होम मत-विमत चिंता चीन के उत्कर्ष की नहीं, अमेरिका की गिरावट की करें

चिंता चीन के उत्कर्ष की नहीं, अमेरिका की गिरावट की करें

चित्रण। पिएलीडेजीन

अमेरिका की दिन-ब-दिन बढ़ती अनिश्चितता चिंता का कारण बनती जा रही है, इसके पीछे है एक शख्स जो मनमाने फरमान जारी करता रहता है.

चीन के उत्कर्ष को संभालने की समस्या को लेकर हजारों लेख और सैकड़ों किताबें लिखी जा चुकी हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि ज्यादा गंभीर समस्या अमेरिका की गिरावट को संभालने की है. चीन को विश्व व्यवस्था के लिए खतरे के रूप में प्रस्तुत किया गया है और इसकी व्याख्याएं भी की गई हैं. उसे एक ऐसे देश के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो घरेलू या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी नियमों का पालन नहीं करता है, और जिसे ‘सामान्य’ हो जाना चाहिए मगर वह शायद ऐसा नहीं करेगा. इसलिए समस्या को इतिहास के एक खास नजरिए से देखा जाता है, एक शताब्दी पहले जर्मनी के उत्कर्ष और उसके नतीजों को संभालने में हुई विफलता के नजरिए से.

यह चश्मा बदलने और पूरे मामले को अलग नजरिए से देखने का समय है. दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और वर्चस्ववादी महाशक्ति अपनी गिरावट को थामने की जद्दोजहद कर रही है, हालांकि यह गिरावट अभी तुलनात्मक ही है, संपूर्ण नहीं. उस सीमित चुनौती का सामना करते हुए यह वह सब कुछ हो चुकी है, जो चीन के लिए मानी जाती थी- विश्व व्यवस्था के लिए खतरा बनना; व्यापार, मौसम परिवर्तन, अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं, और परमाणु संधियों के नियमों को न मानना. यह ‘विशिष्ट देश’ अपने आचरण के मामले में चिंताजनक स्तर तक अनिश्चितता प्रदर्शित करने लगा है, अपने चुनावी फैसले के मामले में भी. इस सबके केंद्र में है एक ऐसा शख्स, जो ऊंची कुर्सी के लिए तैयार नहीं दिखता, जो किसी महारानी की तरह हर किसी का ‘सिर’ मांगने लगता है. और जब वह ऐसा नहीं कर पाता तो व्यवस्था द्वारा बनाए गए निषेधों पर चोट करने लगता है. कोई नहीं जानता कि वह कब क्या कर बैठेगा- उत्तरी कोरिया के लिए या मेक्सिको के लिए. इसलिए अटकलें लगाइए कि जिनपिंग जब चीन के लिए निर्बाध शक्ति की तलाश करते हैं तो इसका क्या अर्थ हो सकता है. लेकिन कभी जो नियम बनाने वाले थे, वे नियम तोड़ने लगें तो क्या होगा?

गिरावट को संभालना कामयाबी को संभालने से ज्यादा मुश्किल होता है. कंपनियों को अपना आकार घटाना पड़ता है, कर्मचारिययों की छंटनी करनी पड़ती है, दिवालिया तक होना पड़ता है. इन सबका सुखद परिणाम शायद ही निकलता है, और न ही कॉरपोरेट हीरो इससे पैदा होते हैं. लेकिन जब मामला पूरी अर्थव्यवस्था का हो तब क्या? घरेलू स्तर पर, घाटे (अमेरिका के मामले में मैनुफैक्चरिंग) के भार का बंटवारा हमेशा अनुचित ढंग से होता है जिससे सामाजिक और राजनीतिक दबाव बढ़ते हैं. इससे ढांचे टूटते हैं और नए सवाल पैदा होते हैं. अगर अच्छे उपाय मिल जाते हैं तो व्यवस्था को नया संतुलन मिल जाता है. अगर नहीं नहीं मिले तो? हमें श्रीमान ट्रंप मिलते हैं. आर्थिक वर्चस्व कायम रखने की चाहत में पुराने बुरे उपाय अपनाए जाते हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, नियंत्रण निरंतर ढीला पड़ता जाता है, जैसा कि रोम के साथ हुआ. और तब वह होता है, जो आज हो रहा है. गिरावट रूस की तरह की चुनौतियां उभारती हैं.

गलतियों ने ही यहां तक पहुंचाया है. चीन को एक ऐसे देश के रूप में देखा गया कि समृद्धि आते ही और मध्यवर्ग के पनपने पर वह सामान्य हो जाएगा, यानी लोकतांत्रिक हो जाएगा. इस उम्मीद में उसे व्यापार में रियायतें दी गईं और अब वह अमेरिका को ही कुतरने लगा है. चीन ने चालाकी बरती, उसने ‘शांतिपूर्ण’ प्रगति का वादा किया लेकिन अब एक वर्चस्ववादी की तरह आचरण करने लगा है. यह उम्मीद के विपरीत का सामान्यीकरण है. ईरान को गलती से एक ऐसे देश के रूप में देखा गया, जो देश से ज्यादा ऊंचे मकसद को तवज्जो देता है, और उसके मामले में भी गलत तरीका अपनाया गया. इराक को लेकर तो भारी गड़बड़ी हुई ही. पश्चिम ने पच्चीस साल पहले अगर रूस के साथ समझौते का सम्मान किया होता या उसे अपने क्षेत्र में थोड़ी ज्यादा छूट देता तो वह ज्यादा सहयोगी रुख अपना सकता था. अक्खड़पन के कारण कंपनियं का जो हाल होता है, वही हाल देशों का भी होता है. एकध्रुवीय दुनिया के नशे में राजनयिक संयम को भुला दिया गया. विदेशी मामलें पर लिखे लेखों में सवाल उठाया जा रहा था कि अमेरिकी वर्चस्व में बुराई क्या है.

गिरावट का सामना केवल अमेरिका को ही नहीं करना पड़ रहा है. सऊदी अरब सरीखे सहयोगी देश को भी इसका सामना करना पड़ रहा है. तेल के बाजार पर अपनी पकड़ खोने के बाद उसे क्षेत्रीय स्तर पर ईरान से खतरा दिखने लगा है. सो, उसने पहला कदम यह उठाया कि तेल का उत्पादन काफी बढ़ा दिया और तेल बाजार पर पकड़ फिर पाने की कोशिश की लेकिन यह उलटा पड़ा. तकनीकी प्रगति के कारण तेल का वर्चस्व खतरे में पड़ रहा है, इसलिए सऊदी की समृद्धि का आसान रास्ता बंद होने को है. इसलिए उसने वर्षों से उपेक्षित सुधारों की कोशिश शुरू की लेकिन यह कोशिश वैसी ही थी जैसी वे देश करते हैं जिनके पास संस्थात्मक ताकत नहीं होती और वे परिवर्तन को लागू करना चाहते हैं. ऐसा ही गोर्बाचेव के साथ हुआ था जब उन्होंने सोवियत संघ की गिरावट को संभालने की कोशिश तो की मगर यह समझे बिना कि प्रस्तावित बदलावों का क्या परिणाम होगा. ऐसे में सफलता की गारंटी नहीं होती.

Exit mobile version