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ई-कॉमर्स के कड़े ड्राफ्ट नियम उपभोक्ताओं के हित में नहीं: सर्वे

ई-कॉमर्स नियमों के प्रस्तावित संशोधनों में फ्लैश सेल्स पर पाबंदी लगाने, अनुपालन आवश्यकताएं बढ़ाने और विक्रेता की विफलता के लिए प्लेटफॉर्म्स को जिम्मेदार ठहराने के सुझाव दिए गए हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर | pexels

नई दिल्ली: एक नए सर्वे में सामने आया है कि कड़े ई-कॉमर्स मसौदा नियम, उपभोक्ताओं की रियायती मूल्यों पर वस्तुएं खरीदने और अन्य सेवाओं के अलावा वस्तुओं की तेजी से डिलीवरी पर प्रीमियम देने की क्षमता को काफी हद तक सीमित कर देंगे.

नई अर्थव्यवस्था पर सामुदायिक स्वामित्व वाले मंच, न्यू इंडियन कंज्यूमर इनिशिएट (निकी) के सर्वे के अनुसार, भारतीय उपभोक्ताओं को प्रतिबंधों का सामना करना होगा, क्योंकि ई-कॉमर्स नियमों में हाल ही में प्रस्तावित संशोधन, सीधे तौर पर ‘फ्लैश सेल्स’ जैसी सेवाओं को निशाना बनाते हैं, जो बहुत से प्लेटफॉर्म्स पेश करते हैं.

उपभोक्ताओं की भावनाओं का आंकलन करने के लिए, निकी ने देश के लगभग हर सूबे के करीब 3,500 उत्तरदाताओं का एक अखिल भारतीय ऑनलाइन सर्वे किया.

जहां 85 प्रतिशत उत्तरदाता नहीं चाहते थे कि फ्लैश सेल्स पर पाबंदी लगाई जाए, वहीं लगभग 70 प्रतिशत चाहते थे कि स्थानीय विक्रेता, अपनी वस्तुओं और सेवाओं की ऑनलाइन बिक्री करें.

सर्वे में ये भी पता चला कि 90 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने महामारी के दौरान लॉकडाउन की वजह से ऑनलाइन खरीदारी करना पसंद किया.

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अपने आकलन में निकी ने कहा कि अगर मसौदा संशोधनों को बिना बदलाव के लागू कर दिया गया, तो उनका उपभोक्ताओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा.

निकी के संयोजक अभिषेक कुमार ने एक बयान में कहा, ‘हम प्रस्तावित संशोधनों की कुछ धाराओं को लेकर चिंतित हैं, और उपभोक्ता मामले विभाग से आग्रह करते हैं कि ऑनलाइन इकोसिस्टम में उपभोक्ताओं के विश्वास को बढ़ाने के लक्षित उद्देश्यों की प्रभावशीलता की समीक्षा करें’.

कुमार ने कहा, ‘उपभोक्ता की रूचि सिर्फ उपभोक्ता के सिरे पर ही परिभाषित नहीं होती, इसमें सभी तत्वों को शामिल करना होता है, ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि उन्हें अपनी पसंद, क्वॉलिटी और सस्ती कीमत मिल जाए. मसौदा संशोधन पर्याप्त उपभोक्ता कल्याण के मानदंडों पर पूरा नहीं उतरते और इन्हें उपभोक्ता के अनुकूल नहीं कहा जा सकता’.


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क्या हैं नियम

ई-कॉमर्स नियमों के प्रस्तावित संशोधनों में फ्लैश सेल्स पर पाबंदी लगाने और अनुपालन आवश्यकताएं बढ़ाने और उनके साथ पंजीकृत विक्रेताओं की वादा किए माल या सेवाएं डिलीवर करने की विफलता के लिए (‘फॉलबैक लायबिलिटी’), प्लेटफॉर्म्स को ज़िम्मेदार ठहराने के सुझाव दिए गए हैं.

कड़े प्रावधानों को इस संकेत के तौर पर देखा गया कि नरेंद्र मोदी सरकार भारत में काम कर रहे ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स पर नज़र रखना चाहती है.

पिछले महीने केंद्रीय वाणिज्य एवं उपभोक्ता मामले के मंत्री पीयूष गोयल ने भारत में काम कर रहे ई-कॉमर्स दिग्गजों पर हमला करते हुए ज़ोर देकर कहा कि उनका प्रभाव इतना है कि दीर्घकाल में वो छोटे घरेलू व्यवसायों, कारोबारियों, यहां तक कि उपभोक्ताओं को भी नुकसान पहुंचाएंगे.

उपभोक्ता मामलों का विभाग फिलहाल उन सुझावों की समीक्षा कर रहा है, जो उसने पिछले महीने हितधारकों से मांगे थे.


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अन्य निष्कर्ष

निकी के आकलन में कहा गया कि नए नियमों के परिणामस्वरूप, छोटे व्यवसायों की अनुपालन लागतें बढ़ सकती हैं, जिससे या तो उनका बोझ ऊंचे दामों की सूरत में उपभोक्ताओं पर डाल दिया जाएगा या फिर ऐसे व्यवसाय ई-कॉमर्स गतिविधियों में शामिल नहीं हो पाएंगे- दोनों ही सूरतों में उपभोक्ता के विकल्प प्रतिबंधित होंगे.

क्यूरेटिंग सर्चेज़ पर पाबंदियां, जिनकी प्रस्तावित नियमों में मांग की गई है, उपभोक्ताओं को असुविधा पहुंचाएंगे और प्रासंगिक चीज़ों को तलाशने में उन्हें घंटों बिताने होंगे. ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स वस्तुओं को विक्रेता की रेटिंग के आधार पर सूचीबद्ध भी नहीं कर पाएंगे, जिससे उपभोक्ताओं के मन में खरीदी जा रही वस्तु की क्वॉलिटी को लेकर शंका पैदा होने लगेगी.

कुमार ने दिप्रिंट से कहा, ‘फ्लैश सेल्स दुनिया भर में हर जगह अच्छे से स्वीकार की जाती हैं. खासकर महामारी के बाद इनवेंट्री की मात्रा बहुत अधिक बढ़ गई है, जिसे रियायती बिक्री के जरिए ही बेचा जाएगा’.

‘प्रतिस्पर्धा को ई-कॉमर्स नियमों के जरिए नहीं बढ़ाया जा सकता, अन्य उपायों के अलावा, उसे लॉजिस्टिक्स और कच्चे माल की स्थिर लागतों को कम कर के ही सुधारा जा सकता है. उसे ई-कॉमर्स नियमों से दुरुस्त करना, ढांचागत मुद्दों को संबोधित करना नहीं, बल्कि एक कृत्रिम समाधान है’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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