षा करेंगे कि इसमें अधिकांश समस्या की जिम्मेदारी वे ही लेंगे. वास्तविकता यह है कि समस्याओं में उनकी भागीदारी का अनुपात काफी बिगड़ा हुआ है. निजी और विदेशी बैंकों की भी अपनी समस्याएं हैं लेकिन वे काफी छोटे पैमाने पर हैं. वैसे भी वे अपना व्यवसाय चलाने के लिए जन संसाधनों का उपयोग नहीं करते. ऐसा लगता है कि सरकारी बैंकों को यह पता नहीं है कि पैसा कर्ज में कैसे दिया जाए, किसे दिया जाए; और यह कि दिए गए कुल कर्ज में खराब कर्ज का उनका अनुपात निजी बैंकों के इस अनुपात का तीन गुना नहीं है. पंजाब नेशनल बैंक में व्यवस्था तथा सुरक्षा उपायों की विफलता का जो सबसे ताजा प्रमाण मिला है उसके बाद ‘सुधारों’ के बारे में धारणाएं बदल जानी चाहिए.

समस्या उभरते ही सरकार पैसे फेंकने लगती है और सुधारों के आदेश जारी करने लगती है लेकिन सुधार होते नहीं या उनसे शायद कोई फर्क नहीं पड़ता. 2015 में घोषित ‘इंद्रधनुष’ योजना के बारे में माना जाता था कि यह बहुमुखी सात सूत्री सुधार योजना साबित होगी. इसमें बैंकों का एक बोर्ड ब्यूरो (क्या इसके बारे में आपने इधर कुछ सुना है?) बनाने, निजी क्षेत्र से मैनेजरों को शामिल करने आदि के विचार समाहित किए गए थे. लेकिन महज दो साल में घटनाएं योजनाओं पर हावी हो गई हैं. अब हमारे पास कहीं ज्यादा पैसे के लिए ज्यादा बड़ी योजना है और सुधारों के नाम पर नई घंटियां और सीटियां हैं. कहा जा रहा है कि इस बार पैकेज कारगर साबित होगा. उम्मीद की जाए कि यह सच साबित होगा. लेकिन किसी ने कहा कि एक ही काम को बार-बार करना और अलगअलग नतीजों की उम्मीद करना पागलपन ही है.

इस बीच, समस्या विकराल होती जा रही है, तो नुस्खे भी बड़े होते जा रहे हैं. मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार ने सरकारी बैंकों के लिए नई पूंजी के तौर पर 600 अरब रु. दिए थे. 2015 में मोदी सरकार ने अतिरिक्त 700 अरब रु. देने की घोषणा की, जिसमें से 500 अरब दिए जा चुके हैं. पांच महीने पहले सरकार ने इस साल और अगले साल 1.35 खरब रु. देने क घोषणा की (बाजार से और ज्यादा पैसे उगाहे जाएंगे). इस तरह एक दशक में बैंक सरकार से 2.65 खरब रु. की अतिरिक्त पूंजी उगाह लेंगे. इसमें से आधी से ज्यादा रकम पहले ही भुगतान की जा चुकी है. तो अनुमान लगाइए कि सबसे मजबूत भारतीय स्टेट बैंक को अगर छोड़ दें तो आज इन बैंकों का बाजार मूल्य क्या होगा. 2 खरब रु. से ज्यादा यानी मोटे तौर पर निजी क्षेत्र के आइसीआइसीआइ जैसे एक बैंक के बराबर.

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यह भारी पैमाने पर मूल्य ह्रास है और सार्वजनिक पैसे का दुरुपयोग है, जिसे बेहतर काम में लगाया जा सकता था- मसलन स्वास्थ्य सेवा के कार्यक्रमों में. अनुभव बताता है कि बैंकरों के लिए विस्तृत नौकरशाही नियमों के मुकाबले दिवालियेपन की नई संहिता सरीखे बाजार आधारित सुधार के सफल होने की ज्यादा संभावना हैं. सरकार कुछ बैंकों के लिए उपयुक्त निजी मालिकों की तलाश करे, व्यवस्था में निजी बैंकिंग व्यवस्था की हिस्सेदारी बढ़ाए, और तब बाकी बचे सरकारी बैंकों से कहे कि वे बाजार के अनुशासन का पालन करें, प्रतिस्पर्धा करें या बेमानी होकर रह जाए.

(खुलासा: बिजनेस स्टैंडर्ड के स्वामित्व में उन लोगों के हाथ में है जो कोटक महिंद्रा बैंक के भी आंशिक मालिक है).

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