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मई में मनरेगा के तहत काम मांगने वाले परिवारों की संख्या 3.1 करोड़ हुई, क्या हैं इसके मायने

मनरेगा के तहत काम की मांग करने वाले परिवारों की रिकॉर्ड तोड़ संख्या से लेकर खपत और एफएमसीजी की बिक्री में भारी गिरावट तक- सभी संकेत ग्रामीण आजीविका संकट की ओर इशारा करते हैं.

मध्य प्रदेश में मनरेगा के तहत काम करते मजदूर | एएनआई

नई दिल्ली: जरा एक ऐसी नौकरी के बारे में सोचिए, जहां अकुशल श्रमिकों के लिए दैनिक मजदूरी कानूनी रूप से तय की गई न्यूनतम मजदूरी और बाजार मजदूरी दोनों से बेहद कम है. काम भी एक बार में सिर्फ दस दिन तक ही मिल सकता हो और मजदूरी बैंक खाते में जमा होने में भी 15 दिन से ज्यादा का समय लगे.

भीषण गर्मी में एक दिन में छह से आठ घंटे काम करना जिसमें सड़कें बनाना या जलाशय खोदना, कुदाल या फावड़े से मिट्टी को खोदने का काम शामिल है. क्या संभावना है, ऐसी नौकरी के लिए सैकड़ों हजारों कतार में खड़े होंगे? और जब लाखों लोग ठीक ऐसा ही करते हैं तो यह किस ओर इशारा करता है?

2006 में एक सामाजिक सुरक्षा कवच कार्यक्रम के रूप में शुरू किया गया, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी कि मनरेगा ग्रामीण परिवारों को 100 दिनों के काम की गारंटी देता है. इसने इस मई में एक तरह का रिकॉर्ड बनाया है.

काम की मांग करने वाले परिवारों की संख्या 3.07 करोड़ तक पहुंच गई जो योजना की शुरुआत के बाद से सबसे अधिक है.

पिछले महीने परिवारों द्वारा की गई काम की यह मांग, महामारी से पहले के सालों (2015-2019) के दौरान पांच साल के औसत से 43 प्रतिशत अधिक है.

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ग्रामीण परिवार उस एक दिन की नौकरी के लिए कतार में लगा हैं जहां मजदूरी के रूप में बेहद ही कम भुगतान किया जाता है. अकुशल पुरुष श्रमिकों के लिए औसत दैनिक वेतन 337 रुपये की तुलना में प्रति दिन लगभग 209 रुपये ही मिलते हैं. मनरेगा में काम की बढ़ती मांग ग्रामीण भारत में गंभीर संकट का संकेत है.

यह आंकड़े बताते हैं कि उनके पास ऐसी पर्याप्त नौकरियां नहीं हैं जो भोजन की बढ़ती कीमतों के बीच उनकी खाने की जरूरतों को भी पूरा कर सकें.

‘मुद्रास्फीति के लिए समायोजित गैर-कृषि ग्रामीण मजदूरी, जनवरी 2022 से अनुबंधित’ के आकड़ें और भी निराशाजनक हैं जो भीतरी इलाकों में आजीविका संकट का संकेत देते नजर आ रहे हैं.

ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वालों की ज्यादा संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में श्रम की मांग में बढ़ोतरी का संकेत दे सकती है. वास्तविकता यह है कि काम की अनुपलब्धता के कारण प्रवासी श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा महामारी के बाद शहरों में वापस नहीं गया.

इस योजना पर बारीकी से नज़र रखने वाले अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बेंगलुरू में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर राजेंद्रन नारायणन ने कहा कि आम तौर पर मनरेगा जैसी योजनाओं में पुरुषों से ज्यादा महिलाएं काम की मांग करती हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि अब पुरुष भी कतार में हैं.

नारायणन ने दिप्रिंट को बताया, ‘अप्रैल और मई के महीने में मनरेगा की सबसे ज्यादा मांग रही है. और संख्या (3.07 करोड़ परिवार जो काम की मांग कर रहे हैं) को कम करके आंका गया है. हमारे चल रहे शोध से पता चलता है कि योजना के तहत मांगे गए कार्य के 32-34 प्रतिशत व्यक्ति-दिनों को कम करके आंका गया है.’


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वाहन पंजीकरण और एफएमसीजी बिक्री में गिरावट

रोजगार योजना के अलावा अन्य संकेतक भी ग्रामीण आय और मांग में गिरावट की ओर इशारा करते हैं.

उदाहरण के लिए ग्रामीण भारत शहरी लोगों की तुलना में अधिक दोपहिया वाहन खरीदता है. लेकिन कुल मिलाकर, अप्रैल-मई 2022 में नए वाहन पंजीकरण, 2018 में इन महीनों के दौरान दर्ज बिक्री की तुलना में 21 फीसदी कम थे.

हो सकता है कि कृषि आय पर निर्भर ग्रामीण परिवारों को अनाज और तिलहन की ऊंची कीमतों से लाभ हुआ हो. लेकिन यह साफ नहीं है कि कुल स्तर पर आय का प्रदर्शन कैसा रहा है.

हाल के वर्षों में कृषि इनपुट लागत में तेजी से वृद्धि हुई है जबकि प्रतिकूल जलवायु घटनाओं के कारण अनाज और खराब होने वाले उत्पादों के उत्पादन में गिरावट आई है.

वैश्विक बाजार अनुसंधान फर्म नोमुरा ने 10 जून के एक शोध नोट में सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य में 5.8 प्रतिशत की औसत वृद्धि के साथ तुलना करते हुए मौजूदा खरीफ फसल सीजन के लिए कृषि लागत में 11 प्रतिशत की तेज वृद्धि का अनुमान लगाया था.

फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी) ब्रांडों की बिक्री में गिरावट से ग्रामीण आय में कमी के संकेत साफ दिखाई देते हैं. इनमें खाद्य तेल, गेहूं का आटा और पर्सनल केयर के समान मसलन साबुन और शैंपू जैसे आइटम की खरीद शामिल हैं.

उपभोक्ता वस्तुएं बनाने वाली कंपनी हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड ने अप्रैल के अंत में जारी अपनी अर्निंग कॉल में कहा, ‘अभूतपूर्व मुद्रास्फीति के कारण, एफएमसीजी बाजार मूल्य वृद्धि काफी धीमी हो गई है और मात्रा में गिरावट आ रही है. ग्रामीण (क्षेत्रों) में प्रभाव अधिक स्पष्ट है, जहां मूल्य वृद्धि में भी गिरावट शुरू हो गई है.’


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ग्रामीण बाजारों में खपत भी कम हुई

खपत में गिरावट का शोर सभी क्षेत्रों और शहर के वर्गों में सुनाई दे रहा है. लेकिन ग्रामीण बाजारों ने जनवरी और मार्च 2022 के बीच बिक्री की मात्रा में 5.3 फीसदी की गिरावट देखी है. (शहरी बाजारों में 3.2 फीसदी के संकुचन की तुलना में)

उपभोक्ता अनुसंधान फर्म नीलसन आईक्यू ने जून की शुरुआत में कहा कि यह पिछली तीन तिमाहियों में सबसे बड़ी खपत मंदी है.

गैर-लाभकारी संस्था द/नज सेंटर फॉर रूरल डेवलपमेंट के निदेशक जॉन पॉल ने कहा, ‘ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब और अति-गरीब परिवारों के साथ हमारी बातचीत संपत्ति के स्वामित्व में गिरावट, बढ़ते कर्ज और भूमि जैसी उत्पादक संपत्तियों में कम निवेश का संकेत देती है.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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