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नेहरू बनाम मुखर्जी: संसदीय इतिहास की वह बेहतरीन बहस जिसे दोबारा याद करने की जरूरत है

12 मई, 1951 को संविधान में पहला संशोधन विधेयक सदन में पेश किया गया था. इस पहले संशोधन पर जो बहस प्रधानमंत्री पंडित नेहरू और विपक्ष के अनौपचारिक नेता डॉ एसपी मुखर्जी के बीच हुई वह एक महान मौखिक द्वंद्व था.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी और जवाहर लाल नेहरू/ कॉमंस

लगभग एक दर्जन राज्यसभा सांसदों को संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में पहले ही दिन सदन से निलंबित कर दिया गया. इन सदस्यों को अगस्त में मानसून सत्र के अंत में उनके आचरण के लिए निलंबित कर दिया गया था. सामान्य बीमा व्यवसाय (राष्ट्रीयकरण) संशोधन विधेयक, 2021 के पारित होने के दौरान इन विपक्षी सदस्यों द्वारा सदन के वेल में हंगामा करने के बाद उस समय मार्शलों को बुलाना पड़ा था.

निलंबित सदस्यों में कांग्रेस के छह, तृणमूल कांग्रेस और शिवसेना के दो-दो और भाकपा और माकपा के एक-एक सदस्य शामिल हैं. ऐसे में लगता है कि संसदीय बहस के स्तर और विधायिकाओं और संसद में निर्वाचित प्रतिनिधियों के व्यवहार पर एक बार फिर बहस करने की जरूरत है.

इसी संदर्भ में आज हम एक ऐसी बहस के बारे में बात करने जा रहे हैं जिसे एक संदर्भ बिंदु और उच्चतम मानदंड के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है और वर्तमान समय में इसे याद करना उचित होगा क्योंकि यह संसदीय बहस के मानकों को एक उच्च स्तर पर पुन: स्थापित करने में भी मददगार होगी.


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पहला संशोधन विधेयक और बहस

यह बहस आज से लगभग सात दशक पहले पहले 1951 में हुई थी. 12 मई, 1951 को संविधान में पहला संशोधन विधेयक पेश किया गया था. इस विधेयक में कुछ मौलिक अधिकारों को सीमित करने के प्रावधना थे जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संपत्ति का अधिकार जैसे मौलिक अधिकार शामिल थे. इसका उद्देश्य नौवीं अनुसूची बनाना भी था जिसे कई विशेषज्ञों ने एक संवैधानिक तिजोरी करार दिया. मोटे तौर पर कहें तो, नौवीं अनुसूची में रखे गए कानूनों को न्यायिक रूप से चुनौती नहीं दी जा सकती या अन्य शब्दों में न्यायपालिका द्वारा किसी भी कानून की जांच करने का अधिकार, जिसे संविधान द्वारा प्रदान किया गया था, वह सीमित करने का प्रावधान था.

इस पहले संशोधन पर जो बहस हुई वह हमारे संसदीय इतिहास की सबसे आक्रामक और बेहतरीन बहसों में से एक है. यह प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और विपक्ष के अनौपचारिक नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बीच एक महान मौखिक द्वंद्व था.

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पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस बहस की शुरुआत करते हुए न केवल विपक्ष बल्कि प्रेस को भी आड़े हाथों लिया . जो लोग नेहरू को उदारवादी मानते हैं उन्हें, नेहरू की प्रेस पर की गई टिप्पणियों को पढ़ने के बाद अपने मत पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है.

नेहरू ने अपने वक्तव्य में आरंभ में ही कहा: ‘मेरे लिए यह बड़े कष्ट का विषय हो गया है कि दिन-ब-दिन अश्लीलता, अभद्रता और असत्य से भरे ये समाचार पत्र न केवल मुझे और सदन को चोट पहुंचा रहे हैं बल्कि ये युवा पीढ़ी के दिमाग में जहर घोल रहे हैं. वे उनकी नैतिक इमानदारी के मानकों को नीचा कर रहे हैं और यह मेरे लिए राजनीतिक समस्या नहीं, यह एक नैतिक समस्या है.’

नेहरू ने अपने भाषण में इस पहले संशोधन को सही ठहराने के साहसी प्रयास के साथ समाप्त किया.

गौरतलब है कि इस संशोधन को लेकर नेहरू को न केवल उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से बल्कि अपनी ही पार्टी और सरकार के भीतर भी कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा था.

अपने भाषण को समाप्त करते हुए नेहरू ने ललकारते हुए कहा, ‘आपको, मुझे और देश को सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के साथ इंतजार करना पड़ता है.. और हम उनके लिए जिम्मेदार हैं.’

वह गरजते हुए बोले, ‘हम असहाय बनकर कब तक यह कहते रहेंगे कि हमारे सामने हालात ही ऐसे हैं कि हम पिछले 10 यां बीस सालों से जो काम करने को कहते आ रहे हैं , उन्हें नहीं कर पाए.’

मुखर्जी ने सदन के पटल पर नेहरू के इस भाषण के जवाब में ऐसा तार्किक और आक्रामक भाषण दिया विपक्ष ही नहीं कांग्रेस के भी कई सांसदों ने उनकी प्रशंसा के पुल बांध दिए. कांग्रेस सांसद एनजी रंगा ने इसे अब तक के सबसे शक्तिशाली और वाकपटु भाषणों में से एक बताया. रंगा ने महान ब्रिटिश सांसद और दार्शनिक एडमंड बर्क की तर्ज पर मुखर्जी को ‘भारतीय बर्क’ का दर्जा दिया.

‘आप इस संविधान को कागज का टुकड़ा समझ रहे हैं’

भारतीय संसद के इतिहास की इस सबसे बड़ी बहसों में से एक पर रिपोर्टिंग करते हुए, अंग्रेजी दैनिक ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने अगले दिन रिपोर्ट में लिखा , ‘श्री नेहरू के भावुक आख्यान के मुकाबले डॉ मुखर्जी के जोशीले तर्क कहीं अधिक बेजोड़ थे.’

जवाहर लाल नेहरू श्यामा मुखर्जी के साथ(बाएं)/फोटो: विकी मीडिया कॉमंस

दिलचस्प बात यह है कि मुखर्जी के भाषण से सदन के सदस्य इतने प्रभावित थे कि रंगा और एक अन्य कांग्रेस सांसद ठाकुरदास भार्गव, जिन्होंने मुखर्जी के बाद अपनी बात सदन में रखी , ने अपने ही प्रधान मंत्री से मुखर्जी द्वारा नागरिक स्वतंत्रता के संबंध में उठाए गए बिंदुओं का संज्ञान लेने का आग्रह किया.

मुखर्जी के शानदार वक्तृत्व और धारदार तर्कों की एक झलक देने उनके भाषण के इस अंश से मिलती है:

‘आप एक कानून पारित कर सकते हैं और कह सकते हैं कि संविधान बनाने, व्याख्या करने और काम करने का पूरा कार्य पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथों में छोड़ दिया जाएगा, उन्हें ऐसे ही लोगों द्वारा सहायता प्रदान की जाएगी, जिनसे वह परामर्श करना चाहते हैं. ..आप इस संविधान को कागज का टुकड़ा समझ रहे हैं.’

मुखर्जी ने अपने भाषण को एक यादगार टिप्पणी के साथ समाप्त किया जिसमें ‘स्वतंत्र भारत के लोगों की स्वतंत्रता पर इस अतिक्रमण’ के बारे में बात की गई थी जो पहले संशोधन के माध्यम से प्रस्तावित था.

मुखर्जी ने कहा, ‘एक लुप्त हो चुकी स्वतंत्रता की स्मृति में सबसे दुखद बात यही कही जा सकती है कि यह स्वतंत्रता हमने खो दी क्योंकि समय रहते जब उसे बचाया जा सकता था, उस समय भी उसे बचाने के लिए हम कुछ करने में विफल रहे.’


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शब्दों के बाण

पहले चरण की जबरदस्त बहस के बाद यह विधेयक प्रवर समिति को भेजा गया और फिर जैसे ही समिति ने रिपोर्ट दी और विधेयक को अंततः कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई नेहरू और मुखर्जी के बीच एक और आक्रामक और शानदार बहस हुई.

कई अन्य दिग्गज भी इस बहस में कूद पड़े. उनमें आचार्य कृपलानी भी थे जिन्होंने विपक्ष की ओर से कटाक्ष से भरे भाषण में नेहरू पर निशाना साधते हुए कहा , ‘हम पर आरोप है कि हम मूर्तिपूजक हैं और लोगों की पूजा करते हैं. . हम किसके द्वारा आरोपित हैं? मुझे यकीन है कि इस मूर्ति पूजा के सबसे बड़ा लाभार्थी तो हमारे प्रधान मंत्री हैं . यह मूर्ति पूजा न हो रही होती तो यह सरकार पिछले तीन वर्षों के दौरान कम से कम 20 बार गिर गई होती.’

प्रसिद्ध एंग्लो-इंडियन शिक्षाविद् फ्रैंक एंथोनी, जिन्होंने अनिच्छा से बिल के पक्ष में मतदान किया, ने अद्भुत वाकपटुता का उदाहरण देते हुए कहा, ‘ कम्युनिस्टों की तानाशाही रोकने का एक ही तरीका बचा है और वह है जवाहरलाल नेहरू की तानाशाही को स्वीकार करना. मुझे यह स्वीकार है इसलिए मैं जवाहरलाल नेहरू को पूरा समर्थन देने को तैयार हूं. . इन संशोधनों का पूर्ण समर्थन करने का मेरे लिए यही एकमात्र कारण है.’

इस संशोधन विधेयक पर मतदान से पहले मुखर्जी और नेहरू में एक और मुकाबला हुआ. पूरा सदन इन दोनों दिग्गजों के शब्द बाणों को चलते हुए देख रहा था.

मुखर्जी ने नेहरू को इन शब्दों में चेतावनी दी, ‘आप भूतों से लड़ने के लिए संविधान को पारित या संशोधित नहीं कर सकते.’ उन्होंने नेहरू की तुलना शेक्सपियर के हेमलेट में काल्पनिक परेशानियों से लड़ने वाले डेनमार्क के राजकुमार से की.

अंतिम मौखिक युद्ध में, नेहरू इतने आवेश में आ गए कि क्रोध में अपनी मुट्ठियां हिलाते हुए उन्होंने अपने विरोधियों को चुनौती दी, ‘इस मुद्दे और हर किसी मुद्दे पर बौद्धिक रूप से या किसी अन्य प्रकार की लड़ाई में हर जगह आपका मुकाबला करें.’

त्रिपुरदमन सिंह (‘सिक्सटीन स्टॉर्मी डेज़’ पृष्ठ 184-185) द्वारा इस दूसरे मौखिक द्वंद्व का एक विशद विवरण दिया गया है जिसने सदन में भी सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया था:

कई दिनों की तीखी बहस और आलोचना से अपना धैर्य खो चुके नेहरू ने आवेश में कहा, ‘लगातार आरोपों और निंदाओं को सुनना मेरे धैर्य के लिए बहुत अधिक था. मैं कहता हूं कि यह विपक्ष सच्चा विपक्ष नहीं है, वफादार विपक्ष नहीं है, वफादार विपक्ष नहीं है. मैं यह सोच समझ कर कर कह रहा हूं.’

नेहरू के गुस्से को और भड़काते हुए मुखर्जी का तीखा जवाब आया, ‘तुम्हारा विधेयक सच्चा नहीं है.’

नेहरू ने गुस्से में अपनी मुट्ठी हिलाते हुए मुखर्जी पर झूठे बयान और निंदनीय भाषण देने का आरोप लगाया.

मुखर्जी का जवाब आया, ‘…क्योंकि आपकी असहिष्णुता निंदनीय है.’

मुखर्जी पर निशाना साधते हुए नेहरू ने जवाबी हमला किया, ‘इस देश में राष्ट्रवाद के नाम पर और स्वतंत्रता के नाम पर सांप्रदायिकता के सबसे संकीर्ण सिद्धांतों का प्रचार करना कुछ लोगों के लिए यह फैशन बन गया है.’

मुखर्जी ने नेहरू पर पलटवार किया, ‘आप कट्टर सांप्रदायिक हैं, इस देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार हैं.’

नेहरू ने कहा, ‘हमें यहां इस सदन के कुछ सदस्यों से बहुत कुछ बरदाश्त करना पड़ रहा है …’.

मुखर्जी ने फिर पलटवार करते हुए नेहरू से कहा, ‘यह तानाशाही है, लोकतंत्र नहीं.’

जब कांग्रेस के दिग्गज नेता और शिक्षाविद् मदन मोहन मालवीय के बेटे गोविंद मालवीय ने प्रधानमंत्री के भाषण में लगातार रुकावट की शिकायत की, तो नेहरू ने उपहास किया, ‘मैंने उन्हें आमंत्रित किया है … मैं केवल यह देखना चाहता था कि डॉ मुखर्जी में कितना संयम है. .

मुखर्जी ने कहा, ‘आपने क्या संयम दिखाया है?’

प्रधान मंत्री नेहरू ने क्षुब्ध होकर कहा, ‘यह हम हैं जो इन बड़े बदलावों को लाए हैं, न कि सरकार के क्षुद्र आलोचक और यह हम हैं जो देश में बड़े बदलाव लाने जा रहे हैं.’

संविधान में पहले संशोधन को लेकर संसद में लगभग 16 दिनों तक बहस चली और इसमें दर्जनों वक्ताओं ने अपने विचार रखे. अंतत: यह तीखी बहस 31 मई 1951 को शाम 6:40 बजे समाप्त हुई जब अध्यक्ष ने सदन में इस पर मतदान करवाया.

कांग्रेस का सदन में जबरदस्त बहुमत था इसलिए इसके पक्ष में 228 मत डाले गए, विरोध में 20 मत थे और लगभग 50 सदस्यों ने मतदान नहीं किया . इस प्रकार भारतीय संविधान में पहला संशोधन विधेयक पारित होगया लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में भारत के संसदीय इतिहास में अब तक की सबसे बेहतरीन बहस थी.

(संदर्भ ग्रंथ्: त्रिपुरदमन सिंह की ‘सिक्सटीन स्टार्मी डेज़’ (पेंगुइन), आदिल हुसैन और त्रिपुरदमन सिंह द्वारा लिखित डिबेट्स दैट डिफाइंड इंडिया (हार्पर कॉलिन्स)

(लेखक आरएसएस से जुड़े थिंक-टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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