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त्रिपुरा के शाही वंशज प्रद्योत देबबर्मा ने ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ के लिए आंदोलन फिर से क्यों शुरू किया

मूल निवासी त्रिपुरियों (जिन्हें तिप्रासा या टिपरा के नाम से भी जाना जाता है) के लिए एक अलग राज्य की मांग में कुछ नया नहीं है, और 2009 से यह मांग कई बार उठाई जा चुकी है.

प्रद्योत देबबर्मा ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ के लिए दिल्ली में धरने पर | फोटो: प्रद्योत माणिक्य/ट्विटर

गुवाहाटी: त्रिपुरा के करीब 1500 लोगों का एक जत्था, जिसमें अधिकांश ने रंगबिरंगे पारंपरिक परिधान पहन रखे थे, इस माह के शुरू में त्रिपुरा के मूल निवासियों के लिए नए राज्य ग्रेटर टिपरालैंड की मांग को लेकर जंतर-मंतर पर तीन दिवसीय धरने के लिए दिल्ली में जुटा.

नए राज्य के लिए इस आंदोलन का नेतृत्व तिप्राहा स्वदेशी प्रगतिशील क्षेत्रीय गठबंधन (टीआईपीआरए, जिसे तिपरा मोथा भी कहा जाता है) और स्वदेशी पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) की तरफ से किया गया था.

दिल्ली में इस धरने में कांग्रेस, शिवसेना और आम आदमी पार्टी (आप) के नेता भी पहुंचे, जिन्होंने कहा कि वे केंद्र सरकार से ग्रेटर टिपरालैंड के गठन पर गंभीरता से ‘विचार’ करने को कहेंगे.

मूल निवासी त्रिपुरियों (जिन्हें तिप्रासा या टिपरा के नाम से भी जाना जाता है) के लिए अलग राज्य की मांग कोई नई बात नहीं है और इस बार आईपीएफटी की तरफ से उठाया जा चुका है. हालांकि, जब से इस संगठन ने राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा के साथ गठबंधन किया है, इन मांगों पर चुप्पी साध ली गई थी.

अब त्रिपुरा के पूर्व शाही परिवार के वंशज और टिपरा मोथा के अध्यक्ष प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा ने यह मुद्दा फिर से उठाया है और इस आंदोलन का नया चेहरा बन गए हैं.

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ग्रेटर टिपरालैंड की मांग मूलत: आजादी के बाद से त्रिपुरा में हुए भारी जनसांख्यिकीय बदलाव से जुड़ी है. प्रस्तावित राज्य में त्रिपुरा से इतर भी कुछ क्षेत्रों को इसमें शामिल करने की परिकल्पना की गई है.

कहां से उठ रही है यह मांग?

जमीनी स्तर पर हर तरफ से घिरा त्रिपुरा उत्तर, दक्षिण और पश्चिम में बांग्लादेश के साथ सीमाएं साझा करता है. यह राज्य कई बार बंगालियों के विस्थापन का गवाह बना है, 1947 में विभाजन के बाद सबसे बड़ी संख्या में विस्थापन हुआ और फिर 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के अलग होने और बांग्लादेश के गठन के समय.

आईओएसआर जर्नल ऑफ ह्यूमैनिटीज एंड सोशल साइंस में प्रकाशित 2019 के एक पेपर में शोधकर्ता गौरीश्वर चौधरी कहते हैं, ‘आदिवासी मूल निवासियों, जो 1874 में कुल आबादी में 64 फीसदी थे, की संख्या बाद की जनगणनाओं में लगातार घटती ही नजर आई…आदिवासियों को पहाड़ी क्षेत्रों की ओर धकेल दिया गया और राजनीति और प्रशासन पर बंगाली भाषी स्थानीय लोगों और प्रवासियों का वर्चस्व कायम हो गया.’

2011 की जनगणना के आंकड़ों बताते हैं कि त्रिपुरा की 19 अनुसूचित जनजातियों का अनुपात घटकर मात्र 31.78 प्रतिशत रह गया है.

जनसांख्यिकी में बदलाव के कारण कई आदिवासी संगठनों का गठन हुआ जिनकी तरफ से आत्मनिर्णय और संप्रभुता की मांग उठाई गई.

ऐसा ही एक समूह त्रिपुरा नेशनल वालंटियर्स (टीएनवी) था, जिसका गठन 1978 में नृपेन चक्रवर्ती के नेतृत्व में राज्य में पहली माकपा सरकार के सत्ता में आने के समय हुआ था. इस समूह ने त्रिपुरा को भारत से आजाद करने की मांग उठाई. लेकिन अंततः इसने अपने हथियार डाल दिए और मूल निवासियों की राष्ट्रवादी पार्टी के तौर पर खुद को एक नया रूप दिया.

1985 में त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद (टीटीएडीसी) को संविधान की छठी अनुसूची के तहत कार्यकारी और विधायी शक्तियां दी गईं, जिसका उद्देश्य जनजातीय क्षेत्रों को आंतरिक स्वायत्तता देना और लोगों को सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सुरक्षा प्रदान करना था.


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टीटीएडीसी, जिसे कभी-कभी ‘मिनी स्टेट असेंबली’ भी कहा जाता है, पर मौजूदा समय में त्रिपुरा के लगभग 70 प्रतिशत भूमि क्षेत्र का प्रशासन संभालने की जिम्मेदारी है, लेकिन कुछ क्षेत्रीय संगठनों का कहना है कि केवल अलग राज्य का दर्जा ही 19 त्रिपुरी जनजातियों के अधिकारों की रक्षा कर सकता है.

ग्रेटर टिपरालैंड है क्या और इसके लिए कौन लड़ रहा?

अलग टिपरालैंड की मांग सबसे पहले आईपीएफटी ने उठाई थी, जिसका गठन 2009 में आदिवासी विचारक एनसी देबबर्मा के नेतृत्व में हुआ था. इसके पीछे नजरिया टीटीएडीसी के तहत आने वाले क्षेत्रों को मिलाकर अलग राज्य बनाने का था.
हालांकि, ग्रेटर टिपरालैंड की नई मांग में न केवल टीटीएडीसी शासित क्षेत्रों, बल्कि आसपास के उन क्षेत्रों को भी शामिल किए जाने की बात कही जा रही है जहां त्रिपुरियों की अच्छी खासी आबादी है.

अलग राज्य के लिए आंदोलन पिछले कुछ वर्षों में रुक-रुक कर चलता रहा है, लेकिन प्रद्योत देबबर्मा—जो कुछ समय के लिए त्रिपुरा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे थे—की तरफ से फरवरी 2021 में एक राजनीतिक दल के तौर पर टीआईपीआरए या टिपरा मोथा (2019 में इसे एक सामाजिक संगठन के रूप में शुरू किया गया था) का गठन करने और ग्रेटर टिपरालैंड की वकालत किए जाने के बाद इस मांग ने एक बार फिर जोर पकड़ा.

अप्रैल 2021 में टीटीएडीसी के चुनावों में टिपरा मोथा ने 28 सीटों में से 18 पर जीत हासिल की और आईपीएफटी को बाहर कर दिया. लेकिन दोनों राजनीतिक संगठन अभी ग्रेटर टिपरालैंड की मांग में एकजुट हैं.

मौजूदा समय में मांग की जा रहा है कि इस प्रस्तावित राज्य में त्रिपुरा के बाहर के क्षेत्रों को भी शामिल किया जाना चाहिए यदि वहां पर पर्याप्त संख्या में त्रिपुरी आबादी है. इसलिए, ग्रेटर टिपरालैंड के समर्थक असम, मिजोरम और यहां तक कि बांग्लादेश के सीमावर्ती क्षेत्रों जैसे चटगांव और बंदरबन के कुछ हिस्सों को भी नए राज्य में शामिल किए जाने की परिकल्पना करते हैं.

प्रद्योत देबबर्मा कई इंटरव्यू में कह चुके हैं कि ग्रेटर टिपरालैंड की ‘अवधारणा’ टीटीएडीसी क्षेत्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें ‘मूल निवासियों के हर क्षेत्र या गांव’ को शामिल किया जाना चाहिए.

उन्होंने यह भी कहा है कि त्रिपुरा के लोगों की समस्याओं को सरकार संविधान के अनुच्छेद 2 और 3 के तहत हल कर सकती है, जो संसद को नए राज्यों की स्थापना का अधिकार देते हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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