होम देश बेहतरीन कदम – भारतीय वैज्ञानिकों ने एक विदेशी कीट से निपटने के लिए अफ्रीका...

बेहतरीन कदम – भारतीय वैज्ञानिकों ने एक विदेशी कीट से निपटने के लिए अफ्रीका से आयात किया ततैया

पिछले अगस्त में बेनिन से एक शिपमेंट में पहुंचे पैरासिटोइड्स को तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में छोड़ा गया है, जहां कसावा माइलबग ने टैपिओका फसलों को भारी नुकसान पहुंचाया है.

एनागाइरस लोपेजी, एक तरह का पैरासाइड कीट जिसे कसावा माइलबग से निपटने के लिए बेनिन से आयात किया गया है । क्रेडिटः ICAR-NBAIR

नई दिल्ली: भारतीय कृषि शोधकर्ताओं ने क्या किया जब उन्हें पता चला कि दुनिया के सबसे विनाशकारी कीटों में से एक ‘कसावा माइलबग’ तमिलनाडु और केरल में कहर बरपा रहा है? उन्होंने इस परेशानी से निपटने के लिए एक बड़े ‘स्टिंग ऑपरेशन’ को अंजाम दिया और इसके जरिए विदेशी ततैया की एक खेप अफ्रीका से आयात कर भारत लाई गई. माना जाता है कि ये विदेशी ततैया ही कसावा माइलबग का तोड़ है.

कसावा माइलबग (वैज्ञानिक नाम फेनाकोकस मनिहोटी) आमतौर पर भारत में नहीं पाया जाता है. यह एक अनचाहा विदेशी मेहमान है जिसने किसी तरह देश में आने का अपना रास्ता बना लिया. पहली बार अप्रैल 2020 में केरल के त्रिशूर में कसावा फसलों पर कुछ हिस्से में किए गए प्रयोग के दौरान किसानों ने इसे देखा था. चूंकि कीट देशी नहीं है तो भारत के लिए यहां इससे निपटने का कोई समाधान नहीं था और न ही यहां इसका शिकार करने वाला कोई प्राकृतिक कीट मौजूद था.

कसावा अखरोट के स्वाद वाला एक कंद (गांठदार जड़) है जो मूल रूप से दक्षिण अमेरिका में पाया जाता है. इसमें से टैपिओका यानी स्टार्च निकाला जाता है.

भारत दुनिया में कसावा कंद का पांचवां सबसे बड़ा उत्पादक है और यह फसल देश भर में कुल 1.73 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में उगाई जाती है. इसकी खेती मुख्य रूप से तमिलनाडु और केरल में की जाती है, जो देश के उत्पादन का क्रमशः 50.6 और 42.8 प्रतिशत हिस्सा हैं.

त्रिशूर में कसावा माइलबग की उपस्थिति की सूचना मिलने के तुरंत बाद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के शोधकर्ताओं ने महसूस किया कि यह कीट तमिलनाडु में पहले ही काफी बड़ी संख्या में फैल चुका है. इस कीट ने 1970 के दशक की शुरुआत में उप-सहारा अफ्रीका में बड़े पैमाने पर फसलों को नुकसान पहुंचाया और लगभग 20 करोड़ लोगों के जीवन-यापन को खतरे में डाल दिया था.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

कसावा माइलबग के कारण खराब हुए कसावा पौधों की अलग-अलग स्टेज । क्रेडिटः ICAR-NBAIR

आईसीएआर केंद्रीय कृषि मंत्रालय के कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग के तहत एक स्वायत्त निकाय है जो भारत में कृषि समन्वय, अनुसंधान प्रबंधन एवं शिक्षा के के क्षेत्र में काम करती है.

कसावा माइलबग से निपटने के लिए शोधकर्ताओं के पास एकमात्र उपाय पश्चिम अफ्रीका के बेनिन से एनागाइरस लोपेज़ी को आयात करना था. आईसीएआर के राष्ट्रीय कृषि कीट संसाधन ब्यूरो (आईसीएआर-एनबीएआईआर) को देश में विदेशी जैविक प्रजातियों को आयात करने का अधिकार है. एनागाइरस लोपेज़ी एक प्रकार का परजीवी ततैया है जो कसावा माइलबग का शिकार करता है और उसे पनपने नहीं देता.

पैरासिटोइड्स को खेतों में छोड़ने का पहला ‘फील्ड रिलीज प्रोग्राम’ 7 मार्च को आईसीएआर-एनबीएआईआर द्वारा आयोजित किया गया था. टैपिओका और कैस्टर रिसर्च स्टेशन, तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय के सहयोग से आयोजित इस कार्यक्रम में तमिलनाडु के छह जिलों के 300 से अधिक टैपिओका किसान ने भाग लिया था. औसतन, प्रति एकड़ पर लगभग 250 ततैया छोड़े गए.

अगले 2-3 सालों तक यह टीम ‘प्रभाव मूल्यांकन परीक्षण’ करेगी ताकि ऑपरेशन सफल रहा या नहीं, इसकी जांच की जा सके. आईसीएआर-एनबीएआईआर के वरिष्ठ वैज्ञानिक एम. संपत कुमार ने दिप्रिंट को बताया कि यह किसानों को अपने खेतों में बड़े पैमाने पर ततैया का उत्पादन करने का प्रशिक्षण भी दे रहा है.

दरअसल यह ‘स्टिंग ऑपरेशन’ पिछली सफलता की कहानियों से प्रेरित था. अब तक 26 अफ्रीकी और चार एशियाई देशों में ततैया को प्रभावित इलाकों में छोड़ा गया था. उसके परिणाम काफी उत्साहजनक थे. अधिकांश कृषि क्षेत्रों में कसावा माइलबग की संख्या में काफी कमी देखी गई.


यह भी पढ़ेंः भारत में जनवरी के बाद जीनोम सिक्वेंसिंग में भेजे गए 45% नमूनों में ओमीक्रॉन था: कोविड लैब नेटवर्क INSACOG


कसावा माइलबग भारत कैसे पहुंचा?

कसावा माइलबग एक विदेशी आक्रमणकारी प्रजाति है. जिसका सीधा सा मतलब है कि कीट मूल रूप से भारत में नहीं पाया जाता. हालांकि शोधकर्ता अभी तक इस बात का पता नहीं लगा पाए हैं कि ये कीट भारतीय खेतों में कैसे पहुंच गए. लेकिन उनके पास कुछ सिद्धांत हैं, जो बताते हैं कि इन कीटों का भारत में आगमन कैसे हुआ होगा.

आईसीएआर-एनबीएआईआर के वैज्ञानिक कुमार ने दिप्रिंट को बताया, ‘यह संभव है कि (कसावा) पौधे का एक टुकड़ा थाईलैंड से तस्करी कर तमिलनाडु लाया गया हो. हालांकि हमें इसकी पुष्टि के लिए और अध्ययन करना होगा.’

चूंकि भारत में इसका शिकार करने वाला कोई कीट नहीं है, इसलिए इसे तमिलनाडु और केरल में अनियंत्रित होकर पनपने और बढ़ने का मौका मिला.

कसावा माइलबग आमतौर पर बौर के ऊपरी भागों और ऊपर लगने वाली पत्तियों के निचले भागों प्रभावित करता है । क्रेडिटः ICAR-NBAIR

कसावा की फसल आंध्र प्रदेश, नागालैंड, असम, मेघालय, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और कुछ हद तक पुडुचेरी, त्रिपुरा, मिजोरम और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में भी उगाई जाती है.

आईसीएआर-एनबीएआईआर प्रेस नोट के अनुसार, भारत में कसावा की उत्पादकता 35 टन प्रति हेक्टेयर है – जो विश्व औसत 10.76 टन प्रति हेक्टेयर से बहुत अधिक है. इतनी अधिक उपज का प्रमुख कारण यह है कि भारतीय पारिस्थितिकी तंत्र में कसावा के लिए अभी तक कोई बड़ा जैविक खतरा नहीं था.

हालांकि, महामारी के दौरान कसावा माइलबग के आने के बाद आंकड़ों में बदलाव आ गया. कुमार ने कहा, ‘कीटों के प्रकोप से उपज घटकर 3-5 टन प्रति हेक्टेयर रह गई है.’

शोधकर्ताओं का मानना है कि बढ़े हुए वैश्वीकरण और व्यापार, भारत में कई नए विदेशी कीटों का प्रवेश का कारण बन गया है.

पिछले दो दशकों में कई विदेशी माइलबग प्रजातियां जैसे कि पैराकोक्कस मार्जिनैटस, फेनाकोकस सोलेनोप्सिस, फेनाकोकस मेडिरेन्सिस, और स्यूडो ककस जैकबर्ड्सली की उपस्थिति पहली बार भारत में दर्ज की गई हैं.

इन सभी ने कई कृषि और बागवानी फसलों को महत्वपूर्ण आर्थिक नुकसान पहुंचाया है. इसलिए कीटनाशकों के बलबूते माइलबग्स से लड़ने के बजाय शोधकर्ताओं ने उनसे निपटने के लिए एक अधिक टिकाऊ रास्ता अपनाने का फैसला किया.

अफ्रीका में हुए नुकसान और उसका मुकाबला करने के लिए किए गए उपाय

1970 के दशक में कसावा माइलबग ने अफ्रीका के कसावा की खेती वाले क्षेत्र में बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाया था. जिससे देश में व्यापक अकाल पड़ गया. लगभग 20 करोड़ लोग इससे प्रभावित हुए थे. उनमें से ज्यादातर गरीब किसान थे जिनका जीवन यापन मुख्य रूप से कसावा पर ही निर्भर था.

नाइजीरिया में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर (IITA) में काम करने वाले वैज्ञानिकों ने कसावा माइलबग के जैविक नियंत्रण में इस्तेमाल होने वाले प्राकृतिक दुश्मनों की खोज में मदद की. यह अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान सलाहकार समूह (सीजीआईएआर) के अनुसंधान केंद्रों में से एक है, जो खाद्य सुरक्षा के अनुसंधान में लगे अंतरराष्ट्रीय संगठनों को एकजुट करती है.

पराग्वे में खोज के बाद, परजीवी ततैया एनागाइरस लोपेज़ी को नाइजीरिया और बेनिन में बड़े पैमाने पर पाला गया. तब सरकारी एजेंसियों के सहयोग से दो दर्जन अफ्रीकी देशों में लगभग 150 स्थानों पर ततैया को छोड़ा गया था.


यह भी पढ़ेंः 1857 में पंजाब में मारे गए सिपाहियों के कंकालों की पहचान में दांतों ने कैसे की मदद, क्या है इसके पीछे का विज्ञान


कैसे एनागाइरस लोपेज़ी ने विदेशों में माइलबग आबादी को कम किया

CGIAR के आंकड़ों के अनुसार, एनागाइरस लोपेज़ी के प्रभाव पर नाइजीरिया में सात सालों तक नजर रखी गई. इसके दीर्घकालिक परिणाम सामने आए थे. एक दर्जन से अधिक देशों में किए गए सर्वे ने कसावा माइलबग जनसंख्या घनत्व में दस गुना गिरावट और सर्वे में शामिल क्षेत्रों के 95 प्रतिशत में नुकसान में कमी की पुष्टि की थी.

थाईलैंड में कीट से प्रभावित कसावा खेतों में 2009 में इसी तरह का ऑपरेशन चलाया गया था. इन सफल संचालनों से प्रेरित होकर आईसीएआर ने भारत में इस पद्धति को आजमाने का फैसला किया.

महामारी की वजह से लगे लॉकडाउन के दौरान, आईसीएआर की शोध टीम ने थाईलैंड से परजीवी ततैया के आयात के लिए केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय और इसके पौध संरक्षण, संगरोध और भंडारण निदेशालय से आवश्यक अनुमति प्राप्त करने की प्रक्रिया शुरू की.

आईसीएआर के वैज्ञानिक कुमार ने दिप्रिंट को बताया कि परमिट मिलने के बावजूद राजनयिक मुद्दे सामने आए, जिसका मतलब था कि वैज्ञानिकों को दूसरे स्रोत की तलाश करनी पड़ेगी.

इसके बाद टीम ने बेनिन गणराज्य में आईआईटीए के उप-केंद्र से संपर्क किया.

कुमार ने कहा कि ततैया की पहली खेप जुलाई 2021 में भारत आई थी, लेकिन कस्टम में गड़बड़ी के चलते ततैयों को सही ढंग से नहीं रखा गया जिस कारण ततैयों की मृत्यु हो गई. शोधकर्ताओं ने फिर अगस्त में दूसरा बैच आयात किया.

एनागाइरस लोपेज़ी पर जीव विज्ञान, सुरक्षा और मेजबान विशिष्टता पर जरूरी क्वारंटाइन स्टडी आईसीएआर-एनबीएआईआर क्वारंटाइन फैसिलिटी में किए गए थे.

तमिलनाडु में कसावा के पेड़ों पर ततैया को छोड़ते हुए । क्रेडिटः ICAR-NBAIR

कुमार ने कहा, ‘हमें किसी भी विदेशी प्रजाति को लाने से पहले विशेष ध्यान रखना होता है. ऐसी प्रजातियों को आयात करने से पहले यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रजाति पारिस्थितिकी तंत्र मौजूदा प्राकृतिक प्रजातियों को कोई नुकसान तो नहीं पहुंचाएगी या फिर वो इन परिस्थितियों का मुकाबला कर पाएगी, विशेषज्ञों द्वारा विस्तृत अध्ययन किया जाता है.’

उन्होंने कहा, ‘हमारे पास यह सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य प्रोटोकॉल हैं कि आयातित प्रजातियां एक नया कीट नहीं बनेगा और यह किसी भी मौजूदा प्रजाति को रिलीज होने पर नुकसान नहीं पहुंचाएगा’ उन्होंने कहा, ‘उन्हें प्रजातियों के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए प्रोटोकॉल स्थापित करना होता है और साथ ही यह सुनिश्चित करने के लिए कि आयातित प्रजाति कोई नया संक्रमण नहीं फैलाएगी, उसे क्वारेंटाइन किया जाता है.’

7 मार्च को ततैयों की पहली खेप खेतों में छोड़े जाने से पहले शोधकर्ताओं ने राज्य कृषि विश्वविद्यालयों, राज्य के बागवानी विभागों और कृषि विज्ञान केंद्रों (कृषि विज्ञान केंद्रों) के कर्मचारियों के लिए ततैया के बड़े पैमाने पर उत्पादन और फील्ड में रिलीज करने की तकनीकों के बारे में प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए थे.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः ‘एक हजार रुपये’ में 3डी ग्लव्स, IISC टीम स्ट्रोक के मरीजों के लिए लेकर आई सस्ती वर्चुअल फिजियोथेरेपी


 

Exit mobile version