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कर्नाटक हाईकोर्ट का निर्देश- FIR दर्ज करते वक्त रेप पीड़िताओं को गर्भपात के अधिकार के बारे बताना होगा

अदालत ने यौन अपराधों से उत्पन्न गर्भधारण के लिए निर्देश जारी करते हुए कहा कि गर्भपात के अधिकार के बारे में शीघ्र जागरूकता से बाद में मेंटल ट्रॉमा से बचा जा सकता है. नाबालिग की 24 सप्ताह में गर्भपात की याचिका पर आया आदेश.

प्रतीकात्मक तस्वीर । दिप्रिंट

नई दिल्ली: 24 सप्ताह की कानूनी सीमा से परे गर्भपात की मांग करने वाली नाबालिग बलात्कार पीड़िताओं के बढ़ते मामलों के बीच, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यौन उत्पीड़न के कारण होने वाले अवांछित गर्भधारण से निपटने के लिए कई निर्देश पारित किए हैं ताकि पीड़िताओं को अतिरिक्त मानसिक आघात (मेंटल ट्रॉमा) से बचाया जा सके.

सुझावों में बलात्कार पीड़िता को अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने के अधिकार के बारे में जल्द से जल्द सूचित करना, उन्हें कानूनी विकल्पों के बारे में परामर्श देना और ऐसे मामलों के लिए एक स्टैंड्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर शामिल है.

यह आदेश मंगलवार को ‘एक्स बनाम स्टेट’ नामक एक मामले में आया, जिसमें 24 सप्ताह की गर्भवती 17 वर्षीय लड़की, जिसे उसके पिता रिप्रेजेंट कर रहे थे, ने सरकारी अस्पताल को गर्भवस्था की समाप्ति  के लिए निर्देश जारी करने की याचिका के साथ अदालत का दरवाजा खटखटाया था.

न्यायमूर्ति सूरज गोविंदराज ने उसकी याचिका स्वीकार कर ली, जिसमें नाबालिग ने तर्क दिया था कि अगर वह गर्भवती रही, तो वह अपनी शिक्षा जारी नहीं रख पाएगी और उसके लिए समाज में घुलना-मिलना मुश्किल हो जाएगा, जिससे उसे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दोनों तरह की परेशानी होगी.

दिप्रिंट ने आदेश की एक प्रति देखी है.

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अदालत याचिकाकर्ता के इस तर्क से सहमत हुई कि अवांछित गर्भधारण से पीड़िता के शरीर की अखंडता का उल्लंघन होता है और इसके परिणामस्वरूप गंभीर मानसिक दुख होता है, और बताया कि गर्भपात के अधिकार के बारे में शीघ्र जागरूकता बाद में होने वाले मेंटल ट्रॉमा से बचा सकता है.

इसने निर्देश दिया कि यौन अपराधों के कारण हुई गर्भावस्था को समाप्त करने का अधिकार पीड़िता और उसके परिवार दोनों को एफआईआर दर्ज करने के समय ही बता दिया जाए.

अदालत ने कहा, “जांच के दौरान एफआईआर दर्ज होने के बाद और/या कभी-कभी बहुत बाद में, ऐसे अपराध की पीड़िता द्वारा विभिन्न कारणों से, ऐसे अपराध से होने वाली गर्भावस्था को समाप्त करने की इच्छा व्यक्त की जाती है, जिनमें से कुछ वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता द्वारा सामने रखे गए हैं.”

“ज्यादातर समय, जब तक ऐसी इच्छा (गर्भपात को समाप्त करने की) व्यक्त की जाती है, तब तक मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट, 1971 के तहत स्वीकार्य अवधि के तहत गर्भधारण की अवधि 24 सप्ताह से अधिक हो चुकी होती है. इसके बाद गर्भपात करवाने के लिए अदालत (एसआईसी) से अनुमति की जरूरत होती है.”

अदालत ने कहा कि जांच की पूरी अवधि के दौरान, जिसमें मेडिकल बोर्ड को यह सुनिश्चित करने में लगने वाला समय भी शामिल है कि क्या ऐसी (समाप्ति) प्रक्रिया को अंजाम दिया जा सकता है, और सिफारिशों के आधार पर आदेश पारित किए जाते हैं, ऐसे याचिकाकर्ताओं को उनके परिवार के साथ गंभीर मेंट्रल ट्रॉमा से गुजरना पड़ता है.

विचाराधीन मामले में, अदालत ने मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट पर ध्यान देते हुए नाबालिग की गर्भावस्था को 26 सप्ताह में समाप्त करने की अनुमति दी, जिसमें कहा गया था कि नाबालिग के बुनियादी पैरामीटर सामान्य थे और यदि प्रक्रिया की गई तो उसे कोई नुकसान या चोट नहीं होगी.

ढेर सारे निर्देश

उच्च न्यायालय ने अधिकारियों को बलात्कार के परिणामस्वरूप गर्भधारण के मामलों में पालन करने के लिए कई निर्देश दिए, जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत या यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम के तहत यौन अपराध का मामला दर्ज होने के तुरंत बाद यह पता लगाने के लिए चिकित्सा परीक्षण भी शामिल है कि पीड़िता गर्भवती है या नहीं.

यदि वे गर्भवती पाई जाती हैं, तो गर्भधारण की अवधि, पीड़िता की शारीरिक और मानसिक स्थिति और गर्भावस्था के मेडिकल टर्मिनेशन से गुजरने की क्षमता और किसी भी अन्य गंभीर कारकों का पता लगाना होगा.

इसके बाद जांच अधिकारी को बाल कल्याण समिति या जिला बाल संरक्षण इकाई को सूचित करना होगा, जिसे पीड़िता और उसके परिवार के सदस्यों को उपलब्ध कानूनी विकल्पों, जैसे गर्भावस्था को जारी रखने और उसके परिणामों, और गर्भावस्था की समाप्ति की प्रक्रिया, प्रोसीजर और परिणामों के बारे में परामर्श देना होगा.

अदालत ने कहा कि ऐसी काउंसलिंग पीड़िता को उसकी भाषा में की जानी चाहिए ताकि किसी तरह का कोई गलत कम्युनिकेशन न हो.

यह भी निर्देश दिया कि, गर्भपात के मामले में, भ्रूण के टिश्यू के नमूनों को डीएनए विश्लेषण के लिए फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला में भेजा जाना चाहिए और संभवतः सत्यापन के लिए अतिरिक्त नमूनों को संरक्षित करना होगा.

अदालत ने कहा कि पुलिस महानिदेशक को कर्नाटक के प्रमुख स्वास्थ्य सचिव के साथ मिलकर विशेषज्ञों की एक समिति बनाकर ऐसे मामलों के लिए एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर तैयार करनी चाहिए और इसे जांच अधिकारियों, बाल कल्याण समितियों, जिला बाल संरक्षण इकाइयों और सरकारी अस्पतालों के बीच प्रसारित करना चाहिए.

अदालत ने कहा कि पीड़िता की शारीरिक और मानसिक स्थिति का पता लगाने के लिए बाद में भी जांच की जानी चाहिए.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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