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राजनेता, संपादक, एक सेवानिवृत्त मेजर जनरल: SC में राजद्रोह कानून को लेकर याचिका दायर करने वाले याचिकाकर्ता

अपने ताजा फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 124 ए के विभिन्न पहलुओं को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के बाद इसे निलंबित कर दिया. इन याचिकाकर्ताओं में लोकसभा सांसद से लेकर देशद्रोह के आरोपों का सामना कर रहे पत्रकार तक शामिल हैं.

चित्रण : रमनदीप कौर / दिप्रिंट

नई दिल्ली: सेना के एक सेवानिवृत्त मेजर जनरल, एक पूर्व भाजपा मंत्री, एक विपक्षी लोकसभा सांसद, वरिष्ठ संपादकों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था और कई पत्रकार, ये सब सुप्रीम कोर्ट में भारत के औपनिवेशिक युग के राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं में शामिल हैं.

याचिकाओं के इस समूह (बैच) पर कार्रवाई करते हुए, शीर्ष अदालत ने बुधवार को राज्यों और केंद्र की सरकारों से कहा कि जब तक केंद्र सरकार अपने प्रावधानों की फिर से जांच कर रही है, वे नए मामले दर्ज करने, नए सिरे से जांच करने, या देशद्रोह कानून – भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124 ए – के तहत दंडात्मक कार्रवाई करने से परहेज करें.

धारा 124ए के तहत सरकार के प्रति ‘घृणा’, ‘अवमानना’ या ‘असंतोष’ भड़काने की कोशिश करने के दोषी पाए जाने वालों के लिए कारावास या जुर्माना, अथवा दोनों का प्रावधान है, इसमें ‘या तो लिखित या बोले गए शब्द’ भी शामिल हैं.

याचिकाओं के एक समूह ने सामूहिक रूप से इस बारे में कई सवाल उठायें है कि क्या यह कानून विभिन्न संवैधानिक अधिकारों, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार और जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार शामिल है, का उल्लंघन करता है.

इन याचिकाओं को जोड़ने वाला एक सामान्य सूत्र उनका यह तर्क है कि 1962 का सर्वोच्च न्यायालय का वह फैसला – केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में – जिसने औपनिवेशिक कानून की वैधता को बरकरार रखा था, अब एक अच्छा कानूनी सिद्धांत नहीं रह गया है.

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इस आलेख में दिप्रिंट इन याचिकाकर्ताओं और शीर्ष अदालत में उन्होंने क्या- क्या मांग की है, इन सब पर एक व्यापक नजर डाल रहा है.

किशोरचंद्र वांगखेमचा और कन्हैया लाल शुक्ला 

भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एनवी रमना की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमचा और छत्तीसगढ़ के कन्हैया लाल शुक्ला द्वारा दायर एक याचिका के आधार पर ही राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता की जांच करने पर सहमति व्यक्त की थी.

शीर्ष अदालत ने पिछले साल 30 अप्रैल को केंद्र को एक नोटिस जारी कर उन पत्रकारों की याचिका पर जवाब मांगा था, जिन पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रकाशित पोस्ट और कार्टून के लिए राजद्रोह के आरोप में मामला दर्ज किया गया और उन्हें जेल भी भेजा गया.

इन दोनों ने तर्क दिया था कि धारा 124A किसी व्यक्ति के बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करती है, और अनुच्छेद 19 में उल्लिखित मुक्त भाषण (फ्री स्पीच) के अधिकार के लिए प्रस्तावित ‘उचित प्रतिबंध’ के अंतर्गत नहीं आता है.

जहां मणिपुर सरकार और विभिन्न राज्य के नेताओं के खिलाफ उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियों के लिए वांगखेमचा के खिलाफ धारा 124 ए के तहत तीन प्राथमिकियां दर्ज की गई हैं, वहीं शुक्ला द्वारा फेसबुक पर वह कार्टून पोस्ट करने के लिए उनके खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाया था, जिसमें उन्होंने पुलिस द्वारा की गई फर्जी मुठभेड़ों को दर्शाया गया था.

इस जोड़ी के समर्थन में तीन हस्तक्षेप याचिकाएं (इंटरवेन्शन पेटिशन) दायर की गईं थीं. हस्तक्षेप करने वाले लोग चाहते हैं कि इस मामले में स्वयं पक्षकार बने बिना उनकी बात भी सुनी जाए.

वरिष्ठ पत्रकार शशि कुमार द्वारा दायर पहली हस्तक्षेप याचिका में दावा किया गया है कि 2016 के बाद से देशद्रोह के मामलों में नाटकीय उछाल आया है. साल 2016 में 35 की तुलना में 2019 में 93 ऐसे मामले दर्ज किए गए थे.

आवेदन में कहा गया है कि यह ऐसे मामलों में 165 प्रतिशत की उछाल है. उन्होंने अदालत को बताया कि इन 93 मामलों में से महज 17 फीसदी मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए, जबकि दोषसिद्धि (कन्विक्शन) की दर 3.3 फीसदी तक ही सीमित थी.

दूसरे हस्तक्षेपकर्ता और कानून के प्रोफेसर डॉ संजय जैन ने अन्य देशों में देशद्रोह कानूनों का वृहत अवलोकन पेश किया है ताकि अदालत को इस कानून का समसामयिक विश्लेषण करने में मदद मिल सके.

तीसरे हस्तक्षेपकर्ता, फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स ने भी अपने आवेदन में कुछ इसी तरह के तर्क दिए हैं.

श्रेया ब्रॉडकास्टिंग और आमोदा ब्रॉडकास्टिंग कंपनी

श्रेया और आमोदा, जो दोनों आंध्र प्रदेश के निजी मीडिया हाउस हैं, ने राज्य सरकार द्वारा मई 2021 में लोकसभा सदस्य आर.के. राजू द्वारा दिए गए व्यवस्था विरोधी बयानों को प्रसारित करने के मामले में उनके ऊपर देशद्रोह का आरोप लगाए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया.

दोनों मीडिया कंपनियों ने तर्क दिया कि उनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी ‘फ्री स्पीच के अधिकार’ का उल्लंघन है और देशद्रोह के ये मामले मीडिया को सार्वजनिक महत्व के मुद्दों को कवर करने से रोकने का एक प्रयास हैं.

दोनों मीडिया हाउसेस ने यह भी तर्क दिया है कि असहमति का अधिकार (राइट तो डिस्सेंट) अनुच्छेद 19 (फ्री स्पीच) का हिस्सा है और लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए आवश्यक है, न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए और याचिकाकर्ताओं को गिरफ्तारी से सुरक्षा प्रदान करते हुए टिपण्णी की थी, ‘ समय आ गया है कि हम देशद्रोह की सीमा को परिभाषित करे. ‘

हालांकि. इन याचिकाकर्ताओं ने धारा 124ए की संवैधानिक वैधता पर सवाल नहीं उठाया था, फिर भी उनकी याचिकाओं को सीजेआई की पीठ के पास विचार के लिए भेजा गया था क्योंकि इसकी विषय-वस्तु ने इस कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी.


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मेजर जनरल वोम्बत्केरे

भारतीय सेना के एक सेवानिवृत्त मेजर जनरल एस जी वोम्बटकेरे ने पिछले साल जुलाई में सुप्रीम कोर्ट में अपनी तरफ से याचिका दायर की थी जिसमें कहा गया था कि असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट परिभाषाओं के आधार पर सरकार के प्रति असंतोष की अभिव्यक्ति का अपराधीकरण करने वाले क़ानून एक अनुचित प्रतिबंध है.’

वह चाहते हैं कि धारा 124A को तीन मौलिक अधिकारों – अनुच्छेद 19 (1) (ए) (स्वतंत्र भाषण), अनुच्छेद 14 (समानता) और अनुच्छेद 21 (स्वतंत्रता) के अधिकार से परे होने (अल्ट्रा विरेस) के कारण – ‘अमान्य और अक्रिय’ घोषित किया जाए. वह आगे यह भी चाहते हैं कि शीर्ष अदालत धारा 124ए से संबंधित सभी आपराधिक कार्यवाहियों को बंद करने के लिए एक मंदमस (परमादेश) या निर्देश जारी करे.

सीजेआई रमना की अगुवाई वाली पीठ ने इस पूर्व सैन्य अधिकारी की याचिका की पड़ताल करने पर सहमति जताई और इस मामले में पीठ की सहायता के लिए अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल की उपस्थिति की मांग की. सीजेआई ने तब टिप्पणी की थी कि इस याचिकाकर्ता, जिसने एक सैन्य अधिकारी के रूप में राष्ट्र को अपनी सेवाएं प्रदान की थी, की साख पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है.

इसी याचिका की सुनवाई के दौरान CJI ने राजद्रोह कानून के दुरुपयोग को भी चिन्हित किया और केंद्र सरकार से पूछा कि वह महात्मा गांधी सहित भारत के स्वतंत्रता सेनानियों को चुप कराने के लिए अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किए गए प्रावधान को निरस्त क्यों नहीं कर रही है?

एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया

‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ की याचिका में पत्रकारों को डराने-धमकाने के लिए धारा 124ए के बढ़ते दुरुपयोग पर प्रकाश डाला गया है.

यह इस कानून को अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन करने वाला और असंवैधानिक ठहराने के लिए एक न्यायिक घोषणा भी चाहता है. गिल्ड का कहना है कि प्रेस की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत संरक्षित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक पहलू है. साथ ही, इसने आरोप लगाया है कि प्रेस के सदस्यों को अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए राजद्रोह कानून के तहत प्राथमिकी का सामना करना पड़ रहा है.

गिल्ड ने अदालत से प्रेस के किसी भी सदस्य के खिलाफ देशद्रोह के आरोपों की शिकायतों को असाधारण श्रेणी के मामलों के रूप में घोषित करने के लिए भी कहा है, जिनमें (मामला दर्ज करने के लिए) तब तक प्रारंभिक जांच की आवश्यकता होगी जब तक कि ऐसी कार्यवाही उनके कर्तव्य के दायरे में आती है, .

अरुण शौरी और कॉमन कॉज

वयोवृद्ध पत्रकार और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी के साथ-साथ गैर सरकारी संगठन ‘कॉमन कॉज’ ने 1962 के केदार नाथ सिंह के फैसले की निंदा की है जिसमें राजद्रोह कानून की संवैधानिकता को बरकरार रखा गया था.

इन याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि यह फैसला उस धारा के ‘शब्दों’ को पढ़ता है, जिसे असंतोष को दबाने के इरादे से तैयार किया गया था.

याचिकाकर्ताओं ने आगे यह भी कहा है कि संवैधानिकता की उपधारणा (प्रीसंप्शन) संविधान निर्माण के पहले के कानूनों – यानी कि वे जो ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दिनों वाले हैं – पर लागू नहीं होता है – क्योंकि वे किसी विदेशी विधायिका या निकाय द्वारा बनाए गए होंगे.

संवैधानिकता के उपधारणा के अभाव में पांच-न्यायाधीशों की पीठ इस कानून को नहीं ठीक से पढ़ सकती थी. इसके अलावा, केदार नाथ सिंह वाले फैसले में की गयी इस धारा की व्याख्या भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक व्यापक प्रभाव डालती है.

शौरी और कॉमन कॉज द्वारा दायर प्रस्तुत की गई संयुक्त याचिका में कहा गया है, ‘ इस धारा को उसके सादे और स्पष्ट अर्थ के आधार पर असंवैधानिक घोषित किया जाना चाहिए, खासकर तब जब इसके पीछे का विधायी इरादा असंतोष को दबाने का था.’

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज

मानवाधिकार संस्था ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल)’ द्वारा दायर याचिका में दावा किया गया है कि राजद्रोह एक राजनीतिक अपराध था और ‘ब्रिटिश क्राउन के खिलाफ राजनीतिक विद्रोह को रोकने के लिए और ब्रिटिश उपनिवेशों को नियंत्रित करने के लिए’ इसे दंड संहिता में जोड़ा गया.

इसमें तर्क दिया गया है, ‘हालांकि, स्वतंत्र भारत में, इस तरह के ‘दमनकारी’ चरित्र के कानूनों का कोई स्थान नहीं है.’

इसमें कहा गया है, इस धारा को परिभाषित करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले ‘असंतुष्टता, विश्वासघात और अस्वीकृति’ जैसे शब्द अस्पष्ट हैं, जो इस प्रावधान को अमान्य बनाता है.’

अनिल चमड़िया

मासिक पत्रिकाओं ‘मास मीडिया’ और ‘जन मीडिया’ के संपादक पत्रकार अनिल चमड़िया ने अपनी याचिका में अदालत से इस कानून को खत्म करने का आग्रह करते हुए देशद्रोह के इतिहास का पता लगाया.

चमड़िया के अनुसार, जब सुप्रीम कोर्ट ने साल 1962 में धारा 124A की वैधता को बरकरार रखा, तो यह अपराध गैर-संज्ञेय श्रेणी में था, यानी गिरफ्तारी के लिए किसी न्यायिक अधिकारी की आवश्यकता थी. मगर 1973 में, इस अपराध को संज्ञेय बनाकर इस प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय को हटा दिया गया था.

चमड़िया ने जोर देकर कहा कि हालांकि 2016 में दिए गए एक बाद के फैसले ने केदार नाथ सिंह फैसले में उल्लिखित सुरक्षा उपायों को फिर से दोहराया था, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस धारा का दुरुपयोग होना बदस्तूर जारी है. उन्होंने आगे तर्क दिया कि यह उस अस्पष्ट शब्दावली के कारण है जिसमें यह प्रावधान छिपा बैठा है, और इसी कारण धारा 124 ए को ‘फ्री स्पीच’ को दबाने के लिए एक उपकरण के रूप में पेश किया जा रहा है.

पेट्रीसिया मुखिम और अनुराधा भसीन

मेघालय की संपादक मुखिम और जम्मू-कश्मीर की भसीन ने शीर्ष अदालत से धारा 124ए को अमान्य घोषित करने और इससे संबंधित सभी लंबित मुकदमों, कार्यवाही और जांच को रद्द करने का आग्रह किया है.

अपनी याचिका में, उन्होंने तर्क दिया है कि राजद्रोह का अपराध एक ‘दमनकारी कानूनी उपकरण है, जो सहज रूप से अतिसंवेदनशील है और जिसे स्वतंत्र भाषण, प्रेस की स्वतंत्रता, आलोचना, असंतोष और लोकतंत्र में महत्वपूर्ण मानी जाने वाली आवाजों को दंडित करने के लिए तैनात किया जा सकता है’.

उनका कहना है कि धारा 124ए ‘औपनिवेशिक शासकों द्वारा भारतीयों के दिमाग की पुलिसिया निगरानी के लिए और उन्हें दंडित करने के लिए बनाए गए कानूनों के शस्त्रागार’ का एक हिस्सा है, और यह स्वतंत्र भाषण और पत्रकारिता का अपराधीकरण करने के लिए उपयोग किया जाता है.

उनका तर्क है कि धारा 124ए में प्रयुक्त शब्द ‘पर्याप्त निश्चितता के साथ परिभाषित होने में असमर्थ हैं, और इस प्रकार यह अस्पष्टता और अधिकता (ओवेर्ब्रेड्थ) के लाइलाज दोष से ग्रस्त है’.

महुआ मोइत्रा

तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा इस मामले की सबसे मुखर याचिकाकर्ताओं में से एक रही हैं.

अपनी याचिका में, उन्होंने तर्क दिया कि ऐतिहासिक रूप से राजद्रोह कानून केवल ‘राजशाही के हितों को संरक्षित करने वाला एक उपकरण’ था और इसका इस्तेमाल उन लोगों के खिलाफ किया गया था जिन्होंने ‘सरकार के एक अलोकतांत्रिक स्वरूप’ का विरोध किया था. इसलिए, उनकी याचिका में कहा गया है कि धारा 124ए का ‘एक उदार लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं है’.

मोइत्रा की याचिका में भी 1962 के केदार नाथ मामले का उल्लेख किया गया है, जिसमें कहा गया है कि हालांकि यह कानून के उन प्रावधानों को अवैध ठहरता है जो केवल उत्तेजक ‘असंतोष’ को इसे लागू करने के लिए पर्याप्त बनाता है, मगर 124 ए अभी भी ‘दुरुपयोग और दुष्प्रयोग के लिए खुला’ हुआ है. उनकी याचिका में यह भी कहा गया है कि इस कानून के ‘जन्मस्थान’ इंग्लैंड ने पहले ही इसे समाप्त कर दिया है.

सुप्रीम कोर्ट के बुधवार के आदेश के बाद मोइत्रा ने ट्वीट किया, ‘विक्ट्री!’, और साथ ही उन्होंने राजद्रोह कानून के ‘स्थगन के असर’ का वर्णन करने वाला एक दस्तावेज भी साझा किया.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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