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कश्मीरी सिखों के लिए धर्मांतरण नहीं बल्कि नौकरी और ‘कोटा’ है मुद्दा, जिन्हें किया जा रहा दरकिनार

कश्मीर में करीब डेढ़ लाख सिख हैं जिनमें से करीब 60 हजार वोटर्स बारामूला, कुपवाड़ा, बडगाम, पुलवामा, अनंतनाग और श्रीनगर के क्षेत्रों में करीब 136 गांवों में रहते हैं.

शत्रुगांव, त्राल में 8 किलोमीटर में फैला पूरी तरह से सिक्खों का गांव जिसमें 1500 लोग रहते हैं । फोटोः अनन्या भारद्वाज

शत्रुगांव (त्राल): दक्षिण कश्मीर में आतंकी गतिविधियों का एक अहम ठिकाना माने जाने वाले त्राल के घने जंगलों से होकर गुजरने वाला संकरा और घुमावदार रास्ता शत्रुगांव जाकर खत्म होता है, जो कि करीब 1,500 लोगों की आबादी वाला एक सिख बहुल गांव है और यह करीब 8 किमी के दायरे में बसा है.

आसपास के मुस्लिम बहुल गांवों से घिरे इस गांव के निवासियों का कहना है कि सैकड़ों सालों से सद्भाव के साथ रहते आ रहे हैं, यहां कि 1990 के दशक में आतंकवाद के चरम पर होने के दौरान भी यह रिश्ता ऐसे ही चलता रहा.

उनकी हमेशा से ही एक ही प्रमुख शिकायत रही है कि केंद्र और राज्य की सरकारें उनकी उपेक्षा करती आ रही हैं. स्थानीय नागरिकों का कहना है कि वे अब सुर्खियों में हैं, लेकिन तमाम गलत कारणों से.

शत्रुगांव के ग्रामीण, कश्मीरी सिखों शामिल हैं, जो घाटी की आबादी का 1.87 फीसदी हिस्सा हैं. पिछले महीने से तथाकथित ‘लव जिहाद’ का नैरेटिव घाटी के सिखों के बीच छाया हुआ है, जब श्रीनगर में एक सिख महिला को उसके मुस्लिम पति से अलग कर दिया गया और एक सिख व्यक्ति से शादी करा दी गई.

घाटी के सिख नेता जगमोहन सिंह रैना ने कहा कि ‘धर्मांतरण जैसे गैर-मुद्दे’ ने उनकी ‘वास्तविक चिंताएं’ दरकिनार कर दी हैं—जैसे जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यक का दर्जा, उनके बच्चों के लिए नौकरियों में आरक्षण, पंजाबी भाषा को मान्यता और राजनीति में प्रतिनिधित्व आदि.

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रैना ऑल पार्टी सिख कोऑर्डिनेशन कमेटी के अध्यक्ष हैं, जो जम्मू-कश्मीर में सिखों का एक प्रमुख संगठन है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘यहां लव जिहाद या जबरन धर्मांतरण जैसा कोई मुद्दा ही नहीं है. यह कभी कोई मुद्दा रहा ही नहीं है और न ही ऐसा कोई डर है. ये तो आग लगाने वाली बात है.’

उन्होंने कहा, ‘हां, कुछ महिलाओं को बहला-फुसलाकर धर्म परिवर्तन कराने के मामले सामने आए हैं, लेकिन ऐसा तो कहीं भी हो सकता है. ऐसा नहीं है कि मुसलमान जानबूझकर हमें नुकसान पहुंचाने के लिए ऐसा कर रहे हैं. ज्यादातर मामलों में ये प्रेम प्रसंग होते हैं.’

शत्रुगांव के प्रधान और क्षेत्र में गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष सुरिंदर सिंह के मुताबिक, उनका गुस्सा मुसलमानों के प्रति नहीं बल्कि केंद्र सरकार की तरफ से ‘घाटी के सिखों की अनदेखी’ करने और ‘गलत कारणों से सुर्खियों में लाने’ को लेकर है.

उन्होंने कहा, ‘हमें स्थानीय मुसलमानों से कोई परेशानी नहीं है, बल्कि नाराजगी उस सरकार से है जिसने न कभी यहां के सिख समुदाय की बात की न ही उस पर ध्यान दिया. हम अल्पसंख्यक का दर्जा, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग करते रहे हैं, लेकिन हमारे सभी आग्रह अनसुने ही रहे हैं.

उन्होंने कहा, ‘आखिरकार अब जब हमारी तरफ कुछ ध्यान गया, जब लोगों को घाटी में एक सिख समुदाय के बारे में पता चला, तो वह गलत कारणों से है.’

रैना के मुताबिक, कश्मीर में सिखों का इतिहास 500 साल से अधिक पुराना है, जब सिखों के छठे गुरु गुरु हरगोबिंद साहिब ने घाटी का दौरा किया था. उन्होंने बताया कि सन् 1620 में गुरु हरगोबिंद साहिब की यात्रा की स्मृति में जम्मू-कश्मीर में कई ऐतिहासिक गुरुद्वारों का निर्माण किया गया है.

शत्रुगांव में गुरुद्वारा । फोटोः अनन्या भारद्वाज । दिप्रिंट

‘हम कश्मीर में भारत का झंडा थामे हैं’

घाटी में सिखों की मुख्य चिंता उनका ‘राजनीतिक प्रतिनिधित्व कम’ होने को लेकर है. सिखों को शिकायत है कि इतने सालों तक घाटी का हिस्सा होने के बावजूद ‘उनके पास अपने मुद्दों और आकांक्षाओं को जाहिर करने के लिए कभी कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं रहा.

अब वे चाहते हैं कि त्राल और बारामूला में कश्मीरी सिखों के लिए दो विधानसभा सीटें रिजर्व करने के अलावा एक सिख अध्यक्ष के नेतृत्व में ‘सिख अल्पसंख्यक आयोग’ नियुक्त किया जाए.

ऑल डिस्ट्रिक्ट गुरुद्वारा मैनेजमेंट कमेटी के अध्यक्ष बलदेव सिंह रैना ने कहा, ‘कश्मीरी सिख लंबे समय से अल्पसंख्यक का दर्जा और राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व की मांग कर रहे हैं, लेकिन कुछ नहीं किया गया.’

उन्होंने कहा, ‘चूंकि परिसीमन प्रक्रिया अभी शुरू हो रही है, हम चाहते हैं कि सरकार सिखों के लिए कम से कम दो सीटें तो आरक्षित करे ताकि हमारे पास सरकार के समक्ष एक समुदाय के तौर पर हमारी समस्याएं रखने के लिए कोई प्रतिनिधि तो हो.’

बलदेव रैना उस प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे जिसने 4 जुलाई को गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की थी और इन चिंताओं को उनके समक्ष उठाया था.

बतौर शिक्षक सेवानिवृत्त हुए शत्रुगांव के निवासी अजीत सिंह ने कहा कि कश्मीर में सिख हमेशा ‘भारत सरकार के समर्थन’ में खड़े रहे हैं, यहां तक की अशांत दौर में भी, और इसके लिए उन्हें पुरस्कृत किया जाना चाहिए.

उन्होंने कहा, ‘चुनाव के दौरान कश्मीर में अलगाववादियों की ओर से आह्वान किया जाता रहा है कि किसी को वोट नहीं देना है, लेकिन पूरे सिख समुदाय ने हमेशा वोट दिया. हमने हमेशा भारत का समर्थन किया, चाहे वह चुनाव हो या अनुच्छेद 370 निरस्त करना, संघर्ष चरम पर होने के दौरान भी, इसके बावजूद सरकार ने कभी हमारी बात नहीं सुनी.’

उन्होंने आगे जोड़ा, ‘हम वही हैं जो घाटी में भारत का झंडा थामे हैं, यहां भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. हम वो नहीं हैं जो भाग जाएं. क्या हमारी आवाज नहीं सुनी जानी चाहिए?’


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‘अगर कश्मीरी पंडितों को नौकरियों में आरक्षण, तो हमें क्यों नहीं?

सिखों की संख्या 1.5 लाख है, इसमें से 60,000 मतदाता कश्मीर के बारामूला, कुपवाड़ा, बडगाम, पुलवामा, अनंतनाग और श्रीनगर क्षेत्रों के 136 गांवों में रहते हैं. अधिकांश आबादी कृषि से जुड़ी है और उनके पास सेब के बाग, मकई के खेत हैं, जबकि कुछ के पास सरकारी नौकरी भी है.

हालांकि, समुदाय को ऐसा लगता है कि सरकारी नौकरियों में बिना किसी आरक्षण या कोटा के, जैसा कश्मीरी पंडितों को मिला हुआ है, युवाओं को अच्छी नौकरी मिलना मुश्किल है, जिससे उनका पलायन हो रहा है.

27 वर्षीय मनप्रीत कौर ने कहा, ‘हमें अन्य अल्पसंख्यकों की तरह ही आरक्षण की जरूरत है. हमें नौकरियों की जरूरत है ताकि हम यहां कश्मीर में सरकारी दफ्तरों में भी अपने समुदाय का प्रतिनिधित्व कर सकें. अगर कश्मीरी पंडितों का प्रतिनिधित्व हो सकता है और डोगरा को मिल सकता है, तो हम क्यों नहीं?’

मनप्रीत ने वाणिज्य में स्नातकोत्तर किया है और कश्मीर यूनिवर्सिटी से बी.एड की डिग्री भी ली है. उसने कहा कि उसने कई बार सरकारी नौकरी के लिए आवेदन किया लेकिन उसे शॉर्टलिस्ट नहीं किया गया.

बलदेव रैना का कहना है कि सरकार को प्रवासियों के लिए प्रधानमंत्री राहत पैकेज के तहत खाली पड़े पदों पर कश्मीर के ‘माइक्रो अल्पसंख्यकों’ को नियुक्त करने पर विचार करना चाहिए.

रैना ने कहा, ‘उन पदों में से 50 प्रतिशत से अधिक अभी खाली पड़े हैं. सिखों के लिए उन पर विचार किया जाना चाहिए. इसके अलावा, अगर हमें नौकरी नहीं दी गई और हमारे बच्चे इसी तरह पलायन करते रहे, तो सिख समुदाय विलुप्त हो जाएगा.’

सिक्ख समुदाय के लोग । बाईं ओर सबसे किनारे मनप्रीत कौर । फोटोः अनन्या भारद्वाज । दिप्रिंट

बेहतर जीवन के लिए धर्म बदल रहीं सिख महिलाएं

हालांकि, घाटी के सिखों का कहना है कि कोई ‘जबरन धर्मांतरण’ नहीं हो रहा फिर भी वे ‘धर्मांतरण विरोधी कानून’ लाने की मांग करते हैं.

मनप्रीत कौर के मुताबिक, कुछ मामलों में सिख महिलाएं ‘भटक’ जाती हैं और ‘धर्म परिवर्तन’ का विकल्प चुन लेती हैं क्योंकि उनके पास करियर के अवसर नहीं हैं.

उन्होंने कहा, ‘हम यहां धर्मांतरण की घटनाओं के बारे में सुन रहे हैं क्योंकि काफी पढ़ी-लिखी होने के बावजूद यहां की महिलाओं के पास करियर के बेहतर विकल्प नहीं हैं. उन्हें लगता है कि धर्म परिवर्तन करने से उन्हें नौकरी और एक बेहतर जीवन मिल सकता है.’

मनप्रीत ने कहा कि नौकरियों में प्रतिनिधित्व धर्मांतरण को रोकने का एक उपाय हो सकता है. उन्होंने कहा, ‘हमें नौकरियों में, खेलों में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए जो हमारी महिलाओं को बेहतर करियर मुहैया करा सकता है. उन्हें करियर चुनने के विकल्प दें ताकि वे भटकें नहीं और धर्म परिवर्तन के बारे में न सोचें.’

हालांकि, उनके पिता अजीत सिंह का कहना है कि ‘दो समुदायों के बीच सद्भाव’ बहाल रखने के लिए एक धर्मांतरण विरोधी कानून की जरूरत है.

उन्होंने कहा, ‘ये बेरोजगार लड़कियां बेहतर जीवन के लिए धर्म परिवर्तन को तैयार हो जाती हैं. चूंकि वे घर में बेकार बैठी हैं, ऐसे में भटक जाती हैं और धर्मांतरण उसी का नतीजा है. इसके अलावा, हमें लगता है कि अगर धर्मांतरण विरोधी कानून आता है, तो यह दो समुदायों के दो लोगों को एक-दूसरे से करीब आने से रोकेगा और दोनों समुदायों के बीच सद्भाव बनाए रखने में भी मददगार होगा.’

अपनी संस्कृति खत्म होने का डर

पिछले साल सितंबर में पारित एक विधेयक के जरिये पंजाबी को जम्मू-कश्मीर की आधिकारिक भाषाओं की सूची से बाहर किए जाने के बाद से यहां के सिखों को अपनी संस्कृति खत्म होने का डर भी सता रहा है.

अभी कश्मीरी, डोगरी, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में आधिकारिक भाषाओं की सूची में शामिल हैं.

शत्रुगांव के निवासी सुंदरपाल सिंह ने कहा, ‘युवा पीढ़ी हमारी बुनियाद, हमारी संस्कृति, हमारी भाषा को पूरी तरह नहीं समझती है.’

उन्होंने कहा, ‘क्या हमें इससे परेशान नहीं होना चाहिए? हम यह मांग करते रहे हैं कि पंजाबी को आधिकारिक भाषा के रूप में बहाल किया जाए और इसे स्कूलों में पढ़ाया जाए, लेकिन किसी को हमारी परवाह ही नहीं है. हमारे बच्चे हमारी संस्कृति से दूर जा रहे हैं.’

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