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बुलेट ट्रेन के लिए अपनी जमीनें नहीं देना चाहते थे महाराष्ट्र के इन गांवों के लोग, पर अब तैयार हैं

महाराष्ट्र में मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए 433.82 हेक्टेयर भूमि की जरूरत है. उसमें से 287.74 हेक्टेयर यानी 66 फीसदी पालघर जिले में है, जहां शुरुआत में कई गांव इस योजना के विरोध में थे.

दाभाले ग्राम पंचायत, जहां पर पिछले साल बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट के लिए जमीन देने के लिए एक रिजोल्यूशन पास किया गया । फोटोः रीति अग्रवाल । दिप्रिंट

मुंबई: हरे-भरे, संकरी घुमावदार सड़कों वाले दाभाले गांव महाराष्ट्र के पालघर जिले के उन कई गांवों में से एक था, जो मोदी सरकार की शोपीस मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन परियोजना का विरोध कर रहे थे. इसे 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉन्च किया था.

लेकिन नवंबर 2021 में गांव की ग्राम पंचायत ने अपना रुख बदलते हुए परियोजना के पक्ष में एक औपचारिक प्रस्ताव पारित किया और भूमि अधिग्रहण के लिए अपना समर्थन पत्र दे दिया.

दाभाले उन कई गांवों में से है जो पिछले दो सालों से जिले में बुलेट ट्रेन परियोजना का सबसे कड़ा विरोध कर रहे थे, लेकिन अब इसके समर्थन में आगे आ रहे हैं.

महाराष्ट्र में पिछले दो सालों में 1.1 लाख करोड़ रुपये की परियोजना के लिए निजी भूमि अधिग्रहण में धीमी लेकिन स्थिर प्रगति हुई है. शिवसेना ने परियोजना का विरोध करते हुए, इसे गुजराती व्यापारियों और पालघर व ठाणे में आदिवासी समूहों को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा एक ‘गैर-जरूरी’ खर्च करार दिया था.

निगम ने जिन आंकड़ों को दिप्रिंट के साथ साझा किया, उसके मुताबिक, नेशनल हाई स्पीड रेल कॉरपोरेशन लिमिटेड (NHRSCL), 508-किमी लाइन के कार्यान्वयन प्राधिकरण ने गुजरात में लगभग 99 प्रतिशत, केंद्र शासित प्रदेश दादर-नगर हवेली और दमन-दीव में सौ प्रतिशत और महाराष्ट्र में 71 प्रतिशत भूमि का अधिग्रहण किया है.

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महाराष्ट्र में NHRSCL को पालघर में सबसे ज्यादा जमीन की जरूरत है. इस क्षेत्र की लगभग 30 फीसदी आबादी आदिवासी है (जनगणना 2011).

जिले के अधिकारियों का कहना है कि परियोजना के संबंध में यहां रहने वाले लोगों की शिकायतों को दूर करने के निरंतर प्रयास किए गए और इसके काफी हिस्से को निपटा लिया गया है. लेकिन कुछ निवासियों का कहना है कि वे इस योजना के विचार से अभी पूरी तरह सहमत नहीं हैं. अधिकारियों ने उन्हें समझाने के लिए किसी भी तरह के बल प्रयोग से इनकार किया.


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जमीन अधिग्रहण की रफ्तार कैसे बढ़ी

महाराष्ट्र में NHSRCL को 433.82 हेक्टेयर जमीन की जरूरत है. उसमें से 287.74 हेक्टेयर यानी 66 फीसदी पालघर जिले में है.

एनएचएसआरसीएल ने अभी तक 198.6 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया है, जो जिले में कुल भूमि की जरूरत का लगभग 70 प्रतिशत है.

दिप्रिंट से बात करते हुए पालघर के कलेक्टर गोविंद बोडके ने कहा, ‘हमने लगभग 70 प्रतिशत जमीन NHSRCL को सौंप दी है. वैसे हमने 90 प्रतिशत से ज्यादा जमीन का अधिग्रहण पूरा कर लिया है और जो हिस्सा बचा है, वह परियोजना के विरोध के कारण नहीं है. जमीन के मालिकाना हक, ग्राम पंचायत के स्वीकृत प्रस्तावों की जरूरत आदि जैसी तकनीकी बाधाएं हैं.

जिले में भूमि अधिग्रहण की गति तेज होने के पीछे जिला अधिकारी और स्थानीय लोग एक ही कारण बताते हैं. लेकिन , जिस परिप्रेक्ष्य में वे उन्हें बताते हैं, उसमें मामूली सा अंतर है.

बुलेट ट्रेन के नक्शे पर आने वाले गांवों के निवासियों का कहना है कि भूमि अधिग्रहण में तेजी आई क्योंकि जिले के अधिकारियों ने एक बार में पूरे गांवों से निपटने के बजाय लोगों के छोटे समूहों को परियोजना के पक्ष में लाने की कोशिश की, जमीन का मालिकाना हक रखने वाले लोगों से उनकी सहमति लेने के लिए उन्हें व्यक्तिगत तौर पर ‘टारगेट’ किया. और साथ ही लोगों को पैसे को ‘लालच’ दिया.

पालघर जिले के एक आदिवासी कार्यकर्ता विनोद दुमदा ने दिप्रिंट को बताया, ‘लॉकडाउन के दौरान बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए जमीन का अधिग्रहण किया गया. उस समय लोग असहाय थे और दिए जा रहे मुआवजे के लालच में आ गए. उन्होंने खासतौर पर उन जमींदारों को निशाना बनाया जो यहां नहीं रहते लेकिन उनकी जमीन यहीं है. सबसे पहले उन्होंने उनकी सहमति ली. जैसे-जैसे सहमति पत्रों का ढेर बढ़ता गया, परियोजना का विरोध कम होता गया क्योंकि फिर इसका कोई मतलब नहीं रह गया था.’

इसे लेकर अधिकारियों का अपना अलग नैरेटिव है. उनके मुताबिक वे व्यक्तिगत रूप से हर गांव में अलग-अलग जमींदारों और लोगों के छोटे समूहों तक पहुंचे, उन्हें परियोजना के बारे में बताया और ‘उचित मुआवजे की पेशकश की’.

बोडके ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमने हर गांव में लोगों के छोटे समूहों के साथ बैठकें कीं, ग्राम सभाओं में भाग लिया और परियोजना के बारे में लोगों की गलतफहमी को दूर करने की कोशिश की. हमने उनकी जमीन, उनके घरों और उनके पेड़ों के लिए यहां के हिसाब से बेहतर कीमत लगाई और उन्हें उचित मुआवजा दिया. इन सबकी वजह से बहुत से लोगों ने इस परियोजना के लिए धीरे-धीरे अपनी सहमति दी है.’

जिले के अन्य अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि हालांकि शिवसेना इस परियोजना के विरोध में थी. नवंबर 2019 और जून 2022 के बीच शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री होने के बावजूद भूमि अधिग्रहण की कवायद में उन्होंने बाधा नहीं डाली.

उन्होंने कहा, ‘कलेक्टर का कार्यालय राज्य की परियोजनाओं पर राज्य के साथ और केंद्र सरकार की परियोजना पर केंद्र के साथ काम करता है. यह केंद्र सरकार की परियोजना है और अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति को एक तरफ रख दें तो राज्य सरकार की ओर से बुलेट ट्रेन परियोजना पर काम रोकने का कोई स्पष्ट आदेश नहीं था.’

उन्होंने कहा कि लोगों को चिंता थी कि इससे उनका पूरा गांव विस्थापित हो जाएगा. वहीं कुछ मामलों में जमीन का मालिकाना हक रखने वाले और उस पर काबिज लोग, दोनों ही अलग-अलग थे. यह आदिवासी भूमि पर एक बहुत ही आम मसला है.

उन्होंने बताया, ‘हमने समझाया कि बुलेट ट्रेन एक रेखीय परियोजना (लिनिअर प्रोजेक्ट) है और इसे केवल 17.5 मीटर की चौड़ाई की जरूरत है, इसलिए पूरे गांवों के विस्थापित होने का सवाल ही नहीं उठता है.’

अधिकारी ने कहा, ‘हमने जमींदारों और निवासियों के बीच समझौता ज्ञापन (एमओयू) की व्यवस्था करके दूसरी चिंता को दूर करने की कोशिश की. इसके मुताबिक, जमींदार को मुआवजे का 30 प्रतिशत जमीन पर कब्जा करने वालों को देना होगा.’ उन्होंने दावा किया कि इस तरह के एमओयू पहली बार किसी प्रोजेक्ट में लागू किए जा रहे हैं.


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‘हमारे पास कोई विकल्प नहीं’

बीस साल के आस-पास की उम्र वाली पिंकी लादे की गोद में छह महीने का बच्चा और चेहरे पर उदासी है. फिलहाल तो उसे जमीन के मालिक से मुआवजे का हिस्सा पाने की उम्मीद न के बराबर है. इस जमीन पर उसका घर बना हुआ है.

पालघर के पड़घे गांव की रहने वाली पिंकी ने सामने लगे एक पुराने इमली के पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘जब मेरा परिवार यहां रहने आया था, तो यह पेड़ एक छोटा सा पौधा था. पांच पीढ़ियां यहां रही हैं. अगर हमें यहां रहने दिया होता तो ये छठी पीढ़ी होती.’ पिंकी अपने बच्चे के सिर को सहलाते हुए जमीन का अधिग्रहण करने लिए आधिकारिक तौर पर लगाए गए निशान की ओर देखने लगी.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘हम अपना घर नहीं छोड़ना चाहते. लेकिन हमारे पास क्या कोई विकल्प है? यह दिखाने के लिए कोई कागज नहीं है कि जमीन हमारी है. भले ही दशकों से हम यहां रह रहे हैं. वे हमें जो कुछ भी दे रहे हैं, अगर हम उसे लेने के लिए मना करते हैं तो वे एक दिन आकर हमारा घर तोड़ देंगे. इसलिए हमें जो दिया रहा है उसे लेना ही पड़ेगा.’

पडगे के निवासी पिंकी लाडे अपने बच्चे के साथ । फोटोः रीति अग्रवाल । दिप्रिंट

पड़ोसी गांव कल्लाले में प्रकाश राओते को बुलेट ट्रेन परियोजना से अपने 1.5 एकड़ के भूखंड से लगभग एक तिहाई एकड़ का नुकसान होने वाला है. उनकी जमीन पर उनके परिवार के 23 लोगों का संयुक्त अधिकार है और ज्यादातर जमीन के मामले उन्हीं के जैसे हैं.

राओते ने बताया, ‘भूमि अधिग्रहण अधिकारी पहले उन मालिकों से संपर्क करते हैं और उन्हें मनाते हैं जो गांव में नहीं रहते, जिनका जमीन से कोई लेना-देना नहीं है और जो पैसे पाकर बहुत खुश होंगे. जब वे सहमत होते हैं, तो अन्य संयुक्त मालिकों पर भी दबाव बन जाता है.’ हालांकि उनके परिवार के सदस्यों तक कोई नहीं पहुंचा है, जो अभी तक जमीन के मालिक हैं. वह कहते हैं, ‘लेकिन आने वाले समय में हमारे साथ भी इसी रणनीति का इस्तेमाल किया जाएगा’

कल्लाले के अन्य ग्रामीणों ने कहा कि परियोजना का विरोध करने वालों को ‘सरकारी काम में बाधा डालने’ के लिए पुलिस मामलों की धमकी दी जाती है.

ऊपर बताए गए जिले के अधिकारी ने कहा, ‘हमें उन सभी लोगों तक पहुंचने की उम्मीद है, जो जमीन पर मालिकाना हक रखते हैं. हम किसी को अपनी सहमति देने के लिए मजबूर नहीं कर रहे हैं.’

आदिवासी कार्यकर्ता दुमदा ने कहा, ‘यहां मुंबई-वडोदरा एक्सप्रेसवे के लिए भी जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है. हमें डर है कि आदिवासियों के पास यहां कोई जमीन नहीं बचेगी और जहां से बुलेट ट्रेन गुजर रही है, वो गांव अभी बहुत शांत हैं, ऑपरेशन शुरू होने के बाद रात को सो नहीं पाएंगे.’


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स्कूल, पार्क, स्ट्रीट लाइट के बदले जमीन

पालघर जिला कलेक्ट्रेट के आंकड़ों के अनुसार जिले में 71 गांव ऐसे थे जहां बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए जमीन का अधिग्रहण किया जाना था. इनमें से 44 पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार) अधिनियम, 1996 के अंतर्गत आते हैं.

अधिनियम कानूनी रूप से आदिवासी समुदायों के अधिकारों को मान्यता देता है और ग्राम सभाओं के जरिए स्व-शासन की अनुमति देता है. कानून के दायरे में आने वाले गांवों में जमीन का अधिग्रहण करने के लिए अधिकारियों को संबंधित ग्राम पंचायतों के सहमति प्रस्तावों की जरूरत होती है.

परियोजना अब तक 41 ग्राम पंचायतों से सहमति प्रस्ताव पाने में सफल रही है. हालांकि, इनमें से ज्यादातर सहमति विकास कार्यों की एक विस्तृत सूची के साथ सशर्त दी गई है. यहां की पंचायत गांव में विकास के इन कामों को सरकारी अधिकारियों से बदले में करने की अपेक्षा करते हैं.

दिप्रिंट से बात करते हुए दाभाले ग्राम पंचायत के एक सदस्य ने कहा, ‘हमारे गांव में सिर्फ तीन लोगों को परियोजना के लिए अपनी जमीन छोड़नी पड़ी है. लेकिन, हम बुलेट ट्रेन को अपने गांव से गुजरने दे रहे हैं, ताकि गांव वालों को इसके बदले में कुछ मिल जाए.’

ग्राम पंचायत ने अपने प्रस्ताव में 27 शर्तों का उल्लेख किया है जो सरकारी अधिकारियों को गांव की मंजूरी के बदले में पूरी करनी होगी. इनमें गांव के लिए एक अलग विकास कोष, गांव के मंदिर का जीर्णोद्धार, स्थानीय स्कूल का सुधार, उनके सामुदायिक हॉल की मरम्मत, गांव के लिए एक नया पार्क, और एक जिम बनाना आदि शामिल हैं.

शर्तों में यह भी उल्लेख है कि जमीन के जिस हिस्से को परियोजना के लिए अधिग्रहित नहीं किया जा रहा है, उसके आधिकारिक संपत्ति के कागजात में कहीं भी ‘बुलेट ट्रेन’ का उल्लेख नहीं होना चाहिए. ताकि जमीन मालिकों को संभावित भावी अधिग्रहण से बचाया जा सके. प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि पूरा मुआवजा दिए जाने के बाद ही एनएचएसआरसीएल काम शुरू कर सकती है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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