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‘बच्चों को भटकने को नहीं छोड़ सकते’- लॉकडाउन का असर कम करने के लिए भोपाल की महिलाओं ने झुग्गियों में बनाए ‘मिनी-स्कूल’

भोपाल में स्लम क्षेत्रों और उनके आसपास रहने वाली बहुत सी महिलाएं, ऐसे बच्चों की मुफ्त कक्षाएं ले रही हैं, जो स्कूल बंद होने की वजह से पढ़ाई से वंचित हो रहे थे.

भोपाल के ऋषिनगर में छोटे बच्चों को पढ़ाती कौसर अली | चित्रण: रमनदीप कौर/दिप्रिंट

भोपाल: हर कार्यदिवस की सुबह निर्मला उइके अपने पिता के काम पर निकलने का इंतज़ार करती है, इसलिए नहीं कि वो उन्हें भेजना चाहती है, बल्कि इसलिए कि उसे उनका कमरा पड़ोस के बच्चों को पढ़ाने के लिए चाहिए, वो भी नि:शुल्क.

उइके भोपाल के गौतम नगर इलाके में रहती है, जहां की झुग्गी बस्तियों में करीब हज़ार लोग रहते हैं, जिनमें से अधिकतर दिहाड़ी मज़दूर या नगर निगम कर्मचारी हैं. महामारी की वजह से जब स्कूल बंद हुए, तो झुग्गी बस्ती के बहुत से बच्चे यूं ही इधर-उधर घूमने लगे. 12वीं पास निर्मला ने, जो विवाहित है और एक बच्चे की मां है, इस बारे में कुछ करने का फैसला किया.

उइके ने कहा, ‘जब स्कूल बंद हुए तो बहुत से परिवारों ने भाग्य के आगे हथियार डाल दिए और उनके बच्चे इधर-उधर घूमने लगे. यहां के लोगों के लिए सबसे ज़रूरी भोजन और आवास हैं और शिक्षा यहां कभी प्राथमिकता नहीं रही. लेकिन इसे स्वीकार करना मुश्किल था और ये (घर पर क्लासेज़ लेना) सबसे उपयुक्त समाधान लगा’.

सिर्फ वो ही नहीं थीं जिन्हें ऐसा लगा. वंचित बच्चों की पढ़ाई में सुधार के लिए पड़ोस की पहलकदमियां, न सिर्फ गौतम नगर बल्कि भोपाल के दूसरे इलाकों में भी देखी जा रही हैं.

अकेले गौतम नगर में, बस्ती की कम से कम चार महिलाओं ने बिना कोई पैसा लिए, 3 से 14 साल तक के बच्चों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया है. ये महिलाएं पिछले करीब सात महीने से, घर या किसी काम-चलाऊ जगह से औपचारिक कक्षाएं ले रहीं हैं. यहां उपस्थिति अनिवार्य नहीं है और कभी-कभी अनिच्छुक छात्रों को चॉकलेट्स और बिस्किट्स का लालच देकर ‘कक्षाओं’ में लाना पड़ता है लेकिन महिलाएं अपनी भरसक कोशिश करती हैं कि कम से कम सबसे छोटे बच्चे उनके पास आ जाएं.

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19 वर्षीय शीतल उइके हाल ही में इस पहल में शामिल हुई है. वो बस्ती में स्थित एक सरकारी बिल्डिंग के बाहर, एक पेड़ के नीचे बच्चों के पढ़ाती हैं, चूंकि उसके घर में जगह नहीं है. उसने कहा, ‘मैंने ऐसे बच्चे देखे हैं जो सीधी सी शेप, साइज़, नंबर्स और अल्फाबेट भी नहीं पहचान सकते. सरकारी स्कूलों में शिक्षा भले विश्व-स्तर की न हो लेकिन इनकी उम्र में हम कम से कम इतना तो कर ही सकते थे. हम उस बेसिक पढ़ाई की भरपाई करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे छोटे बच्चों ने गंवाया है’.

(दाएं से बाएं) निर्मला उइके, सिमरन उइके, अर्चना पुरबिया, शीतल उइके , गौतमनगर में बच्चों को मुफ्त में पढ़ाती हैं | फोटो: अनुप्रिया चटर्जी/दिप्रिंट

2021-22 के आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया कि बार-बार के लॉकडाउंस का बच्चों की पढ़ाई पर कितना असर हुआ, इसका सही अंदाज़ा लगाना तो मुश्किल है लेकिन उसमें एनजीओ प्रथम द्वारा तैयार, शिक्षा की वार्षिक स्थिति (एएसईआर) की पिछले साल की रिपोर्ट की ओर इशारा किया गया, जिससे संकेत मिलता था कि पिछले दो वर्षों में पंजीकरण और पढ़ाई दोनों का नुकसान हुआ है.

निर्मला और शीतल जैसी महिलाओं के विचार भी वही थे जो सर्वे में पता चला: प्राइमरी स्कूल की आयु वाले 6-14 वर्ष के बच्चे, जो स्कूलों में पंजीकृत नहीं थे, उनकी संख्या 2018 में 2.5 प्रतिशत से दोगुनी होकर, 2021 में 2.6 प्रतिशत पहुंच गई. रिपोर्ट में प्राइमरी-पूर्व और प्राइमरी आयु के बच्चों की पढ़ाई को लेकर भी चिंता व्यक्त की गई, चूंकि मस्तिष्क के सबसे अधिक विकास के महत्वपूर्ण समय के दौरान, वो पहले ही कई महीने की पढ़ाई गंवा चुके हैं.

रिपोर्ट में आगे कहा गया कि उपचारी उपायों के बिना, ‘महत्वपूर्ण शुरुआती वर्षों के दौरान, मज़बूत बुनियाद तैयार करने में उनकी सहायता करने का अवसर चूक जाएगा’.

इस सोमवार को मध्य प्रदेश सरकार ने ऐलान किया कि पूरे प्रदेश में 50 प्रतिशत क्षमता के साथ स्कूल फिर से खुल सकते हैं और ऑनलाइन क्लासेज़ भी जारी रहेंगी. लेकिन, स्कूल बंदी से पढ़ाई में पैदा हुए अंतराल को भरना एक बहुत मुश्किल कार्य साबित होने वाला है.


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घरों में विकसित शिक्षण पहलकदमियों को थोड़ा सहारा

भोपाल के श्यामनगर में 1,500 से अधिक लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं. महामारी से पहले, ज़्यादातर बच्चे पास में ही दो कमरों के एक सरकारी स्कूल में जाते थे. स्कूलों के बंद होने के बाद बहुत से बच्चों ने किसी भी तरह की पढ़ाई पूरी तरह छोड़ दी, या तो इसलिए कि उनके पास ऑनलाइन पढ़ाई के लिए संसाधन नहीं है या फिर इसलिए कि ऐसी कक्षाओं से उन्हें कोई वैल्यू नहीं मिली.

गौतमनगर में चलती एक क्लास | फोटो: अनुप्रिया चटर्जी/दिप्रिंट

असुरक्षित परिस्थितियों में छोटे बच्चों को बिना किसी निगरानी के खेलते देख चिंता में पड़ी ममता यादव ने, जिनकी आयु 30 से अधिक है और जो स्लम क्षेत्र के करीब रहती हैं, एक अनौपचारिक मिनी-स्कूल शुरू कर दिया. उन्होंने कहा, ‘बहुत मुश्किल था नन्हे बच्चों को ऐसे लोगों के आसपास घूमते देखना, जो दिन के समय ही बस्ती के अंदर शराब पीते रहते थे’. उन्होंने आगे कहा कि उन्होंने भी स्वीट्स का ललच देकर बच्चों को स्कूल में लाने की कोशिश की.’

यादव ने कहा, ‘बच्चों को स्कूल आने के लिए कुछ लालच चाहिए था. हमने सिर्फ कक्षाएं ही नहीं कीं, बल्कि खेल भी खिलवाए ताकि वो ऐसे ही खुले न घूमें और कुछ न करें. हमें समझाना पड़ा कि कोविड-19 क्या है और कैसे उन्हें हर समय मास्क लगाए रखना चाहिए. कम से कम मेरे आसपास जिस तरह चीज़ें हो रहीं थीं, उससे बहुत निराशा होती थी. मुझे ये करना ही था’.

इसी तरह 19 वर्षीय कौसर अली ने, जो फिलहाल राजीव गांधी मेडिकल कॉलेज से एक पैरामेडिकल कोर्स कर रहा है, पिछले साल जुलाई में एक घनी आबादी की बस्ती ऋषि नगर में, जो श्यामनगर से 15 मिनट की दूरी पर है, नन्हे बच्चों के लिए कक्षाएं शुरू कीं.

अली ने कहा, ‘लॉकडाउन के दौरान मैंने अपनी (4 साल की) भतीजी को पढ़ाया. उसकी दोस्तें जो तकरीबन उसी उम्र की थीं, उनकी भी दिलचस्पी जाग गई, इसलिए मैंने अपने कमरे के बाहर बड़े पैमाने पर ये कक्षाएं लेनी शुरू कर दीं. मुझे मालूम था कि ऑनलाइन कक्षाओं में उनकी कुछ समझ में नहीं आता था’.

सौभाग्य से, ममता यादव, निर्मला उइके और कौसर अली जैसे लोगों के काम को कुछ मान्यता और सहायता मिल रही है.

भोपाल में बाल अधिकारों के लिए काम कर रहे एक एनजीओ, सहारा साक्षरता के शिवराज कुशवाहा ने कहा कि उनका संगठन, गैर-मुनाफा संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (सीआरवाई) के ज़रिए, इन अनौपचारिक शिक्षकों की सहायता करने की कोशिश कर रहा है, भले ही वो मामूली हो.

कुशवाहा ने कहा, ‘अगर इसे सीआरवाई के तहत ले लिया जाए, तो उन्हें कम से कम 1,000 से 5,000 रुपए तक मिल सकते हैं और अगर हम कुछ ढांचा खड़ा कर पाएं, तो ये ज़्यादा टिकाऊ हो सकता है’.

शिवराज कुशवाहा | फोटो: अनुप्रिया चटर्जी/दिप्रिंट

उनका कहना है कि ये महिलाएं एक मूल्यवान सेवा मुहैया करा रही हैं. उन्होंने कहा, ‘ममता जैसी शिक्षिकाएं लॉकडाउन से पैदा हुए इस अंतराल को पाटने की कोशिश कर रही हैं. जिन कारणों से मैं ऑनलाइन कक्षाओं को लेकर बहुत अशावान नहीं हूं, उनसे सब वाकिफ हैं- डिजिटल बटवारे ने सरकारी स्कूलों के बच्चों को बहुत पीछे धकेल दिया है’.

उन्होंने आगे कहा कि एक बार स्कूल फिर से काम करना शुरू कर दें, तो फिर सरकार को ज़्यादा लचीले पाठ्यक्रम, और फाउंडेशनल लर्निंग कोर्सेज़ का पता लगाना चाहिए.


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डिजिटल विभाजन से निपटना

भोपाल में सरकारी स्कूलों में जाने वाले गरीब आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चे, ऑफलाइन-ऑनलाइन बहस के केंद्र में हैं.

बड़े बच्चों के माता-पिता ने ऑनलाइन कक्षाओं को सुगम बनाने के लिए साहसिक प्रयास किए हैं लेकिन इसका खर्च भारी रहा है, जबकि पढ़ाई के फायदे स्पष्ट नहीं हैं.

श्यामनगर निवासी 38 वर्षीय सुगंति गौंड के चार बच्चे हैं. उन्होंने एक स्मार्टफोन खरीदने के लिए कर्ज़ लिया, जिससे कि उनके बच्चे बच्चे हर दिन कम से कम एक घंटे की क्लास कर सकें.

गौंड ने कहा, ‘शिक्षकों ने व्हाट्सएप समूह बना लिए हैं. वो वीडियोज़ भेजते रहते हैं जिनमें सिद्धांत समझाए जाते हैं और हर दो-तीन हफ्ते में वर्कशीट्स बांटी जाती हैं. मैंने अपनी भरसक कोशिश की ताकि मेरे बच्चे इन कक्षाओं में शामिल हो सकें. मैंने अपने गहने तक गिरवी रख दिए’.

लेकिन, जिन बच्चों के पास स्मार्टफोन्स हैं उन्हें भी अकसर ऑनलाइन पढ़ाई में जूझना पड़ता है और बहुत से बच्चों को मजबूरन ट्यूशंस लेने पड़ते हैं.

एएसईआर के मध्य प्रदेश प्रोग्राम को-ऑर्डिनेटर महेंद्र यादव के अनुसार, राज्य में ट्यूशन कक्षाएं लेने वाले बच्चों का प्रतिशत 2021 में बढ़कर करीब 28 हो गया है, जो 2018 में करीब 15 प्रतिशत था.

उन्होंने कहा कि एमपी में करीब 30 प्रतिशत परिवारों के पास स्मार्टफोन्स नहीं हैं, जिसके नतीजे में पढ़ाई का और अधिक नुकसान होता है. यादव ने कहा, ‘हालांकि राज्यभर में 90 प्रतिशत परिवारों को पाठ्यपुस्तकें और स्कूल सामग्री प्राप्त हुई, लेकिन महामारी के दौरान ऑनलाइन शिक्षा में अंतराल बरकरार रहा’.

शिवराज कुशवाहा की तरह यादव का भी मानना है, कि स्कूलों के फिर से खुलने पर सरकार को कुछ उपचारी उपाय करने होंगे. यादव ने कहा, ‘हमने राज्य सरकार को कुछ सुझाव दिए हैं- सभी वर्गों के लिए बुनियादी या ब्रिज कोर्सेज़ होने चाहिए. हमने अपने दस्तावेज़ में ये भी लिखा कि अगर स्कूल फिर से खुलते हैं तब भी सिलेबस लचीला होना चाहिए, चूंकि छात्र उसी स्तर पर नहीं होंगे. दुर्भाग्य से, पुराने स्ट्रक्चर्स काम नहीं करेंगे’.

दिप्रिंट से बात करते हुए, ज़िला शिक्षा कार्यालय के अतिरिक्त ज़िला प्रोग्राम को-ऑर्डिनेटर एके विजयवर्गीय ने बताया कि 9वीं क्लास से ऊपर के लिए फिलहाल ब्रिज क्लासेज़ चल रही हैं. उन्होंने कहा, ‘मौजूदा ढांचे में हम ये सुनिश्चित कर सकते हैं, कि जो छात्र पीछे छूट गए, उन्हें सभी विषयों में पास होने में सहायता मिल जाए. ये ज़िला स्तर पर किया जा रहा है’.

प्राथमिक सेक्शंस के लिए उपचारी और ब्रिज कोर्सेज़ के बारे में पूछे जाने पर ज़िला शिक्षा केंद्र के शैक्षणिक कार्यक्रम समन्वयक राकेश दीवान ने कहा कि फिलहाल एक कार्यक्रम है, जिसमें 8वीं ग्रेड के छात्रों की पहचान की जाती है (जिन्हें अतिरिक्त शैक्षणिक सहायता की ज़रूरत होती है). उन्होंने आगे कहा, ‘एक बार प्राइमरी सेक्शंस के लिए खाका तैयार हो जाए, तो फिर हम उसका पालन करेंगे और उसे लागू करेंगे’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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