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झारखंड की 28 में से 26 सुरक्षित सीटों पर आदिवासियों ने कहा ‘नो मीन्स नो बीजेपी’

आंकड़ों के लिहाज से देखें तो बीजेपी को इन्हीं आदिवासी सीटों पर साल 2005 में नौ, 2009 में भी नौ और 2014 में 10 सीटों पर सफलता मिली थी. जो कि इस बार सिमट कर दो पर रह गई.

फाइल फोटो/आदिवासी ग्रामीण महिला/ आनंद दत्ता

रांची: झारखंड में आदिवासियों ने भारतीय जनता पार्टी को पूरी तरह से नकार दिया है. सूबे में आदिवासी सुरक्षित 28 सीटों में से मात्र दो सीटों पर ही सफलता मिली है वहीं 26 पर हार का सामना करना पड़ा है. जबकि पिछली बार 11 सीटें हासिल हुई थी. यहां तक कि हेमंत सोरेन के गढ़ दुमका में भी भाजपा को ही जीत हासिल हुई थी.

हाल ये रहा कि सुरक्षित सीटों से लड़ रहे भाजपा प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ और विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव भी चुनाव हार गए. इस नाराजगी को ऐसे भी समझा जा सकता है कि दुमका और बरहेट में पीएम मोदी खुद चुनाव प्रचार करने पहुंचे थे. दोनों ही सुरक्षित सीटों पर भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है.

सूबे के सीएम बनने जा रहे दुमका से जीत हासिल करने वाले हेमंत को पिछली बार यहां मुंह की खानी पड़ी थी और उन्हें 5200 मतों से हार का सामना करना पड़ा था. वहीं इस बार उन्होंने 13000 से अधिक मतों से जीत हासिल की है.


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नेशनल इलेक्शन वॉच के स्टेट कॉर्डिनेटर सुधीर पाल कहते हैं कि ‘हेमंत सोरेन ने फॉरेस्ट राइट एक्ट को एक बड़े मुद्दे के तौर पर उठाया. हमने भी अपने अध्ययन में पाया था कि इस एक्ट का असर सीधे तौर पर 62 विधानसभा क्षेत्र पर पड़ने जा रहा था. इस 62 में 10 सीटों पर एससी-एसटी वोटरों की संख्या एक लाख से अधिक है. 26 सीट ऐसी थी जहां एससी-एसटी वोटर एक लाख के लगभग थे. अन्य 26 सीट ऐसी हैं जहां 10-50 हजार तक वोटर एसटी-एससी के हैं.’

उनके मुताबिक ‘ये वो वोटर हैं जिसका परोक्ष या अपरोक्ष रूप से संबंध है. फॉरेस्ट राइट एक्ट 2006 को लेकर संघर्ष चल रहा है कि उसे जमीन का मालिकाना हक मिल जाए.’

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मोदी कहते रहे कोई नहीं छीनेगा जमीन, इधर उद्योग लगने लगे

मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं कि ‘2014 विधानसभा चुनाव से पहले मोदी ने झारखंड में कहा था कि कोई माइ का लाल नहीं है जो आदिवासियों की जमीन छीन लेगा. इसके उलट ये हुआ कि सरकार बनते ही सबसे पहले लैंड बैंक बनाने का आदेश दिया गया. इसके तुरंत बाद 200 से अधिक कंपनियों के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर किया गया. आदिवासियों ने सोचा इन कंपनियों को जमीन कहां से देगी सरकार, फिर उनकी ही जमीन को कब्जाया जाएगा.’

ग्लैडसन ये भी कहते हैं कि जनता को इस बात को समझाने के लिए वह और उनके जैसे कई सामाजिक कार्यकर्ता राज्यभर में घूमे.

चौंकाने वाली बात ये हो सकती है कि जिस पत्थलगड़ी आंदोलन का सबसे अधिक असर रहा वहीं भाजपा जीत गई है. यही नहीं विभिन्न आंदोलनों का प्रमुख चेहरा रहीं दयामनी बारला खूंटी से चुनाव हार गईं.

ज़ीरो से सीधे छह सीटों पर सफल हुई कांग्रेस

आंकड़ों के लिहाज से देखें तो बीजेपी को इन्हीं आदिवासी सीटों पर साल 2005 में नौ, 2009 में भी नौ और 2014 में 10 सीटों पर सफलता मिली थी. जो कि इस बार सिमट कर दो पर रह गई. वहीं जेएमएम को जहां पिछले विधानसभा चुनाव में कुल 14 एसटी सीटों पर सफलता मिली थी, वहीं इस बार 19 सीटों पर वह बाजी मार ले गई है.

कांग्रेस को पिछले चुनाव में इन 28 सीटों में से एक पर भी सफलता नहीं मिली थी, वहीं इस बार उसे सीधे छह सीटों पर जीत मिली है.


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लेखिका और शैल प्रिया स्मृति सम्मान से सम्मानित आदिवासी कवियित्री वंदना टेटे कहती हैं, ‘कांग्रेस जहां आदिवासियों को मीठा जहर देती आई है, बीजेपी ने सीधे वॉर करना शुरू कर दिया. पहले जंगल से बाहर होने का आदेश दिया, फिर उद्योगों को लगाने के लिए माहौल बनाया, सरना और ईसाई आदिवासियों को आपस में लड़वाने का प्रयास किया. आदिवासियों ने इन सब का लगातार विरोध किया, भले हीं उनके इस स्वर को मीडिया में जगह नहीं दी गई हो.’

वनाधिकार कानून का रहा सबसे अधिक प्रभाव

एक बार फिर सुधीर पाल कहते हैं, ’इऩवारामेंट इंपैक्ट एसेसमेंट और सोशल इंपैक्ट एसेसमेंट का हटना बहुत गलत निर्णय रहा. मतलब पहले ग्रामसभा के निर्णय के बिना उद्योग धंधे उस इलाके में नहीं लग सकते थे. और सोशल इंपैक्ट एसेसमेंट कमेटी में ग्रामसभा को भी रखा जाता था. इस सरकार में उसे हटा दिया गया. हेमंत यह लगातार बोलते रहे कि ईसाई हो या आदिवासी, ‘जमीन बचेगा तभी तो बचोगे’.’

पूरे चुनाव में बीजेपी को कुल 33.04 प्रतिशत वोट मिले हैं. जो कि पिछले विधानसभा चुनाव में मिले मतों से दो प्रतिशत ज्यादा है. पत्रकार मनोज लकड़ा कहते हैं, ‘सीधे तौर पर जमीन का नुकसान तो वाकई में नहीं हुआ, लेकिन इसका माहौल तैयार हो चुका था. और इस माहौल में सरकार के खिलाफ आदिवासियों के मन में डर बैठाने में विपक्ष सफल रहा. खासकर ईसाई आदिवासी जो ज्यादा पढ़े-लिखे होते हैं, वह अपने समाज में इस बात को बताने में सफल रहे.’

मनोज यह भी कहते हैं कि, ‘इस दौरान जो ईसाई समाज आदिवासियों के साथ सीधे मिलकर काम करते हैं, उसके कई संगठनों के विदेशी फंड को रोक दिया गया था. ग्रामीण इलाकों में इसका भी असर देखा गया.’


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जिन सीटों पर जेएमएम को सफलता मिली है उसमें गुमला, विशुनपुर, घाटशिला, पोटका, सरायकेला, चाइबासा, मझगांव, मनोहरपुर, चक्रधरपुर, तमाड़, सिसई, बोरियो, बरहेट, लिट्टीपाड़ा, महेशपुर, शिकारीपाड़ा, दुमका, जामा, खरसांवा शामिल है. वहीं कांग्रेस को लोहरदगा, मनिका, जगन्नाथपुर, सिमडेगा, कोलेबिरा, खिजरी में सफलता मिली है. भाजपा को तोरपा और खूंटी में विधायक मिले, वहीं जेवीएम को मांडर सीट हासिल हुई है.

खूंटी से भाजपा के सात बार के सांसद और लोकसभा उपाध्यक्ष रहे करिया मुंडा कहते हैं, ‘ये कहना गलत होगा कि आदिवासियों ने पूरी तरह से नकार दिया है. उन 26 सीटों पर भाजपा को वोट तो मिले ही हैं, उसको जोड़ दिया जाए तो अच्छी संख्या हो सकती है ऐसे आदिवासियो की जिन्होंने भाजपा को पसंद किया है. हालांकि सीधे तौर पर यह जरूर कह सकते हैं कि इस बार आदिवासियों को अपना बनाने में भाजपा सरकार सफल नहीं हो सकी.’

खिजरी विधानसभा के एक आम आदिवासी अशोक बेदिया कहते हैं, ‘ऐसा कभी नहीं लगा कि आदिवासियों के लिए अलग से कुछ किया जा रहा है. हो सकता है सरकार ने किया हो, लेकिन वह हम तक पहुंचा नहीं.’

(लेखक झारखंड से स्वतंत्र पत्रकार है.)

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