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‘सम्मानजनक जीवन’ के अधिकार की मांग करते हुए किसान संगठन ने SC में GM सरसों के खिलाफ याचिका का किया विरोध

शेतकारी संगठन ने कार्यकर्ता अरुणा रोड्रिग्स की उस याचिका के खिलाफ पिटिशन दायर की, जिसमें वह जीएम सरसों पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं. संगठन ने जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए बीटी कॉटन की सफलता का हवाला दिया.

सरसों के खेत की प्रतीकात्मक तस्वीर | ANI

नई दिल्ली: जीएम सरसों की खेती की मंजूरी पर रोक लगाने की मांग करने वाली एक याचिका का विरोध करने के लिए एक किसान संगठन ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है. उन्होंने अपनी याचिका में कहा कि जीएम फसलों के इस्तेमाल के खिलाफ कोई भी न्यायिक आदेश किसानों के ‘एक सम्मानजनक जीवन चुनने और जीने’ के अधिकारों का उल्लंघन होगा.

कार्यकर्ता अरुणा रोड्रिग्स ने जीएम सरसों को पर्यावरण के लिए नुकसानदायक बताते हुए इसकी खेती की मंजूरी पर रोक लगाने के लिए एक याचिका दायर की थी. यह मामला अभी कोर्ट में लंबित है. संगठन ने इसी के खिलाफ एक हस्तक्षेप याचिका दायर की है. शेतकारी संगठन, एक अखिल महाराष्ट्र किसान समूह है.

रॉड्रिक्स ने 2016 में और फिर 2021 में खुले मैदान में परीक्षण या जीएम सरसों सहित हर्बिसाइड टॉलरेंट (एचटी) फसलों के व्यावसायिक रिलीज का विरोध करते हुए एक याचिका दायर की थी. 3 नवंबर को याचिकाकर्ता ने अदालत को सूचित किया कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त की गई तकनीकी विशेषज्ञ समिति (टीईसी) ने सभी हर्बिसाइड टॉलरेंट फसलों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी.

किसान संगठन चाहता है कि सुप्रीम कोर्ट रॉड्रिक्स की याचिका पर कोई फैसला सुनाने से पहले उसके पक्ष की सुनवाई करे. उसका दावा है कि मामले के नतीजे ‘उन हजारों किसानों के हितों को सीधे प्रभावित करेंगे, जो खेती के लिए जीएम बीज जैसी आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं.’

जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की अगुवाई वाली पीठ ने 17 नवंबर को इस याचिका को रिकॉर्ड में लिया था. अगली सुनवाई 29 नवंबर को है.

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‘जीएम फसलें किसानों की आर्थिक परेशानियों का हल’

रॉड्रिक्स के वैचारिक दावे किसानों के हितों और उनकी आजीविका के लिए नुकसानदायक हैं और ऐसा लगता है कि जीएम फसलों का विरोध करने वाले बढ़ती खाद्य असुरक्षा और वैश्विक मुद्रास्फीति जैसे संकटों से अंजान हैं. संगठन ने शीर्ष अदालत से कहा है कि जीएम फसलें भारत में किसानों के आर्थिक संकट का जवाब हैं. इसलिए इन फसलों पर पूरी तरह से रोक लगाना महाराष्ट्र, गुजरात और पंजाब के कई किसानों के सपनों के लिए ‘मौत की घंटी’ हो सकता है, जो खेती के वैज्ञानिक साधनों का इस्तेमाल करते आ रहे हैं.

उधर 10 नवंबर को दायर अपने हलफनामे में केंद्र ने शीर्ष अदालत में जीएम सरसों की जोरदार पैरवी करते हुए दावा किया कि इसके घरेलू उत्पादन से अन्य देशों पर भारत की निर्भरता कम होगी.

यह दूसरा मौका है जब संगठन कृषि नीति पर केंद्र सरकार के समर्थन में आगे आया है. इससे पहले, संगठन ने तीन कृषि कानूनों का समर्थन किया था, जिन्हें सरकार ने बड़े पैमाने पर विरोध के बाद निरस्त कर दिया था.

अपनी याचिका के जरिए संगठन ने किसानों की स्थिति में सुधार के लिए जीएम टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की पुरजोर वकालत की है. किसान संगठन ने अपनी याचिका में कहा है, ‘इस पर प्रतिबंध लगाने से ‘किसानों की हालत और खराब हो जाएगी क्योंकि भारत के शुष्क क्षेत्रों में खेती करने का पुराना तरीका विफल साबित हुआ है.’

उन्होंने कहा, ‘संगठन का मानना है कि किसानों को जीएम तकनीक चुनने की आजादी होनी चाहिए. जीएम बीजों पर प्रतिबंध से वे खेती के पुराने तरीकों पर लौट आएंगे. इससे उनकी आजीविका पर असर पड़ेगा और उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो जाएगी.’

संगठन ने आगे कहा कि जीएम फसलों के इस्तेमाल के खिलाफ कोई भी कदम ‘इन किसानों के चुनने और सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकारों का उल्लंघन होगा.’

किसानों के एक बेहतर जीवन जीने के अधिकार पर जोर देते हुए संगठन ने कहा कि संविधान पेशा चुनने की आजादी देता है और इसे ‘याचिकाकर्ताओं के कुछ निराधार और अंधविश्वास’ के आधार पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

याचिका में जीएम बीजों की सफलता के बारे में बताने के लिए बीटी कॉटन का उदाहरण दिया गया. संगठन ने दावा किया कि पारंपरिक बीजों की तुलना में बीटी कपास की पैदावार चार गुना हो गई और इससे किसानों, विशेष तौर पर महाराष्ट्र के किसानों को काफी फायदा हुआ है.

याचिका में कहा गया कि ‘बीटी कॉटन ने न सिर्फ फसल की पैदावार बढ़ाकर किसानों के हालातों को सुधारा है बल्कि उन्हें खेती के अधिक वैज्ञानिक तरीकों से जुड़ने का अवसर और साधन भी दिया है.’ याचिका के अनुसार, बीटी कॉटन के कारण पर्यावरण या पशुओं को किसी भी तरह के नुकसान की कोई सूचना नहीं है.

याचिका के अनुसार, महाराष्ट्र के किसानों ने भी बीटी कपास के इस्तेमाल के बाद से फसल के लिए कम पानी की जरूरत और मिट्टी की बेहतर गुणवत्ता की सूचना दी है. इसके साथ ही बीटी कॉटन की वजह से कीटनाशकों का प्रयोग कम हो रहा है. इससे भारत में हर साल होने वाले कैंसर के कम से कम लाखों मामलों को रोकने में मदद मिली है.

तकनीकी आधार पर आपत्ति जताते हुए किसान संगठन ने कहा कि रॉड्रिक्स द्वारा मांगी गई राहत ‘पूर्ण रूप से नीति से संबंधित’ है और कार्यपालिका की शक्तियों के भीतर आती है. इसने विरोध करते हुए कहा, ‘न्यायपालिका को खतरनाक सूक्ष्मजीवों, जेनेटिकली इंजीनियर्ड ऑर्गेनिज्म या कोशिकाओं के उपयोग, आयात, निर्यात और भंडारण के लिए मैन्युफैक्चर के नियमों 1989 और एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एक्ट 1986 द्वारा निर्धारित नियामक व्यवस्था को बदलने के अधिकार क्षेत्र में नहीं आना चाहिए.’

संगठन के अनुसार, चूंकि मामला एक ‘पॉलीसेंट्रिक’ मुद्दा है. इसलिए बेहतर यही रहेगा कि इस मामले को कार्यपालिका ही निपटाए, जो लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है. याचिका में तर्क दिया गया कि ‘कार्यपालिका मैक्रो-इकोनॉमिक फैक्टर और विशेषज्ञों की राय पर विचार कर सकती है और इसके साथ ही वह उनसे बातचीत करने और विभिन्न विचारों और हितों को संतुलित करने में सक्षम होगी.’

(अनुवाद: संघप्रिया मौर्य | संपादन: कृष्ण मुरारी)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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