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दुनियाभर में बॉण्ड्स, स्टॉक्स और मुद्राओं में खलबली: भारत के लिए क्या हैं इसके मायने

बुधवार को अमेरिकी फेडरल रिज़र्व ने अपने फेडरल फंड्स रेट में 75 आधार अंकों का इज़ाफा कर दिया. इससे अचानक दुनिया भर में बिकवाली शुरू हो गई, जिसके नतीजे में रुपया 80 प्रति डॉलर के मनोवैज्ञानिक निशान को पार कर गया.

वाशिंगटन डीसी में यूएस फेडरल रिजर्व का मुख्यालय | कॉमन्स

नई दिल्ली: अमेरिका की फेडरल रिजर्व ओपन मार्केट कमेटी (एफओअमसी) ने बुधवार को अपनी प्रमुख पॉलिसी दर- फेडरल फंड्स रेट में 75 आधार अंकों का इज़ाफा करके दुनिया भर में खलबली मचा दी, और ‘अधिकतम रोज़गार’ तथा दीर्घ काल में 2 प्रतिशत महंगाई दर की तलाश में, उसे 3-3.25 प्रतिशत पहुंचा दिया.

दुनिया भर में सभी वित्तीय संपत्तियों की बिकवाली जिस चीज़ से शुरू हुई, वो फेड का ये संकेत था कि दरों में वृद्धि को लेकर वो अधिक आक्रामक होने जा रही है और 2022 के अंत तक पॉलिसी रेट बढ़कर 4.4 प्रतिशत हो जाएगा, और 2023 के अंत तक 4.6 प्रतिशत के अपने चरम पर पहुंच जाएगा- ये एक ऐसी चीज़ थी जिसकी वित्तीय बाज़ार के खिलाड़ियों ने अपेक्षा नहीं की थी.

एक बेसिस प्वॉइंट एक प्रतिशत का सौवां हिस्सा होता है.

इसके बाद सभी संपत्तियों- बॉण्ड्स, स्टॉक्स और करेंसियों में गिरावट आ गई. इसका मतलब है कि भारत समेत दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के केंद्रीय बैंकों को, उसके अनुसार अपना हिसाब किताब फिर से लगाना पड़ेगा.

इधर, भारत में, हालांकि शेयर बाज़ार ने फेड रेट वृद्धि को नकारात्मक रूप से नहीं लिया, लेकिन रुपया 80 प्रति डॉलर के निशान को पार कर गया और पूंजी के बाहर भागने के डर के बीच 80.86 पर बंद हुआ, जिसके साथ ही भारत तथा अमेरिका के बीच बॉण्ड की ब्याज दरों का अंतर भी कम हो गया.

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रिलायंस सिक्योरिटीज़ में कमोडिटीज़ और मुद्राओं के वरिष्ठ अनुसंधान विश्लेषक जिगर त्रिवेदी के अनुसार, ऐसा लगता है कि लगातार चौथे महीने अमेरिकी नोट (डॉलर) भारी मुनाफे के साथ बंद होगा, और ये सब फेड की बदौलत होगा. मई को छोड़ दें तो पूरे 2022 में डॉलर तैरता ही रहा है.

इस पृष्ठभूमि में, दिप्रिंट आंकलन करता है कि दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों की कार्रवाइयों और बढ़ती महंगाई तथा मुद्राओं में होने वाले उतार-चढ़ाव का मैक्रो-इकनॉमिक संकेतकों पर क्या असर पड़ता है. लेकिन इससे पहले कि हम विश्लेषण की गहराई में उतरें, ज़रूरी है कि विश्व बाज़ारों में हो रही घटनाओं का जायज़ा लिया जाए, जो भारत में मैक्रो स्तर पर बुनियादी चीज़ों को प्रभावित कर सकती हैं.


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वैश्विक बाज़ार का जायज़ा

बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में ऊंची महंगाई दरों ने सुनिश्चित कर दिया है कि केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ा दें, और साथ ही उभरते बाज़ारों से अमेरिका की ओर बड़े पूंजी प्रवाह की अपेक्षा से, अपनी मुद्राओं पर पड़ने वाले दबावों को संभाल सकें.

फेड रेट बढ़ने के बावजूद जापान के केंद्रीय बैंक- बैंक ऑफ जापान- ने अपनी ब्याज दरों को निगेटिव ही रखने का फैसला किया, जिससे येन में तेज़ी से गिरावट आ गई. परिणामस्वरूप 1998 के बाद से पहली बार, येन को सहारा देने के लिए केंद्रीय बैंक को मुद्रा बाज़ार में दख़ल देना पड़ा, ताकि इस साल डॉलर के मुक़ाबले उसमें आई 20 प्रतिशत की गिरावट को रोका जा सके.

जापान की कोर उपभोक्ता मुद्रास्फीति अगस्त में 2.8 प्रतिशत पहुंच गई, जो आठ वर्षों में सबसे तेज़ सालाना वृद्धि थी, और जो लगातार पांचवें महीने केंद्रीय बैंक के 2 प्रतिशत मुद्रास्फीति लक्ष्य से अधिक थी.

अगस्त में अमेरिका और यूके में महंगाई दरें क्रमश: 8.3 प्रतिशत और 9.9 प्रतिशत के ऊंचे स्तर पर बनी रहीं, जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप फेड की ताज़ा कार्रवाई सामने आई. बैंक ऑफ इंग्लैंड ने भी अपनी पॉलिसी दरें 50 आधार अंक बढ़ाकर 2.25 प्रतिशत कर दीं- जो 1989 के बाद से दरों में सबसे बड़ी वृद्धि थी.

यूरोज़ोन भी 9.1 प्रतिशत की ऊंची महंगाई दर का दबाव झेल रहा है- जो 1999 के बाद से सबसे ऊंचे स्तर पर है, जब यूरो को अधिकारिक रूप से जारी किया गया था.

इसी सप्ताह यूरोपीय सेंट्रल बैंक (ईसीबी) चीफ क्रिस्टीन लैगार्ड ने कहा कि महंगाई को रोकने के लिए ईसीबी को ब्याज दरें उस स्तर तक बढ़ानी पड़ सकती हैं, जिस पर आर्थिक विकास सीमित हो जाए.

उसके बाद स्विस नेशनल बैंक ने, उधार की लागत को ज़ीरो से ऊपर लाने के लिए, आठ साल में पहली बार ब्याज दरों में 75 आधार अंकों का इज़ाफा कर दिया, जबकि नॉर्वे के केंद्रीय बैंक ने अपनी प्रमुख ब्याज दर में 50 आधार अंकों की बढ़ोत्तरी कर दी.

मैक्रो स्तर पर भारत पर असर

फेड रेट में आक्रामक वृद्धि का पहला सीधा असर भारत की मौद्रिक नीति पर पड़ने की संभावना है. बाज़ार विशेषज्ञ अपेक्षा कर रहे हैं कि पूंजी की निकासी को सीमित करने के लिए, 30 सितंबर को अपना मौद्रिक नीति प्रस्ताव जारी करते समय, भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) प्रमुख पॉलिसी दर- रेपो रेट को 50 आधार अंक बढ़ाकर 5.9 प्रतिशत कर सकता है.

रेपो रेट वो दर होती है जिस पर कॉमर्शियल बैंक आरबीआई से पैसा उधार लेते हैं.

क्वांटम म्यूचुअल फंड में फंड मैनेजर-फिक्स्ड इनकम, पंकज पाठक ने कहा: ‘फेड की इस स्तर की आक्रामकता को देखते हुए, आरबीआई के लिए निकट भविष्य में घरेलू मौद्रिक नीति पर अपने रुख़ को नर्म रखना बेहद मुश्किल होगा. भारत में महंगाई की समस्या उतनी बड़ी नहीं है, लेकिन हमारे बाहरी बैलेंस बहुत अच्छी स्थिति में नहीं हैं’.

अगस्त में भारत की खुदरा महंगाई दर 7.0 प्रतिशत थी- जुलाई की 6.7 प्रतिशत से अधिक- जो जनवरी के बाद से महंगाई दर के आरबीआई के 2-6 प्रतिशत के बीच लक्ष्य से ऊपर बनी हुई थी. आरबीआई अपेक्षा करता है कि 2022-23 में भारत में महंगाई दर का औसत 6.7 प्रतिशत रहेगा.

इससे रुपए पर दबाव बनेगा क्योंकि जब अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ेंगी, तो वो विदेशी निवेशकों को भारत से बाहर खींचेंगी और उन्हें अपने पैसे को अमेरिकी डॉलर जैसी कम जोखिम वाली संपत्तियों में लगाने की ओर ढकेलेंगी.

फेड रेट बढ़ने के बाद रुपया 80 प्रति डॉलर के मनोवैज्ञानिक निशान को पार कर गया, लेकिन निवेशकों का मानना है कि अमेरिकी फेड की दरों में आक्रामक वृद्धि के साथ अभी और कष्ट आना बाक़ी है.

त्रिवेदी ने कहा, ‘आगे चलकर डॉलर सूचकांक ने तालिकाओं में 110 के पास अपना मज़बूत आधार बना लिया है, और अगर यही स्तर बना रहा तो ये एक बार और बढ़कर 113 के स्तर पर पहुंच सकता है. ऐसे परिदृश्य में रूस-यूक्रेन के बीच एक भू-राजनीतिक जोखिम में इज़ाफे के चलते पूरी संभावना है कि अमेरिकी डॉलर-रुपया 81 से ऊपर जा सकता है. अगर ऊर्जा क़ीमतें बढ़ जाती हैं तो रुपए में गिरावट जारी रह सकती है, जिससे मुसीबतें और बढ़ सकती हैं.

डॉलर सूचकांक- जो बृहस्पतिवार को 20 वर्षों में 111.80 की नई ऊंचाइयों को पहुंच गया, छह प्रमुख मुद्राओं- यूरो, जापानी येन, कैनेडियन डॉलर, ब्रिटिश पाउण्ड, स्वीडिश क्रोना, और स्विस फ्रांक- के मुक़ाबले डॉलर के मूल्य का प्रतिनिधित्व करता है.

वित्तीय सेवा प्रदाता ईक्वायरस ग्रुप की एक अर्थशास्त्री अनीता रंगन ने कहा कि सरकारी उधारी कैलेंडर (सरकारी सिक्योरिटीज़ की नीलामी के लिए समय सारिणी) में सरकारी बॉण्ड्स की सप्लाई ज़्यादा रहने की संभावना के चलते, ‘आरबीआई रेट पर अपने नज़रिए में संतुलित हो सकता है, लेकिन जब फेड रेट में अपेक्षा से अधिक इज़ाफे की संभावना हो, तो करेंसी (अस्थिरता) को भंडारों की मदद से बचाना नाकाफी साबित हो सकता है’.

रुपए का गिरना भारत के निर्यात के लिए अच्छा हो सकता है, लेकिन चालू खाते के घाटे पर इसका नकारात्मक असर पड़ेगा- यानी, जब किसी देश में वस्तुओं और सेवाओं का आयात उसके निर्यात से अधिक हो. भारत तेल की अपनी 80 प्रतिशत ज़रूरत आयात से पूरी करता है, इसलिए चालू खाते का घाटा बढ़कर संभावित रूप से जीडीपी का 3 प्रतिशत हो सकता है.

भारत में साल 2021-22 में चालू खाते का घाटा जीडीपी का 1.2 प्रतिशत था, जबकि 2020-21 में 0.9 प्रतिशत का अधिशेष था, चूंकि एक साल पहले के मुक़ाबले व्यापार घाटा 102.2 बिलियन डॉलर से बढ़कर 189.5 बिलियन डॉलर हो गया था.

चालू वित्त वर्ष 2022-23 के पहले पांच महीनों में, पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में, व्यापार घाटा 592.6 प्रतिशत बढ़कर 79 बिलियन डॉलर हो गया है.

पूंजी की भारी निकासी और बढ़ते व्यापार घाटे की स्थिति में, आरबीआई को मजबूरन अपने विदेशी मुद्रा भंडार में हाथ डालकर, चालू खाते के घाटे को वित्त-पोषित करना पड़ेगा.

शुक्रवार को जारी आरबीआई आंकड़ों से पता चला कि इस साल जनवरी और जुलाई के बीच, रुपए की अस्थिरता को कम करने के लिए उसने अपने भंडार से कुल 38.8 बिलियन डॉलर बेच दिए हैं. ये भंडार दो साल के अपने सबसे निचले स्तर 550 बिलियन डॉलर पर आ गए हैं, जो अक्टूबर 2021 में 642 बिलियन डॉलर के चरम पर थे.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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