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‘कमजोर फॉरेंसिक, डार्कनेट और सीमा पार से होने वाले हमले’- भारत में साइबर अपराध की सजा इतनी कम क्यों

पिछले सप्ताह केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा लोकसभा में जारी 2017-2021 तक के पांच साल के आंकड़ों से पता चलता है कि साइबर क्राइम के मामलों में सजा की दर काफी कम है, जबकि लंबित मामलों की संख्या उससे कई गुना ज्यादा है.

हैकर, प्रतीकात्मक तस्वीर | विकीमीडिया कॉमन्स

नई दिल्ली: केंद्र सरकार की तरफ से पिछले सप्ताह लोकसभा में जारी किए गए बेहद खराब साइबर क्राइम कन्विक्शन रेट के आंकड़ों ने इस बात पर फिर से चर्चा शुरू कर दी है कि कैसे देशभर में कानून प्रवर्तन एजेंसियां डिजिटल रूप से किए गए अपराधों से लड़ना जारी रखे हुए हैं और वह संदिग्धों तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रही हैं और डार्कनेट को ट्राउल कर रही हैं.

केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से साझा किए गए 2017 से 2021 तक के पांच साल के आंकड़ों के मुताबिक, 2017 में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) में 5,180 मामलों में चार्जशीट दायर की गई थी, जिसमें से सिर्फ 152 मामलों में ही सजा मिल पाई थी. जबकि 2018 में 7000 मामलों में आरोपपत्र दाखिल किया गया था. लेकिन सजा सिर्फ 490 से थोड़े ज्यादा मामलों में ही सुनाई गई.

2019 में, 9 हजार मामलों में चार्जशीट दायर की गई थी. इनमें से सजा पाने वाले मामले 360 थे. वहीं 2020 में ऐसे मामलों की संख्या बढ़कर 14,087 पहुंच गई. लेकिन यहां भी लगभग 1,109 मामलों में ही सजा सुनाई गई. 2021 में चार्जशीट दायर किए गए मामले 18 हजार से ज्यादा थे और सजा पाने वालों की संख्या सिर्फ 490 रही.

आंकड़ों के अनुसार, 2021 में उत्तर प्रदेश में सजा की दर सबसे ज्यादा रही है. 4,407 आरोपपत्रों में से 292 मामलों में सजा सुनाई गई थी, जबकि 18 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कोई भी मामला सजा तक नहीं पहुंच पाया.

आंकड़े बताते हैं कि बढ़ते मामले और चार्जशीट दर्ज होने के बावजूद, साइबर अपराध के मामलों में सजा दर की संख्या में सुधार नहीं दिखा है.

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दूसरी ओर, 2017 में 500 मामलों में अपराधी को बरी करते हुए, उसे वहीं खत्म कर दिया गया. जबकि 2018 में यह संख्या 513, साल 2019 में 627, साल 2020 में 447 और 2021 में 577 थी. बाकी मामलों में ट्रायल जारी है.

विशेषज्ञों के अनुसार, ऑनलाइन धोखाधड़ी से लोगों को सतर्क और जागरूक करने के लिए सरकार की ओर से सार्वजनिक स्थानों पर डिजिटल धोखाधड़ी से जुड़े विज्ञापन, पुलिस से सलाह लेने के लिए हेल्पलाइन और कैच-अप जैसे ढेरों उपाय अपनाए गए हैं. लेकिन तेजी से बढ़ते अपराधों पर लगाम नहीं कसी जा सकी है.

विशेषज्ञों और पुलिस एजेंसियों का मानना है कि ‘साइबर फॉरेंसिक में पर्याप्त संसाधनों की कमी’, ‘हमलावरों का दूसरे देश से जुड़ा होना’ और साइबर अपराधियों द्वारा अपने बचाव के लिए अधिक उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करने से यह स्थिति पैदा हुई है.


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‘कमजोर साइबर फॉरेंसिक जांच’

विशेषज्ञों की मानें तो कम सजा के पीछे का एक कारण कमजोर साइबर फॉरेंसिक जांच से जुड़ा है. साथ ही डिजिटल साक्ष्य जैसे भी कुछ मुद्दे हैं, जिनकी कोर्ट में स्वीकार्यता नहीं हैं.

मल्टी डिसिप्लिनरी थिंक-टैंक ‘ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन’ (ORF) के सीनियर फेलो समीर पाटिल ने बताया, ‘सुरक्षा एजेंसियों के पास साइबर फॉरेंसिक के लिए पर्याप्त संसाधनों और प्रशिक्षण की कमी है. वास्तव में क्या हुआ और कहां जवाबदेही तय करनी है, इसे लेकर पुलिस सहित कानून प्रवर्तन एजेंसियों की डिजिटल सबूतों को समझने की क्षमता भी जिम्मेदार है. मौजूदा कानून के अनुसार मामले दर्ज करने और फिर उन्हें न्यायपालिका के सामने पेश करने में भी समस्या है. यहां तक कि न्यायपालिका को भी इस मोर्चे पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.’

पुलिस और साइबर अपराध विशेषज्ञ इस बात से सहमत थे कि साइबर अपराधी तेजी से आगे बढ़े हैं. इसकी खास वजह डार्कनेट पर ट्राउल और पहचान से बचने के तरीके खोजने के लिए पहले से मौजूद उपकरण हैं. इसलिए जब पुलिस साइबर अपराधियों की पहचान करने के लिए डार्कनेट का इस्तेमाल कर रही होती है, तो साइबर अपराधी यहां आसानी से बच निकल जाते हैं, क्योंकि उनके पास इसमें कहीं अधिक विशेषज्ञता होती है.

पाटिल ने खुलासा करते हुए कहा, ‘साइबर अपराधियों के लिए इनोवेशन ने सुरक्षा एजेंसियों को चकरा दिया है और डार्कनेट के इस्तेमाल से चीजें और गुमनामी में चली गई हैं. इन दिनों नेटवर्क के माध्यम से पार्स करना और डार्कनेट पर अपराधों और अपराधियों की पहचान करना मुश्किल है. हमने हाल के दिनों में इसे बार-बार इस्तेमाल होते देखा है. सुरक्षा एजेंसियां इस घटना से अच्छी तरह वाकिफ हैं लेकिन उनके पास संसाधनों और प्रशिक्षण की कमी है.’

हमलों का सीमा पार से कनेक्शन और प्राइवेसी का मसला

पुलिसकर्मियों के मुताबिक भारत में हुए ज्यादातर मैलवेयर या रैनसमवेयर हमलों में काफी हद तक विदेशी संस्थाओं का हाथ रहा है. पिछले कुछ महीनों में इस प्रवृत्ति में काफी इजाफा हुआ है.

उनका मानना है कि इस तरह की घटनाओं को कम करने के लिए, उन्हें दुनिया भर में सुरक्षा सहयोग बनाने की जरूरत है. हालांकि यह विचार काफी अच्छा और परेशानी को दूर करने जैसा लगता है, लेकिन पुलिस के लिए हर बार इसका पालन करना मुश्किल होता है.

दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ‘इंटेलिजेंस फ्यूजन स्ट्रेटेजिक ऑपरेशंस’ (IFSO) यूनिट के पुलिस उपायुक्त प्रशांत गौतम के अनुसार, साइबर अपराधों का पता लगाने में कठिनाई और कम सजा दर के मुख्य कारणों में से एक यह है कि अधिकांश अपराध ट्रांस-बॉर्डर प्रकृति के होते हैं. यानी ज्यादातर मामलों का संबंध विदेशों से होता है. मामले को सुलझाने के लिए अंतरराष्ट्रीय निकायों के साथ सहयोग मांगने में काफी समय लग जाता है और इसी वजह से मामले लंबे समय तक अटके रहते हैं.

दिल्ली पुलिस की IFSO यूनिट साइबर धोखाधड़ी, ऑनलाइन उत्पीड़न, डेटा चोरी आदि के मामलों से निपटती है.

गौतम ने दिप्रिंट को बताया, ‘साइबर अपराध के साथ बड़ा मसला यह है कि ये किसी एक देश की सीमा से बंधे नहीं होते हैं. हितधारकों की संख्या बढ़ने के बाद प्रक्रियाओं में लंबा समय लगता है. यह एक गैंगस्टर को खोजने और उसकी लोकेशन क्रैक करने जैसा नहीं है. गुप्त रूप से काम करने वाले तत्व ज्यादा हैं और इन्हें पहचानना मुश्किल है. साथ ही, हमें याद रखना चाहिए कि कानून और व्यवस्था देश से जुड़ा मामला है और अंतरराष्ट्रीय तत्वों से जुड़े अपराधों के कारण प्रक्रिया लंबी हो जाती है.

उन्होंने दावा किया, ‘यह कहना गलत होगा कि पुलिस प्रयास नहीं कर रही है. हम सभी जनता को शिक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं. हमें गूगल, मेटा और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया मध्यस्थों से जानकारी निकालने में काफी समय लग जाता है. वे हमेशा गोपनीयता का हवाला देते रहते हैं और मदद करने के लिए जल्द आगे नहीं आते हैं. अगर ऐसा ही रहा तो हमारे लिए काम करना मुश्किल हो जाएगा. बहुत से लोग इस विवाद का फायदा उठाने लग जाएंगे.

मामला या तो अदालत में चल रहा होता है या फिर पुलिस अभी भी मामलों की जांच कर रही होती है, मुख्य रूप से यही कारण है कि सजी की दर कम दिखती है. लेकिन पिछले कुछ सालों में हमने उन तरीकों की पहचान की है जिनमें कुछ साइबर अपराधियों को पकड़ा जा सकता है. हम जानकारी पर फिर से विचार करते हैं. हम उनके फाइनेंशियल लिंकेज का पता लगाने की कोशिश करते हैं और उनके वित्तीय लेन-देन की जांच कर संदिग्ध पर अपना पूरा फोकस रखते हैं.

बिटकॉइन जैसे मामलों में सामने आने वाली मुश्किलों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा, ‘जांच ज्यादातर पारंपरिक तरीकों की तर्ज पर की जाती है. कहीं न कहीं कमी है. बिटकॉइन से संबंधित मामलों में रेग्युलेटरी अथॉरिटी डिसीजन की कमी नजर आती है. डार्कनेट को ट्राउल करने के उपकरण आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध हैं. इन हानिकारक तत्वों की पहचान करना और उन्हें दूर करना जरूरी है.’

सिस्टम को व्यवस्थित करने के लिए डिजिटल उपकरण

विशेषज्ञों का विचार है कि आज ऐसे डिजिटल उपकरण उपलब्ध हैं जिनका उपयोग देश भर में डिजिटल फॉरेंसिक टीमों को एक-दूसरे से जोड़े रखने के लिए किया जा सकता है.

डिजिटल इकोसिस्टम के भीतर रिसर्च और अंतर्दृष्टि प्रदान करने वाली कंपनी ‘ग्रेहाउंड रिसर्च’ के मुख्य विश्लेषक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी संचित गोगिया ने कहा, ‘उपकरणों की एक श्रृंखला है और यह काफी विस्तृत है. इसमें डिजिटल फॉरेंसिक से लेकर पेनिट्रेशन टेस्टिंग, डिस्क इन्वेस्टिगेशन, आदि शामिल हैं.’

उन्होंने कहा, ‘साइबर अपराध में किसी भी फिजिकल पुलिस बरामदगी के मामले में हार्ड डिस्क की इमेजिंग भी प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. अलग-अलग तरह के साइबर अपराधों की सीमा निर्धारित करने की भी जरूरत है. मसलन ऐसी टीमों की आवश्यकता है जो विशेष रूप से कॉर्पोरेट धोखाधड़ी और मशीन लर्निंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके धन की आवाजाही से निपट सकें.

गोगिया ने एक ‘हब एंड स्पोक’ मॉडल के बारे में बताया, जहां एक सेंट्रलाइज्ड नॉलेज डेटाबेस सिस्टम को बांधने में मदद करेगा.

उन्होंने बताया, ‘सैद्धांतिक रूप से एक केंद्रीकृत टीम के साथ एक हब और स्पोक मॉडल होना चाहिए जो जानकारी को इकट्ठा और वितरित करता हो. वरना अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग जगहों में काम करना मुश्किल है. अगर कोई मानकीकृत प्रक्रिया नहीं होगी तो अधिक भ्रम पैदा हो सकता है.’

(इस फ़ीचर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: संघप्रिया मौर्या)


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