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शेखर गुप्ता का अरुंधति रॉय को ‘बंदूक थामे गांधीवादी’ बयान पर जवाब

अरुंधति रॉय का कहना है कि शेखर गुप्ता ने उनको अपने लेख से ‘बंदूक थामे गांधीवादी’के शब्द गलत तरीके से उद्धृत किये हैं.

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अरुंधती रॉय की फाइल फोटो.

लेखक एक्टिविस्ट अरुंधिति रॉय ने मुझे संदेश दिया कि मेरे हालिया नेश्नल इंटरेस्ट में मैंने उनको गलत तरीके से उद्धृत किया है. मैंने कहा था कि उन्होंने माओवादियों को ‘बंदूक थामे गांधीवादी’ बताया था जो कि गलत है.

उनका कहना है कि उन्होंने ऐसा कभी कहा ही नहीं. ये शब्द आउटलुक पत्रिका के एक कॉपी एडिटर ने लिख दी थी और उन्होंने आउटलुक पत्रिका को पत्र लिख कर ये स्पष्ट भी किया था.

ये है उनका 29 मार्च 2010 का आउटलुक पत्रिका में लेख और तीन महीने बाद उनका स्पष्टीकरण जो कि 7 जून 2010 में छापा गया था.

आउटलुक ने उनका वक्तव्य किसी जवाब के बिना छापा और वो लेख अब भी उसी शक्ल में उन्ही शब्दों के साथ  वेबसाइट पर मौजूद है, जिसकी स्ट्रैपलाइन में लिखा है, ‘बंदूक थामे गांधीवादी?’

आउटलुक के बाद ब्रिटिश अखबार द गार्डियन ने ये लेख पांच भागों में जस के तस छापा. हर भाग की हेडलाइन में था ‘गांधी, पर बंदूक के साथ’. आप इसे यहां देख सकते हैं.

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अगर अरुंधति रॉय ने द गार्डियन को आपत्ति करते हुए लिखा था तो हम उसे अभी तक ढ़ूंढ़ नहीं पाये हैं. हालांकि वो लेख उसी हेडलाइन के साथ आज भी द गार्डियन की वेबसाइट पर देखा जा सकता है. लगता है कि उनकी ओर से इस पांच भाग में छपे लेख पर कोई आपत्ति नहीं थी जो कि विश्वभर में ख्याति प्राप्त अखबार में छपा था. हमारे फैक्ट चेकर ने इसकी यहां जांच की थी.

अरुंधति रॉय ने वही पैराग्राफ अपने आउटलुक को स्पष्टिकरण में लगाए थे जिनमें गांधी और बंदूकों की चर्चा है. आप यहां इसे पढ़ सकते हैं. वो सही है कि उन्होंने माओवादियों को विशेष तौर पर ‘बंदूक थामे गांधीवादी’ व्याख्या नहीं की थी, और मैं गलत था, तो मैं माफी मांगता हूं. मेरा उनकी राजनीति और एक्टिविज़्म पर कोई भी विचार हो पर मेरी ये ज़िम्मेदारी है कि जो मैं कह रहा हूं वो पूरे तौर पर शब्दश: सही हों, खासकर जब कोई बात उनकी आलोचना करते हुए कही गई हो, जैसा अक्सर होता है. इसलिए एक बार फिर माफी, और मैंने अपने नेशनल इंटरेस्ट में बदलाव भी कर दिया है.

जून 2010 में आउटलुक में लिखे एक नोट में उन्होंने कहा था कि गांधी और बंदूक का महीन अर्थ था. और अगर किसी ने गलती में इसे ऐसे समझ लिया मानो कि माओवादी बंदूकधारी गांधीवादी थे तो ‘वह या तो दिमागी रूप से कमज़ोर हैं या उसे व्यंग समझ नहीं आता या दोनों.’

मैं इस बात से इंकार नहीं करता कि मैं इनमें से एक या दोनों हो सकता हूं. पर मैं इस बात से आश्वस्त नहीं कि आउटलुक की उम्दा संपादकीय टीम और द गार्डियन के सम्मानित संपादक मेरे साथ अपना नाम जोड़े जाने से खुश होंगे या नहीं.

-शेखर गुप्ता, एडिटर इन चीफ

(इस जवाब को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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