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LGBT समुदाय के लोगों ने कहा- धारा-377 रद्द होने से हम अपराधी तो नहीं रहे, पर समाज की सोच न बदली

6 सितंबर 2018 को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए एससी ने धारा-377 के कई हिस्सों को रद्द करते हुए कहा था कि यह संविधान में मिले समानता और सम्मान के अधिकार का हनन करता है.

एलजीबीटी समुदाय के लोग, प्रतीकात्मक तस्वीर | गेटी इमेज

नई दिल्ली: ऋषभ सिंह 6 सितंबर 2018 के दिन को याद करते हैं जिसने उनकी जिंदगी बदल दी. दो साल पहले इसी दिन उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिक संबंधों को अपराध करार देने वाली धारा-377 को निरस्त कर दिया था. उसी दिन सिंह ने अपने माता-पिता को अपनी यौन रुचि की जानकारी दी थी.

उन्होंने कहा, ‘मेरे जेहन में यह बात थी कि देश की शीर्ष अदालत भी मानती है कि मैं अपराधी नहीं हूं और इसने मुझे बाहर निकलकर अपने माता-पिता को अपनी यौन रुचि के बारे में बताने का आत्मविश्वास दिया.’

उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद सिंह कहते हैं कि वह इसे अपना दूसरा जन्मदिन मानते हैं जब उनका दोबारा ऐसे व्यक्ति के तौर पर जन्म हुआ जो अधिक स्वतंत्र और आत्मविश्वास से लबरेज है और सुकून में है.

मुंबई में प्रौद्योगिकी के पेशवर सिंह ने कहा, ‘यह पहला कदम है और मेरा मानना है कि अगले कदम का समय आ गया है. समाज की मानसिकता में हमारे प्रति अब भी असमानता है, चाहे फिर वह विरासत कानून के मामले में हो या फिर सेरोगेसी कानून हो. अभी हमें बहुत लंबा रास्ता तय करना है.’

हालांकि, पेशे से इंटीरियर डिजाइनर सुनैना (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि इस फैसले से उनके जीवन में खास बदलाव नहीं आया है.

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उन्होंने कहा, ‘सार्वजनिक रूप से मैं अपनी पहचान जाहिर नहीं कर सकती क्योंकि समाज द्वारा स्वीकार करना बहुत मुश्किल है. मैं मध्यम वर्गीय परिवार से आती हूं, जहां पर समलैंगिकता के बारे में चर्चा करने की भी मनाही है. इस फैसले ने हमारे लिए यह अच्छा किया कि कम से कम हम अपराधी नहीं माने जाते, लेकिन समाज की मानसिकता वही है.’

उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय ने छह सितंबर 2018 को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सर्वसम्मति से भारतीय दंड संहिता की धारा-377 के कई हिस्सों को रद्द करते हुए कहा था कि यह संविधान में मिले समानता और सम्मान के अधिकार का हनन करता है.

धारा-377 के तहत कथित अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करने पर उम्र कैद की सजा का प्रावधान था.

इस फैसले का समाज के अधिकतर धड़ों ने स्वागत किया, खासतौर पर युवाओं ने इसे प्यार की जीत करार दिया.

बेंगलुरू के रहने वाले पेशे से लेखक शुभांकर चक्रवर्ती ने कहा कि अगले चरण में एलजीबीटी समुदाय को भी उसी तरह के नागरिक अधिकार दिए जाने चाहिए जैसा सामान्य आबादी को हासिल है.

उन्होंने कहा, ‘एलजीबीटी समुदाय के लोग भी कर देते हैं. वे भी कानून का पालन करते हैं और उन्हें भी समान विशेषाधिकारों का हक है.’

चक्रवर्ती ने कहा, ‘निश्चित तौर पर स्थितियां बदली हैं. एलजीबीटी लोग अब अधिक आत्मविश्वास के साथ खुद को व्यक्त कर रहे हैं. व्यक्तिगत रूप से बढ़ रहे हैं और अब भेदभाव या उत्पीड़न के डर के बिना रिश्ते में रह रहे हैं. हालांकि, यह प्राथमिक बदलाव शहरों में और कुछ लोगों तक सीमित है. ट्रांसजेंडर लोगों की हालत में सुधार नहीं हुआ है.’

ट्रांसजेडर बिट्टू कोंडैया ने चक्रवर्ती के विचार से सहमति जताई और कहा कि उच्चतम न्यायालय के फैसले से समुदाय को बहुत लाभ नहीं हुआ है.

धारा-377 के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले गैर सरकारी संगठन नाज फाउंडेशन की सदस्य अंजली गोपालन ने कहा कि फैसले के बाद एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर) समुदाय बहुत मजबूत हुआ है लेकिन उन्हें और अधिकार दिए जाने की जरूरत है.

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