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‘व्हाट्सएप करने के लिए 22 किमी जाना पड़ता है’, बिहार के 118 गांवों के लिए वैक्सीन स्लॉट दूर की हकीकत

इंटरनेट कनेक्टिविटी कमजोर होने से बिहार के दूरस्थ अधौरा ब्लॉक में वैक्सीन को लेकर हिचक चुनौती पैदा कर रही है. अधिकारी चाहते हैं कि टीकाकरण अभियान ऑफलाइन हो.

अधौरा ब्लॉक के बरडीहा गांव के निवासी जहां अफवाह के कारण लोगों ने वैक्सीन लेने से मना कर दिया और कुछ जो वैक्सीन की कमी की शिकायत कर रहे हैं | ज्योति यादव | दिप्रिंट

कैमूर: कोरोनोवायरस महामारी ने देश में व्यापक स्तर पर डिजिटल डिवाइड को उजागर कर दिया है, जिसकी वजह से केंद्र सरकार के वेबसाइट पर आधारित टीकाकरण अभियान के साथ तालमेल कायम रखने में दूर-दराज के इलाकों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है.

बिहार के दूर-दराज इलाके अधौरा का ही मामला लें, जो राज्य का सबसे कम आबादी वाला ब्लॉक है, और डिजिटल कनेक्ट के लिहाज से काफी अच्छी स्थिति वाले जिला मुख्यालय कैमूर से 58 किलोमीटर दूर है.

लेकिन इंटरनेट कनेक्शन के मामले में इनके बीच दूरी जमीन-आसमान के अंतर जैसी है.

कोविन ऐप से जुड़ने की बात तो भूल ही जाइए, यहां तो बिहार सरकार के होम आइसोलेशन ट्रैकिंग या एचआईटी ऐप के बारे में भी बहुत ही कम लोगों ने सुना है, जो राज्यभर में कोविड मरीजों पर नजर रखने के लिए बना है.

इंटरनेट कनेक्टिविटी के अभाव के बीच वैक्सीन लगवाने को लेकर भी हिचकिचाहट भी है और जिला प्रशासन के लिए स्थितियां किसी जंग से कम नहीं हैं.

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कैमूर के डिप्टी डेवलपमेंट कमिश्नर कुमार गौरव ने कहा कि इन क्षेत्रों में टीकाकरण ऑफलाइन कराने के लिए राज्य सरकार को पहले ही पत्र भेजा जा चुका है.

अधौरा में इंटरनेट सुविधा की कमी को रेखांकित करते हुए 30 वर्षीय खंड विकास अधिकारी आलोक कुमार शर्मा ने बताया कि उनकी टीम को सिर्फ एक व्हाट्सएप संदेश कैमूर मुख्यालय भेजने के लिए कितनी दूरी तय करनी पड़ती है.

उन्होंने बताया, ‘टीम का एक सदस्य यहां से 22 किलोमीटर की यात्रा करके उत्तर प्रदेश की सीमा पर एक जगह तक पहुंचता है जहां उसे कनेक्टिविटी मिलती है. वहां से वह मुख्यालय को मैसेज भेजता है. एक मैसेज भेजने के लिए मुझे 22 किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए एक व्यक्ति, एक बाइक और पेट्रोल चाहिए होता है.

अधौरा ब्लॉक डेवलपमेंट अधिकारी आलोक कुमार शर्मा | ज्योति यादव | दिप्रिंट

इलाके में स्थित इस ब्लॉक में संसाधनों की कमी की बात करते हुए उनकी बेबसी साफ झलकती है—यह एक आदिवासी क्षेत्र है जो इंटरनेट कनेक्शन और अन्य आधुनिक सुविधाओं के अभाव में पूरी दुनिया से कटा हुआ है.

यहां के 118 गांव जंगलों से घिरे हैं और इनकी आबादी 57,000 है. छह से अधिक पंचायतों में अभी सड़क संपर्क तक नहीं है. शर्मा ने कहा कि मानसून आने के साथ ही गांव प्रशासन के लिए इन इलाकों में पहुंचना तक दुर्गम हो जाएगा.

इन दुश्वारियों के बीच एक अच्छी बात भी है. ब्लॉक अधिकारियों ने बताया कि 23 मई को ये ब्लॉक कोविड मुक्त घोषित किया गया था. यहां पर हल्के लक्षणों वाले केस ही सामने आए थे और किसी भी मरीज को अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत नहीं पड़ी थी.

लेकिन यहां तक पहुंचना दुर्गम होना टीकाकरण अभियान के लिए एक बड़ी बाधा है. कुल आबादी में से मात्र 2,000 लोगों को ही पहली खुराक मिल पाई है.

और अफवाहों को फैलने के लिए यहां इंटरनेट की कोई जरूरत नजर नहीं है. वो तो हमेशा की तरह एक-दूसरे से कानों-कान यहां तक पहुंच चुकी हैं.


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‘वैक्सीन से मौत होने’ की अफवाह फैली

शर्मा ने बताया कि 2,000 लोगों को टीका लगाया गया था और तब तक यहां भ्रामक बातें नहीं फैली थीं. उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन अब मैं इससे बहुत निराश हो चुका हूं. भ्रामक तथ्यों के तेजी से फैलने के कारण एक भी ग्रामीण को वैक्सीन लेने के लिए राजी नहीं किया जा सकता है.

13 मई को अधौरा भेजी गई 1,000 खुराक का एक बड़ा हिस्सा बिना इस्तेमाल ही पड़ा है. पिछले सप्ताहांत में एक भी टीका नहीं लगाया जा सका, जिसके बाद शर्मा ने पुलिस और स्थानीय राजनेताओं के साथ इस मामले पर चर्चा की है.

शर्मा ने कहा कि कोरवा जैसी जनजातियों को मनाना सबसे कठिन काम है, जो जंगली इलाकों में रहते हैं. उन्होंने कहा, ‘वे खुराक लेने के लिए ग्राम पंचायत या प्रखंड कार्यालय नहीं आएंगे. हमें ही उनके पास जाना पड़ता है. मानसून आने के साथ यह काम और भी मुश्किल हो जाएगा. और मुझे लगता है कि एक तीसरी लहर भी आ रही है.’

आदिवासियों में 80 प्रतिशत खरवार, 4 प्रतिशत चेरो और 13 प्रतिशत अगड़िया हैं. उन्हें पकड़कर टीके लगवाने का काम प्रशासन के लिए चूहे-बिल्ली के खेल जैसा बना हुआ है.

राज्य सरकार का एक पोस्टर जिसमें कोरोना के खिलाफ मिल लड़ने की बात कही जा रही है, जो कि ब्लॉक डेवपलमेंट ऑफिस के बाहर झूल रहा है | ज्योति यादव | दिप्रिंट

दिप्रिंट ने जब कुछ गांवों का दौरा किया, तो आदिवासी यह सोचकर जंगलों में भाग गए कि उन्हें टीका लगाया जाएगा.

एक गांव से दूसरे गांव तक इस अफवाह को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है कि ‘वैक्सीन लगवाने वालों की मौत’ हो रही है.

प्रखंड कार्यालय से 20 किलोमीटर दूर करार गांव में रहने वाली 45 वर्षीय मालती चेरो चौधरी अजनबियों से इस कदर डरती हैं कि हमें देखकर वह अपने घर के अंदर भाग गईं और काफी देर तक वहीं छिपी रहीं.

बाद में बाहर आने पर पूछा कि क्या टीकाकरण कार्यक्रम ‘हमें मारने की साजिश’ है. अपने दावे को पुष्ट करने के लिए उसने यह भी कहा, ‘मैंने सुना है कि हथिनी में टीका लगवाने से तीन लोगों की मौत हो गई है.’

बरडीहा गांव में भी हालात कुछ खास ठीक नहीं हैं. बुजुर्गों में टीकाकरण को लेकर ज्यादा दहशत है. एक महीने पहले टीके की खुराक लेने वाले कुछ लोग अब दूसरी खुराक से परहेज कर रहे हैं क्योंकि एक व्यक्ति को हल्का बुखार आया था जो कुछ दिनों तक रहा था.

लेकिन उम्मीद की किरण तो बाकी है. 25 वर्षीय आदिवासी सौरभ कुमार टीका लगवाना चाहते हैं.

उसने कहा, ‘यहां लोग घबराए हुए हैं कि टीका लगवाते ही मर जाएंगे. लेकिन हमको तो लगवाना है. पता चल नहीं पा रहा कब लग रहा है. गाड़ी नहीं है तो जिले या ब्लॉक मुख्यालय में नहीं जा सकते.’

कुमार ने अभी तक कोविन या एचआईटी ऐप के बारे में नहीं सुना है. वह अपने घर से तीन किलोमीटर की यात्रा करके उस स्थान तक जाते हैं जहां उन्हें अपने मोबाइल पर नेटवर्क मिल जाता है. वो भी सिर्फ कॉल करने के लिए. वह अभी तक इंटरनेट की दुनिया से नहीं जुड़े हैं.

उसने कहा, ‘व्हाट्सएप या यूट्यूब तो चलता नहीं है, इधर तो सब जानकारी टीवी पर ही देख पाते हैं.’


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