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COVID ने भारत में बाल मजदूरी की समस्या को बढ़ाया, राजस्थान में ₹50 के लिए दिन में 18 घंटे करना पड़ रहा काम

जुलाई 2020 से जनवरी 2021 के बीच काम के बेहद खराब हालात और कुपोषण के चलते राज्य में 5 बच्चों की मौत हुई. लेकिन चूड़ी कारखानों और ढाबों आदि में बच्चे फिर भी काम कर रहे हैं.

जयपुर के एक छोटे से चूड़ी फैक्ट्री में काम करते 3 बच्चे | फोटो: मनीषा मोंडल / दिप्रिंट

जयपुर: चार गुना चार फीट के दो कमरे, कोई खिड़की नहीं, पंखा काम नहीं करता और दीवारों पर पान के निशान. उन्नीस बच्चे वहां बैठते हैं, फर्श पर, और उनकी फुर्तीली उंगलियां लाख की चूड़ियों पर, चमक और कांच के टुकड़े चिपकाती रहती हैं. हर बच्चा झुककर काम करता है. बिना किसी मास्क के, बिना किसी सोशल डिस्टैन्सिंग के और वो हर रोज़ 400-500 चूड़ियां तैयार करता है. पूरे राजस्थान के बाज़ारों में ऐसी एक चूड़ी, 10 से 50 रुपए में बिकती है. बच्चे 16-18 घंटे काम करते हैं और दिन भर में केवल 50 रुपए कमाते हैं, जो राजस्थान में 252 रुपए प्रतिदिन की न्यूनतम मज़दूरी से बहुत कम है.

वो बच्चे जिन्हें स्कूलों में होना चाहिए, पूरे राजस्थान में डिकेन्स के उपन्यासों जैसे हालात में काम करते हैं, ज़्यादाकर चूड़ी कारख़ानों में और बाक़ी सड़क किनारे ढाबों, टायर की दुकानों, और साड़ी छपाई की वर्कशॉप्स आदि में, अपने परिवारों की मदद करते, जिनका या तो कोविड-19 महामारी में काम छूट गया या परिवार में कोई मौत हो गई. लंबे समय तक झुकी गर्दन और कंधे, धूप में टिमटिमाती आंखें और कुपोषण से तबाह शरीर- ये सब कोविड के अनदेखे शिकार हैं.

एक बच्चे के हाथ पर ‘मां’ लिखा हुआ है. कोविड के कारण मां की नौकरी जाने के बाद जयपुर के रेस्तरां में बच्चे को काम करना पड़ रहा है | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में बाल श्रमिकों की कुल संख्या 1.01 करोड़ है, जिसमें 56 लाख लड़के हैं, और 45 लाख लड़कियां हैं. अगली जनगणना 2021 में होनी है, लेकिन बाल अधिकार संगठनों के सर्वेक्षणों से संकेत मिलता है कि कोविड के बाद बड़े पैमाने पर फैली ग़रीबी के चलते, पूरे देश में बाल मज़दूरी में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है.

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और यूनिसेफ ने भी चेतावनी दी है कि भारत में स्कूलों का बंद होना और संवेदनशील परिवारों के सामने आया आर्थिक संकट, संभवत: बच्चों को ग़रीबी में धकेल रहा है और इस तरह भारत में कोविड के बाद बाल मज़दूरी बढ़ने का ख़तरा पैदा हो गया है. ज़्यादातर प्रवासी श्रमिकों का ताल्लुक़ बिहार, यूपी, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, और झारखंड जैसे कम आय वाले सूबों से है.


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पिटाई और भोजन देने से इनकार- बीमार पड़ते बच्चे

जुलाई 2020 से जनवरी 2021 के बीच, काम के बेहद ख़राब हालात और कुपोषण के चलते, राजस्थान में 5 बच्चों की मौत हो चुकी है. मरने वाले पांच में से चार बच्चे बिहार से थे, जिनकी उम्र 12 से 15 साल के बीच थी और जो चूड़ी कारख़ानों में काम करते थे.

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सभी पांच मामलों में दायर आरोप पत्रों में, जिन्हें दिप्रिंट ने देखा है, वो स्थितियां बयान की गई हैं जिनमें बच्चे काम करते थे. एक चार्जशीट में 12 वर्ष के एक बच्चे का एक बयान है, जिसमें लिखा है, ‘हमारा मालिक हमें मजबूर करता था, कि हम तहख़ाने के अंदर रोज़ 18-19 घंटे लाख की चूड़ियां बनाएं. वो हमें समय पर खाना नहीं देता था, और हमें पीटता भी था’.

रेस्क्यू किए गया एक बच्चा शेल्टर होम में किताब पढ़ता हुआ | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट

सभी पांच चूड़ी निर्मातों पर, जिन्होंने इन बच्चों को काम पर लगा रखा था, भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत मुक़दमा दर्ज किया गया है, जिनमें 304 (ग़ैर इरादतन हत्या जो हत्या की श्रेणी में नहीं आती), और साथ में किशोर न्याय (बालकों की देख-रेख और संरक्षण) अधिनियम 1986 की प्रासंगिक धाराएं शामिल हैं. लेकिन इन मौतों ने राजस्थान में बाल श्रम को बढ़ने से रोका नहीं है. अधिकारियों का कहना है कि पिछले साल, राज्य में चार महीने से अधिक लॉकडाउन रहने के बावजूद, इसमें उछाल देखने में आया है.

‘गरदन और आंखों में तेज़ दर्द की वजह से, मैं रात में सो नहीं पाता. डॉक्टर का कहना है कि मुझे कुछ बीमारी है’, ये कहना था एक सात साल के बच्चे का, जो जयपुर के शास्त्री नगर में 50 रुपए रोज़ पर लाख चूड़ियों के एक वेयरहाउस में काम करता है.

फरवरी 2021 में जब स्कूल बंद हुए, तो उसके माता-पिता ने परिवार के लिए पैसा कमाने, उसे जयपुर भेज दिया था. इस साल जुलाई में, जब जयपुर पुलिस की मानव तस्करी-विरोधी इकाई के सदस्यों, राजस्थान सरकार के श्रम विभाग, और नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी की एनजीओ, बचपन बचाओ आंदोलन के स्वयंसेवकों ने उसे बचाया, तो वो कुपोषण और विटामिन डी की भारी कमी से जूझ रहा था.

सवाई माधो सिंह अस्पताल के डॉ एनएल दिसानिया ने, जिन्होंने बचाए गए बाल मज़दूरों की मेडिकल जांच की, दिप्रिंट से कहा, ‘ये बच्चे बहुत सी बीमारियों से ग्रस्त हैं. काम करते हुए इन्हें लंबे समय तक, अपनी गरदनों को झुकाए रखना होता है, जिसके नतीजे में स्पॉन्डिलॉसिस हो जाता है, जो इनकी उम्र में बहुत कम होता है, लेकिन जानलेवा हो सकता है’.

पिछले दो सालों में जितने बाल मज़दूरों की जांच हुई, वो सब कुपोषण से पीड़ित थे. डॉ दिसानिया ने आगे कहा, ‘धूप की कमी की वजह से, उनके अंदर विटामिन डी की भारी कमी थी, जिससे उनके अंदर सूखा रोग होने का ख़तरा पैदा हो जाता है’.

2020 में पूरे राजस्थान से क़रीब 1,500 बाल मज़दूर छुड़ाए गए, जबकि उससे पिछले वर्ष ये संख्या 1,700 थी. लेकिन मानव तस्करी-विरोधी यूनिट के एक अधिकारी के अनुसार, कागज़ पर दिखाई गई संख्या वास्तविक स्थिति को नहीं दर्शाती, क्योंकि लॉकडाउन के दौरान वो बचाव अभियान नहीं चला पाए. अधिकारी ने कहा, ‘बहुत से बच्चे तालाबंद कारख़ानों के अंदर काम कर रहे थे, लेकिन वो किसी तक नहीं पहुंच पाए, या उन्हें बचाया नहीं जा सका’.

रेस्क्यू किए गए कुछ बच्चे ऑनलाइन क्लास में | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट

बाल कल्याण समिति की सदस्या विजया शर्मा भी इससे सहमत थीं. शर्मा ने कहा, ‘राज्य भर में फैले 70 प्रतिशत आश्रय गृह और बाल कल्याण संस्थाएं, इस समय विभिन्न सूबों के 4,000 से अधिक बच्चों से भरी हुई हैं. पिछले पांच वर्षों में ये संख्या कभी 2,000 से आगे नहीं बढ़ी. और ये स्थिति तब है जब पिछले साल, बहुत से बच्चों को बचाया नहीं जा सका.

उन्होंने आगे कहा, ‘सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है, कि कोविड के बाद बचाए जा रहे 80-90 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं, जिन्होंने स्कूल छोड़ा है. कोविड से पहले, जिन बच्चों को हम बचाते थे वो कभी स्कूल नहीं गए थे, लेकिन अब रुझान बदल गया है’.

बचपन बचाओ आंदोलन के एक बाल अधिकार कार्यकर्त्ता, देशराज सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमारे सूत्रों के अनुसार, कोविड के बाद 5,000 बाल मज़दूर राज्य में दाख़िल हुए हैं. लेकिन वास्तविकता जानने के बावजूद, लॉजिस्टिकल कारणों के चलते पुलिस बचाव अभियानों में देरी करती है, और तब तक मालिक लोग सतर्क हो जाते हैं, और अपने कारख़ाने ख़ाली कर देते हैं.’


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महामारी में क्यों बढ़ा है बाल श्रम और मानव तस्करी

राजस्थान सरकार की बाल कल्याण समिति के अध्यक्ष बृजलाल मीणा ने कहा, कि कोविड के पश्चात बाल श्रम और मानव तस्करी में, निश्चित रूप से इज़ाफा हुआ है.

मीणा ने दिप्रिंट को बताया, ‘राजस्थान लाए गए 80 प्रतिशत से अधिक बच्चे अपनी मर्ज़ी से आए थे, लेकिन उन्हें ये अंदाज़ा नहीं था कि उनका इस तरह शोषण किया जाएगा. घोर ग़रीबी और ज़िंदा रहने की ज़रूरत, उन्हें हज़ारों किलोमीटर दूर अपने घरों से, अमानवीय परिस्थितियों में काम करने के लिए ले आती है’.

बच्चे सिर्फ सस्ते श्रम का ही ज़रिया नहीं हैं, बल्कि उन्हें कोविड का ख़तरा भी कम रहता है. उनकी उंगलियां और पांव फुर्तीले होते हैं, इसलिए उन्हें आसानी के साथ छोटी जगहों में ठूंसा जा सकता है, और सबसे अहम बात ये है, कि वो कारखान मालिकों के हाथों की गई बदसलूकी का विरोध भी नहीं कर सकते.

मीणा ने आगे कहा, ‘बच्चों के लिए जो भी हो सकता है वो हम करते हैं, उन्हें चिकित्सा सहायता देने से लेकर आश्रय गृहों में उन्हें दो महीने शिक्षा देने तक. लेकिन दुर्भाग्यवश बहुत से बच्चों को, फिर से काम करने भेज दिया जाता है’.

बच्चों और उनके परिवारों का कहना है कि उनके पास और कोई चारा नहीं है.

‘पिछले साल तक मेरी मां निर्माण स्थलों पर काम करती थी, लेकिन कोविड के बाद कोई उसे काम नहीं देता. मेरे पिता अपंग हैं. स्कूल भी बंद थे इसलिए मैं काम करने के लिए आ गया. अगर मैं काम नहीं करूंगा, तो मेरी मां मेरी बहन को बेंच देगी,’ ये कहना था बिहार में हिण्डन के रहने वाले एक आठ साल के बच्चे का, जो पिछले साल नवंबर में एक हाईवे ढाबे पर काम करने के लिए जोधपुर आया था.

जब दिप्रिंट ने टिप्पणी के लिए बच्चे के परिवार से संपर्क किया, तो उसकी मां ने कहा, ‘आकर देखिए कि हम कैसे जी रहे हैं, फिर शायद आप समझ पाएंगे कि हम हर रोज़ किस मुसीबत से गुज़रते हैं. मुझे कोई काम नहीं मिल रहा है. 2019 में एक दुर्घटना में मेरे पति की दोनों टांगें चली गईं. उनके इलाज के लिए हमें कर्ज़ लेना पड़ा था. अब वो धमकी देते हैं कि अगर हम उधार नहीं लौटाते, तो वो मेरी बेटी को ले जाएंगे. क्या आप समझते हैं कि अपने बेटे को काम पर दूर भेजना मुझे अच्छा लगता है? लेकिन मेरे पास और क्या रास्ता है?’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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