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कीलाड़ी में मिले थे बेहद अहम पुरातात्विक अवशेष, अब इनके चित्र तैयार किए जाने का काम जारी है

पुरातत्वविद को तमिलनाडु में खुदाई में मिली 2,000 साल से अधिक पुरानी 5,800 कलाकृतियों के दस्तावेजीकरण के लिए ड्राफ्ट्समैन पलानीवेल के बनाए चित्रों पर ही भरोसा है.

ए. पलानीवेल | फोटो विशेष व्यवस्था द्वारा

प्राचीन सभ्यता का पता लगने के बाद सुर्खियों में आए तमिलनाडु के कीलाड़ी खुदाई स्थल पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के उत्खनन कार्य पांच साल पहले समेट दिया गया था. इसके बाद अब पहले दो सत्रों से निकले निष्कर्षों के आधार पर विस्तृत चित्र तैयार करने का कठिन काम चल रहा है.

2,300 से 2,600 साल तक पुरानी मानी जा रही इन 5,000 से अधिक कलाकृतियों के दस्तावेजीकरण के लिए इनके चित्रों को उकेरना एक बेहद ही महत्वपूर्ण कार्य है, और तकनीकी चित्र और इलेस्ट्रेशन बनाने में माहिर एक ड्राफ्ट्समैन ही यह जिम्मेदारी बखूबी संभाल सकता है.

लेकिन पुरातत्वविदों का कहना है कि आजकल ऐसे ड्राफ्ट्समैन (नक्शानवीश) कम ही मिलते हैं. ऐसे में विशेष तौर पर इस कार्य के लिए एक 70 वर्षीय नक्शानवीस ए. पलानिवेल को चुना गया है, जो 2012 में एएसआई के चेन्नई सर्कल ऑफिस से रिटायर हुए थे. वैसे तो ‘फाइन आर्ट्स’ के अपने इस कौशल के कारण वह हमेशा ही डिमांड में रहे हैं.

पलानीवेल को पिछले एक दशक के दौरान केवल तीन महीने के लिए ही ‘सेवानिवृत्त’ रहने की अनुमति मिल पाई है, लगातार तमाम प्रतिष्ठित पुरातत्वविद एक के बाद एक विभिन्न महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट में उनकी सेवाएं लेते रहे हैं. इसमें आंध्र प्रदेश के कोंडापुर में खुदाई से लेकर तमिलनाडु के बेहद शानदार बृहदेश्वर मंदिर तक शामिल हैं. यही नहीं राजागोपुरम (सबसे ऊंचे मंदिर टावर) में आई एक दरार को मरम्मत कर उसके पुराने स्वरूप में लाने में भी उनके चित्रों ने काफी मदद की थी.

यही वजह है कि उनके कौशल को कीलाड़ी खुदाई स्थल के दस्तावेजीकरण के लिए महत्वपूर्ण माना गया है. उनके चित्र उत्खनन परियोजना के पुरातात्विक निष्कर्षों को मूर्त रूप देने में मदद करेंगे, जिसने हाल के वर्षों में प्राचीन भारतीय इतिहास की मौजूदा धारणाओं को बदल दिया है.

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ये स्थान एक जीवंत शहरी बस्ती को दर्शाता करता है, और इस ओर इशारा करता है कि भारत के दक्षिणी भाग में भी गंगा के मैदानी इलाकों के समान ही विकसित शहरी जीवन रहा होगा.

उन्नत कार्बन डेटिंग प्रक्रिया के निष्कर्षों से इसे यह छठी और तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की सभ्यता माना जा रहा है. 2015 और 2017 के बीच खुदाई में निकली 5,800 कलाकृतियों में तमिल-ब्राह्मी शिलालेखों के साथ मिट्टी के बर्तन और भित्तिचित्रों के निशान, गहने, हड्डियों पर नक्काशी और कई प्राचीन वस्तुएं शामिल हैं.

पिछले हफ्ते, कुछ झुककर बैठे हुए पलानीवेल एक बड़े चार्ट पेपर पर एक टेराकोटा मूर्ति के दाहिने पैर की आकृति को ट्रेस कर रहे थे. कीलाड़ी में खुदाई के पहले दो सत्र 2016 में पूरे हो गए थे और अब इन्हीं के निष्कर्षों के दस्तावेजीकरण का काम चल रहा है.

ए. पलानीवेल चित्रण | फोटो विशेष व्यवस्था द्वारा

एएसआई के सुपरिटेंडिंग ऑर्कियोलॉजिस्ट अमरनाथ रामकृष्ण की एक टीम द्वारा 2014 में की गई खोज बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है, जिन्हें संगम-युग की साइट की खोजने का श्रेय दिया गया था. हालांकि, इस खोज को लेकर बाद में विवाद उत्पन्न हो गया, जिसकी वजह से रामकृष्ण को असम ट्रांसफर कर दिया गया और एएसआई ने प्रोजेक्ट पूरी तरह से बंद कर दिया. हालांकि उस समय एक अंतरिम रिपोर्ट दायर की गई थी, और एक विस्तृत रिपोर्ट पर काम छह महीने पहले शुरू हुआ जब रामकृष्ण मंदिर सर्वेक्षण परियोजना की अगुआई के लिए चेन्नई लौटे.

2018 से इस साइट को तमिलनाडु राज्य पुरातत्व विभाग ने अपने नियंत्रण में ले रखा था और मौजूदा समय में यहां खुदाई कार्य का आठवां सत्र चल रहा है.

पुरातत्वविद् अमरनाथ रामकृष्ण | फोटो विशेष व्यवस्था द्वारा

रोमांचक अतीत, दिलचस्प वर्तमान

कीलाड़ी में पलानीवेल का काम बेहद मशक्कत वाला है, क्योंकि उन्हें इन कलाकृतियों को हू-ब-हू रूप में उकेरना होता है. यह शायद सबसे पुराने अवशेषों में से कुछ हैं जिन उन्होंने अभी तक काम किया है. उन्होंने कहा, ‘कलाकृतियां कितनी सुंदर है, इसका फर्क नहीं पड़ता. मुझे हू-ब-हू उन्हें उसी रूप में उतारना है और उन्हें और अधिक सुंदर नहीं बना सकता.’

पिछले छह महीनों में जबसे पलानीवेल ने इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया है, वह टेराकोटा के छोटे-बड़े अनगिनत बर्तनों का रेखाचित्र खींच चुके हैं. लेकिन उनके वर्कस्पेस में सफेद चार्ट पेपर के रोल का ढेर बताता है कि उन्होंने कड़ी मेहनत से कितनी ही कलाकृतियों को चित्रित कर डाला होगा. उसके पीछे बड़े करीने से नीले रंग की टोकरियां हैं जिनमें ये प्राचीन अवशेष रखे हैं जिन पर उनकी संख्या और अन्य संदर्भों को टैग किया गया है. इनमें दीयों का एक पूरा संग्रह है.

ए. पलानीवेल | फोटो विशेष व्यवस्था द्वारा

उनके चित्रों को स्कैन किया जाएगा और फिर प्रत्येक कलाकृति को स्पष्ट ब्योरे के साथ एक मोटे फोल्डर में लगा दिया जाएगा, जिसमें यह सब दर्ज होगा कि इसे कितनी गहराई से निकाला गया था, और यह क्या हो सकता है, इसकी संभावित व्याख्या. रिपोर्ट कीलाड़ी में खुदाई के एक ठोस दस्तावेज का रूप ले लेगी और और अन्य उत्खनन स्थलों के साथ इसकी तुलना में मददगार होगी.

पलानीवेल हर दिन लगभग 6-7 घंटे का समय अपनी डेस्क पर बिताते हैं यद्यपि उनके हाथ में हजारों साल पुरानी वस्तुएं होते हैं लेकिन पूरा ध्यान वर्तमान पर केंद्रित होता है. उन्होंने कहा, ‘मैं जो भी ड्राइंग करता हूं, मैं उसमें पूरी दिलचस्पी लेता हूं. ऐसी कुछ नहीं होता कि चूंकि यह वस्तु सुंदर दिखती है इसलिए मुझे इसे बेहतर तरीके से रेखांकित करना चाहिए.’

इन चीजों की बनावट से जुड़ी बारीरियों से लेकर हर तरह की दरार तक को काली-सफेद कलाकृति में तब्दील करना कोई साधारण कला नहीं है. हालांकि, पलानीवेल इसे इस तरह नहीं देखते. उनका कहना है, ‘मुझे पता है कि मैं जिन टुकड़ों और अन्य कलाकृतियों को संभालता हूं वे अनमोल हैं, लेकिन बारीकियों को सही तरह से दर्शाना बेहद महत्वपूर्ण है.’

1977 में अपना करियर शुरू करने के बाद से उन्होंने केरल में बेकल किले का चित्रण किया है, मध्य प्रदेश में रत्नागिरी स्थित एक मंदिर का पुराना स्वरूप लौटाने में मदद की है. अपने चित्रों के माध्यम से कर्नाटक में राष्ट्रकूट राजवंश की संरचनाओं को जीवंत किया, तमिलनाडु में पांड्या गुफाओं के चित्र उकेरे और ओडिशा में ललितागिरी बौद्ध परिसर में खुदाई के दौरान सामने आई खाइयों का बारीक विवरण दिया. उन्होंने बताया, ‘मैं सबसे पहली बार उत्खनन स्थल के दौरे पर ललितागिरी पहुंचा था. यह एक छोटे से टीले जैसा दिखता था.’

ड्राफ्ट्समैन ए. पलानीवेल के पहले के चित्र

नक्शानवीशी का कौशल हासिल करने के लिए सालों लंबे अभ्यास की जरूरत पड़ती है और पलानीवेल जब पहली बार एएसआई में शामिल हुए थे तो उनके लिए इसका मतलब था अपने सुपरवाइजर के काम पर बारीकी से ध्यान देना. उन्होंने कहा, ‘मैंने उन्हें बताया कि मुझे फ्रीहैंड ड्रा करना नहीं आता है. उन्होंने मुझे अपने साथ दौरे पर चलने और सीखने को कहा. मैं उनके बगल में खड़ा होता, और साइट की मापजोख में मदद करने के बाद उन्हें उसे ड्रा करते देखता.’

हालांकि वह अब एक डेस्क पर बैठकर काम करते हैं लेकिन पुराने दिनों में उनका काम काफी रोमांचक हुआ करता था. जैसा कि वह खुद बताते है कि कभी-कभी तो मंदिर की संरचनाओं के रेखांकन के लिए उन्हें जमीन से 200 फीट ऊपर रस्सियों के सहारे लटककर काम करना पड़ता था. उन्होंने बताया, ‘उस समय तो मचान जैसा कुछ नहीं होता था और कई जगह मुझे अपनी रस्सी के सहारे ही काम करना होता था.

पलानीवेल ने खास तौर पर 1980 के दशक की शुरुआत में पुरी के जगन्नाथ मंदिर को चित्रित करना याद किया. उन्होंने बताया, ‘मैं रस्सियों के सहारे ऊपर चढ़ता और कंधे पर एक थैला टांगकर, हाथ में कागज की एक शीट और पेंसिल लेकर मंदिर के हर तरफ की नाप-जोख करता और फिर नीचे आकर उसकी ड्रांइग तैयार करता. लेकिन उस समय, मेरी युवावस्था थी.’

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