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वैश्यावृति के लिए मानव तस्करी नशीले पदार्थों की तस्करी से अधिक जघन्य: उड़ीसा हाई कोर्ट

उड़ीसा हाई कोर्ट की बेंच ने कहा कि कानून और उसके अमल के बीच व्यापक अंतर है जिसके कारण तस्करी के मामलों में, सज़ा की दर बेहद कम होती है.

ओडिशा हाई कोर्ट | www.orissahighcourt.nic.in

नई दिल्ली: अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम, 1956 (आईटीपी) देह व्यापार के लिए महिलाओं के शोषण को रोकने में नाकाम रहा है क्योंकि कानून में कोई ‘कठोर दंड व्यवस्था’ नहीं है- ये बात उड़ीसा हाईकोर्ट ने मानव तस्करी के आरोप में गिरफ्तार एक शख़्स की ज़मानत याचिका पर सुनवाई के दौरान, अपने हाल ही के एक आदेश में कही.

29 जून के अपने एक आदेश में न्यायमूर्ति एसके पाणिगृही ने कहा, ‘ऐसा लगता है कि सरकार की एक सर्वव्यापी, आचारी, नैतिक, वैश्यावृति विरोधी मुद्रा है लेकिन व्यवहार में कानून और उनके अमल के बीच एक व्यापक अंतर है, जिसके कारण मानव तस्करी के मामलों में सज़ा की दर बेहद कम होती है’.

कोर्ट पंचानन पाधी नाम के एक व्यक्ति की ज़मानत याचिका की सुनवाई कर रहा था, जिसे कोलकाता से देह व्यापार के लिए लड़कियों की तस्करी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. भारतीय दंड संहिता की कुछ धाराओं के अलावा, उसपर आईटीपी एक्ट के सेक्शन 4 और 5 के तहत आरोप लगाए गए थे.

सेक्शन 4 के तहत, यदि 18 वर्ष से अधिक आयु का व्यक्ति, वैश्यावृति से जुड़ी आय से जीवन यापन का दोषी पाया जाए, तो उसे दो साल की जेल होगी, जबकि सेक्शन 5 में ये सज़ा 3 साल या उससे अधिक हो सकती है लेकिन 7 साल से ज़्यादा नहीं, अगर ये साबित हो जाए कि दोषी ने किसी को वैश्यावृति के लिए उकसाया है. सेक्शन 5 के तहत जेल का समय बढ़ाकर 14 साल किया जा सकता है, अगर कोर्ट को पता चलता है कि पीड़ित को उसकी मर्ज़ी के खिलाफ उकसाया गया था.

जज ने नोट किया कि कानून इसलिए बनाया गया था कि मानव तस्करी और व्यापारिक उद्देश्य से किसी का यौन शोषण करना, एक दंडनीय अपराध बन जाए. लेकिन कोर्ट ने कहा कि अधिनियम के अंदर ‘मानव तस्करी’ को परिभाषित नहीं किया गया.

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बेंच ने पाधी की रिहाई का आदेश दे दिया क्योंकि उसके सह-अपराधी पहले ही ज़मानत पर बाहर थे. लेकिन कोर्ट ने जुडीशियल मजिस्ट्रेट को हिदायत दी कि उसके ऊपर ज़मानत की कड़ी शर्तें लगाई जाएं.


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कानून इतना कड़ा नहीं कि वैश्यावृति रोक सके: कोर्ट

कोर्ट ने अपने आदेश में नोट किया कि संयुक्त राष्ट्र के पलेरमो प्रोटोकोल के मुताबिक, राज्य का दायित्व है कि वो ऐसा पर्याप्त तंत्र बनाए कि अपराधियों पर मुकदमा चलाया जा सके, पीड़ितों को बचाया जा सके और ट्रैफिकिंग को रोका जा सके.

प्रोटोकोल कहता है कि ‘मानव तस्करी’ का मतलब होगा भर्ती, परिवहन, ट्रांसफर, व्यक्तियों को शरण देना या उन्हें प्राप्त करना, धमकी से या किसी अन्य प्रकार की ज़बर्दस्ती से, अपहरण से, धोखे से, छल से, बेजा बल प्रयोग से या किसी की कमज़ोरी का फायदा उठाकर, पैसे के लेनदेन या किसी फायदे के लालच से, शोषण के उद्देश्य से किसी व्यक्ति की सहमति हासिल करना.

कोर्ट को लगा कि जो कानून बना है, वो इतना कड़ा नहीं है कि वैश्यावृति को रोक सके. ‘हालांकि इसमें लड़कियों की गुप्त और गैर-क़ानूनी तस्करी शामिल है लेकिन कानून निर्माताओं ने एक मौका गंवा दिया है जिसमें वो कठोर दंड व्यवस्था कायम कर सकते थे, भले ही मौजूदा अपराध नशीले पदार्थों की तस्करी से कहीं अधिक जघन्य है.’

जज ने कहा कि कानून को लागू कराना और भी चुनौती भरा है क्योंकि नई टेक्नोलॉजीज़ विकसित होने के साथ ही, ‘देह व्यापार’ विभिन्न रूपों में विकसित हो गया है.

हाई कोर्ट ने कहा- अभियुक्त पर कोई नरमी नहीं दिखानी चाहिए

जज ने पाधी को ज़मानत तो दी लेकिन साथ ही कोर्ट से कहा कि ऐसी राहत देते समय कोर्ट को एहतियात बरतनी चाहिए, क्योंकि इससे’कठोर अपराधियों का हौसला बढ़ेगा’.

बेंच ने कहा, ‘ऐसे सेक्स रैकेट्स के पीछे के मुख्य कर्ता-धर्ता, इलाके में काफी रसूख रखते हैं और वो पीड़ितों को ज़रूर धमकाएंगे. अपराध इस तरह का है कि ज़मानत देने से सिर्फ ऐसे कठोर अपराधियों का हौसला बढ़ेगा, जो अपने जघन्य अपराधों को अंजाम देने के लिए, कानून और सज़ा से बचते रहते हैं.’


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जो लोग पीड़िताओं की बिक्री या देह व्यापार के धंधे में शामिल हैं, उनके साथ कोई रिआयत नहीं बरती जा सकती. बेंच ने कहा, ‘ऐसा करने से उन कानूनों का अपमान होगा जिनका राज चलता है और उससे भी अधिक भारत के संविधान का’.

बेंच ने सुझाव दिया कि किसी अभियुक्त पर आरोप तय करते समय अदालतों को यूएन प्रोटोकोल में निर्धारित ‘मानव तस्करी’ की परिभाषा को ध्यान में रखना चाहिए.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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