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छत्तीसगढ़ में केंद्र के कोयला खनन के फैसले पर राज्य सरकार ने जताई आपत्ति, ग्रामीणों ने कहा- पर्यावरण को भारी नुकसान होगा

केंद्र द्वारा कोल ब्लॉक अवंटन की प्रक्रिया शुरू किये जाने के एलान के बाद क्षेत्र में सभी 20 ग्राम पंचायतों के प्रतिनिधियों ने प्रधानमंत्री के नाम पत्र लिखकर अपना विरोध जताया है.

छत्तीसगढ़ स्थित कोयला खदान, प्रतीकात्मक तस्वीर | फोटो: विशेष प्रबंध

रायपुर: छत्तीसगढ़ में केंद्र द्वारा प्रस्तावित 9 कोयला खदानों की नीलामी प्रक्रिया शुरू होते ही राज्य सरकार और ग्रामीणों ने पर्यावरणीय चिंताओं का हवाला देकर इसका विरोध करना शुरू कर दिया है. नीलामी की प्रक्रिया का विरोध करने वाला छत्तीसगढ़ दूसरा राज्य है. शनिवार को झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार नीलामी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी.

केंद्र सरकार द्वारा 18 जून को ही देश भर में कुल प्रस्तावित 80 में से 41 कोयला खदानों की नीलामी प्रक्रिया शुरू की गयी है. इनमें 9 खदानें छत्तीसगढ़ में हैं, 3 महाराष्ट्र और शेष 29 मध्य प्रदेश, झारखंड और ओडिशा में है.

छत्तीसगढ़ के वन, आवास एवं पर्यावरण मंत्री मोहम्मद अकबर ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडे़कर को पत्र लिखकर कहा है कि राज्य के हसदेव अरण्य एवं उससे सटे मांड नदी के जल ग्रहण क्षेत्र की कोयला खदानों को खनन प्रक्रिया से बाहर रखा जाए.

हालांकि राज्य सरकार के इस पत्र को जानकार और वन विभाग के अधिकारी कोई ठोस कदम नहीं बल्कि एक औपचारिकता मात्र बता रहे हैं.

वहीं झारखंड सरकार ने स्पष्ट किया है कि उसने 22 कोयला ब्लॉक्स को मंजूरी नहीं दी है. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा कि मोदी सरकार का फैसला ‘सहकारी संघवाद के खिलाफ’ है.

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वन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि सरकार का यह कदम पर्यावरण और वन्यजीव प्रेमियों द्वारा लगातार उठाई जा रही आवाज के दबाव में लिया गया है. राज्य सरकार इस मुद्दे पर केंद्र का खुलकर विरोध नहीं कर रही है.

अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘राज्य सरकार को 4 अन्य कोयला खानें- गारे पाल्मा 1/7, गारे पाल्मा 4/7, सोंधिया और शंकरपुर भटगांव खदानों में खनन से कोई आपत्ति नहीं है.’

वहीं ग्रमीणों का कहना है कि केंद्र सरकार का कदम उनके आत्मनिर्भरता, आजीविका, संस्कृति और जीवन-शैली पर चोट करने वाली प्रक्रिया को बढ़ावा देने वाला है.

राज्य के पर्यावरणविद मानते हैं कि केंद्र सरकार के निर्णय से हसदेव अरण्य और मांड नदी के अत्यधिक इकोसेंसिटीव माने जाने वाले क्षेत्र तहस नहस हो जाएंगे. वहीं दूसरी ओर प्रभावित क्षेत्रों के ग्रामीण भी इसे लेकर अपना विरोध जता रहे हैं और आंदोलन की राह अपनाने की तैयारी कर रहे हैं.

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक और पर्यावरणविद आलोक शुक्ला ने दिप्रिंट से कहा, ‘हसदेव अरण्य और मांड नदी के कोल बेल्ट में खनन किये जाने से पर्यावरण का भारी नुकसान तो होगा ही, इसके साथ ही आदिवासी ग्रामीणों का भारी मात्रा में विस्थापन भी होगा जिससे दशकों से संरक्षित वन क्षेत्र बर्बाद हो जाएगा.’

उन्होंने कहा, ‘अभी क्षेत्र की सभी 20 ग्राम पंचायतों ने प्रधामनंत्री सहित सबंधित केंद्रीय मंत्रियों को भी अपने पत्र के माध्यम से अपना विरोध जताया है लेकिन यदि सरकार नहीं मानती तो फिर आगे की रणनीति तय की जाएगी.’

केंद्र सरकार द्वारा जारी कोयला खदानों की सूची

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ग्रामीणों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख जताया विरोध

केंद्र द्वारा कोल ब्लॉक अवंटन की प्रक्रिया शुरू किये जाने के एलान के बाद क्षेत्र में सभी 20 ग्राम पंचायतों के प्रतिनिधियों ने प्रधानमंत्री के नाम पत्र लिखकर अपना विरोध जताया है.

ग्रमीणों ने पत्र में लिखा है कि, ‘2015 में जब कोयला ब्लॉकों की पहली बार नीलामी की जा रही थी, तब हमारे क्षेत्र की 20 ग्रामसभाओं ने सर्वसम्मति से खदान आवंटन के विरोध में प्रस्ताव पारित कर आपको अवगत कराया था. लोगों से चर्चा के आधार पर हम कह सकते हैं कि क्षेत्र के आदिवासी अब भी खदानों के आवंटन एवं संचालन का विरोध करते हैं और भविष्य में भी खनन कि अनुमति नहीं देने के लिए कृत संकल्पित है, जो कानूनी रूप से अनिवार्य है.’

ग्राम पंचायत प्रतिनिधियों ने पत्र में कहा, ’18 जून से की जा रही क्षेत्र की 6 खदानों की नीलामी अत्यंत दुखद है और इस प्रक्रिया को पूर्णतया रोका जाए और हसदेव अरण्य क्षेत्र में किसी भी खदान को आवंटित ना किया जाए.’

उनके अनुसार यह क्षेत्र आदिवासी बहुल है और पेसा कानून, वनाधिकार कानून तथा पांचवी अनुसूची के तहत पहले से ही ‘आत्मनिर्भरता तथा स्थानीय समुदाय के स्व-शासन के प्रावधान निर्धारित है लेकिन केंद्र सरकार संवैधानिक मूल्यों के अनुसार आचरण नहीं कर रही है.

ग्रामीणों का कहना है कि कोरबा जिले की 5 कोल ब्लॉक्स- मोरगा 2, मोरगा साउथ, मदनपुर नार्थ, श्यांग और फतेहपुर ईस्ट कोल ब्लॉकों की नीलामी पर तुरंत रोक लगा देना चाहिए. क्योंकि एक बार खनन का कार्य प्रारंभ हो गया तो यहां बड़े पैमाने पर पेड़ों का कटान और पर्यावण का भारी नुकसान होगा.

पर्यावरणविद आलोक शुक्ला कहते हैं, ‘यहां के ग्रामीणों ने साफ कर दिया है कि हसदेव अरण्य और मांड नदी कोल ब्लॉकों की नीलामी का विरोध हर कीमत पर किया जाएगा. समय और आवश्यकता अनुसार न्यायालय की शरण भी ली जाएगी.’


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कोल ब्लॉक को नीलामी से अलग करना पर्यावरण के लिए उचित

राज्य के वनमंत्री मोहम्मद अकबर ने कहा है कि यह क्षेत्र इकोसेंसिटिव के साथ-साथ प्रस्तावित हाथी रिजर्व का भी हिस्सा है जिससे इन क्षेत्रों में आने वाले कोल ब्लाॅकों को नीलामी से अलग किया जाना वन और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए उचित होगा.

अकबर के अनुसार, ‘छत्तीसगढ़ में हाथियों की संख्या में हो रही वृद्धि, मानव हाथी संघर्ष की बढ़ती घटनाएं और हाथियों के हैबिटेट की आवश्यकता को देखते हुए हसदेव नदी से लगे 1995 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को लेमरू हाथी रिजर्व घोषित करने का निर्णय लिया गया है, जिसकी अधिसूचना का कार्य जारी है.’

उन्होंने कहा, ‘भविष्य में मानव हाथी संघर्ष की घटनाओं पर नियंत्रण के लिए उक्त क्षेत्र में खनन पर रोक आवश्यक है.’

राज्य सरकार लेमरू हाथी रिजर्व के प्रस्तावित क्षेत्र में करीब 250 वर्ग कीलोमेटर और शामिल करना चाहती है. यदि ऐसा होता है तो हाथी रिजर्व में तकरीबन पूरा इकोसेंसिटीव क्षेत्र आ जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मूल भावना के विपरीत

जानकारों का कहना है कि केंद्र सरकार द्वारा छत्तीसगढ़ में जारी कोल ब्लॉक नीलामी प्रक्रिया 2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश की मूल भावना के विपरीत है.

इसपर शुक्ला कहते हैं, ‘2014 में देश की सर्वोच्च न्यायालय ने कोलगेट घोटाले के बाद कोयला खनन पर पाबंदी लगा दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि खनन केवल देश-हित में निर्धारित अंत-उद्देश्य के लिए ही किया जाएगा. दूसरे शब्दों में कहें तो सुप्रीम कोर्ट ने कमर्शियल माइनिंग पर रोक लगा दी थी.’

उन्होंने कहा, ‘सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी साफ किया था कि कोल ब्लॉक आवंटन की मुख्य जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होगी. लेकिन केंद्र सरकार द्वारा पहले 2015 में लाए खदान (विशेष उपबंध) अधिनियम और बाद में मार्च 2020 में किये गए नियमों के बदलावों में कमर्शियल माइनिंग का रास्ता बनाया. इसके साथ ही केंद्र सरकार ने राज्यों को कोल ब्लॉक आवंटन प्रक्रिया से बाहर रखा है. केंद्र का यह निर्णय देश के संघीय ढांचे की मूल भावना के विपरीत भी है.’

शुक्ला का कहना है कि, ‘2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुराने कोल ब्लॉकों के आवंटन रद्द किए जाने के बाद 2015 से केंद्र सरकार ने देशभर की कोयला खदानों की नीलामी का प्रयास किया लेकिन वह इसमें सफल नहीं हो पायी.’

उन्होंने कहा, ‘सरकार के अपने ही आंकड़े बताते हैं कि पिछले 5 वर्षों में 80 से अधिक खदानों की नीलामी का प्रयास किया गया लेकिन इनमें केवल 31 खदाने ही आवंटित की जा सकी हैं.’


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वो बताते हैं, ‘नीलामी की विफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस दौरान 31 खदानों में 8 का आवंटन रद्द करना पड़ा क्योंकि इन खदान मालिकों ने काम करने से मना कर दिया था. बची हुई 23 खदानों में पांच वर्ष बाद भी केवल 12 में ही खनन चालू हो पाया है. इन 12 में से 10 वही खदाने हैं, जहां 2014 से पहले ही खनन चल रहा था. जिन खानों में काम चालू नहीं हो पाया है उनमें 5 विवादित हसदेव और मांड नदियों के जंगलों में है. इस क्षेत्र में अबतक कुल 7 खदानें आवंटित की जा चुकी हैं जिनमें से दो में ही खनन का काम चल रहा है.’

सरकार अपने ही बनाए नियमों का नहीं कर रही पालन: जानकार

जानकारों का कहना है की केंद्र सरकार राज्य में जारी कोयला खदानों की नीलामी प्रक्रिया को चालू कर स्वयं के ही बनाए नियमों का पालन नहीं कर रही है.

हसदेव और मांड नदियों के कछार क्षेत्र में पर्यावरण के क्षेत्र में कार्य करने वाले प्रियांशु गुप्ता ने बताया, ‘देश के कोल माइनिंग क्षेत्रों में हसदेव और मांड कछार के जंगल वन्यजीव जैवविविधता की दृष्टि से सबसे अधिक संवेदनशील माने जाते हैं.’

उन्होंने कहा, ‘यही कारण है कि पहले 2010 में केंद्र सरकार ने इस पूरे क्षेत्र को अपने ‘नो गो ‘ नीति में शामिल किया और बाद में वर्तमान सरकार ने इस पूरे क्षेत्र को इनवायोलेट एरिया घोषित किया. इन दोनों नीतिगत नियमों के अनुसार इस क्षेत्र की 20 में से 18 माइनिंग ब्लॉकों में खनन का कार्य नहीं किया जा सकता.’


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वहीं शुक्ला का कहना है कि, ‘हसदेव अरण्य और मांड नदी का पूरा क्षेत्र संविधान की पांचवी अनुसूची में आता है. इसके अनुसार सरकार को खनन के लिए वहां की ग्रामसभाओं का विधिवत अनुमोदन अनिवार्य है लेकिन केंद्र सरकार द्वारा उनके लिखित विरोध का संज्ञान अब तक नहीं लिया गया है.’

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