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‘माज़ा, बरकते, ज़ोरबी’: इमरोज़ का होना अमृता प्रीतम के जीवन की सबसे बड़ी तसल्ली थी

अमृता प्रीतम की लंबी जिंदगी में कई पड़ाव हैं. इस संसार में नए-नए और अलबेले रंग हैं, मिट्टी की खुशबू है, रिश्तों का सौंधापन है, स्मृतियों का खजाना है, यात्राओं की उत्सुकता और थकान है.

अमृता प्रीतम और इमरोज़ | फोटो: ट्विटर

साहित्य और कला कर्म क्या प्रेम और अनुभवों के सांचे में ढली जिंदगी के बिना संभव है? ये सवाल बड़ा जटिल है लेकिन कई संभावनाएं और एहसास लिए हुए हैं. संभावनाओं और एहसास की तलाश में अक्सर इंसान सफर करता है. कभी ये सफर जिंदगी भर तक चलता है तो कभी मंजिल बड़े एहतराम के साथ दस्तक देती है.

प्रेम और एहसासात पर बात करें तो अमृता प्रीतम के बिना गुफ्तगू पूरी ही नहीं हो सकती. अमृता प्रीतम की दुनिया जितनी उनकी लेखनी की विराटता से संपन्न और प्रतिष्ठित है उतनी ही उनकी निजी जिंदगी अलग संसार लिए हुए है. इस संसार में नए-नए और अलबेले रंग हैं, मिट्टी की खुशबू है, रिश्तों का सौंधापन है, स्मृतियों का खजाना है, यात्राओं की उत्सुकता और थकान है.

इस सब के बावजूद अकेलापन और खालीपन भी है जो अमृता प्रीतम को संपूर्णता के साथ अधूरापन भी देता है. इस खालीपन में उनके साथ सिर्फ एक ही शख्सियत की मौजूदगी जिंदगी भर रहती है जो उनके इन पलों में भी रंग भरता है. वो हैं- इंद्रजीत यानी इमरोज़.

अमृता प्रीतम की लंबी जिंदगी में कई पड़ाव हैं और हर किसी पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है लेकिन 1960 और 1970 के बीच इमरोज़ को लिखे उनके खतों का संसार भी इतना विस्तृत और अनुभवों से भरा है कि उसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. बरबस उनकी जिंदगी के इस पड़ाव पर नज़र पड़ ही जाती है.

अमृता प्रीतम की 102वीं जयंती पर दिप्रिंट उनके खतों के सफर और जीवन के कुछ खूबसूरत क्षणों पर नज़र डाल रहा है जो जिंदगी को समझने और उसके विस्तार को जानने के लिए एक अप्रतिम दस्तावेज है.

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अमृता-इमरोज़ के मोहब्बत भरे खत

1960 के दशक के अंत में इमरोज़ की अमृता प्रीतम से मुलाकात होती है और दोनों का पत्र व्यवहार भी करीब उसी समय शुरू होता है. उस समय जो ये संबंध बना तो अगले 45 सालों तक जारी रहा.

इमरोज़ जब अमृता प्रीतम से मिले तो वो दो बच्चों की मां थीं और अपने पति से अलग हो चुकी थीं. इसी बीच वो शायर साहिर लुधियानवी को भी पसंद करती थीं लेकिन दोनों के रिश्ते आगे नहीं बढ़ सके. इमरोज़ उन दिनों उभरते हुए चित्रकार थे और हिन्दी सिनेमा की बम्बईया दुनिया में उनकी काफी मांग थी.

अमृता प्रीतम और इमरोज़ की दोस्त उमा त्रिलोक ने दोनों के खतों को एक साथ समेटकर एक किताब की शक्ल दी है जिसका नाम है- खतों का सफरनामा. वो किताब की शुरुआत में लिखती हैं, ‘इस किताब में दिए गए अमृता-इमरोज़ के वह मोहब्बत भरे खत हैं, जो इन दोनों की प्यार भरी जिंदगी के अंदर झांकने के लिए एक झरोखा हैं.’

अमृता-इमरोज़ के खतों की सबसे सुंदर बात है उसमें एक दूसरे के लिए संबोधित किए गए शब्द, खासकर इमरोज़ द्वारा. कभी वो उन्हें ‘आशी ‘ कहते, कभी ‘बरकते ‘, कभी ‘माजा ‘ तो कभी ‘ज़ोरबी ‘.

उमा त्रिलोक इस बारे में लिखती हैं, ‘इमरोज़ अमृता को बहुत से नामों से बुलाते रहे हैं. ‘आशी’ से लेकर ‘बरकते’ तक, कितने ही नामों से. उन्हें जो भी सुंदर लगता, वह उन्हें उसी नाम से पुकारने लगते. जो भी पसंद आता, वही नाम रख देते.’


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यात्राओं के बेमिसाल अनुभव

अमृता प्रीतम अपनी सशक्त लेखनी से काफी प्रसिद्ध थीं और उन्हें दुनिया भर के साहित्य और कला पसंद लोग अलग-अलग देशों में बुलाते थे. इमरोज़ से अलग होना तो उन्हें अच्छा नहीं लगता था लेकिन दूसरे मुल्कों से लिखे खतों में यात्राओं का अनुभव, मुल्कों की खासियत और उसकी उदासी और अकेलेपन को जो उन्होंने बयां किया, वो इन खतों को महत्वपूर्ण दस्तावेज बना देता है.

1966 और 1967 में अमृता प्रीतम ने बल्गारिया, मॉस्को, यूगोस्लाविया, हंगरी, रोमानिया, जर्मनी और तेहरान की यात्राएं कीं और वहां से इमरोज़ को खूबसूरत और मानीखेज़ खत लिखें. इन खतों में वो शहर की खूबसूरती, वहां के लोग, चीज़ों के दामों के बारे में खुल के लिखती हैं और अपनी पसंदीदा चाय को काफी मिस करती हैं.

इमरोज़ को लिखे एक खत में अमृता लिखती हैं, ‘बैलग्रेड की चमक-दमक के बाद हंगरी की प्राचीन और समय की धूल से मैली इमारतें बहुच चुप और उदास लगती हैं.’ दूसरे खत में वो हंगरी के बारे में लिखते हुए कहती हैं, ‘हंगरी देश पहली नज़र में उदास और मैला लगता है, लेकिन यह अपनी खूबसूरती को धीरे-धीरे दिखाता है, जल्दी नहीं करता.’

खतों में अमृता यूगोस्लाविया की मूर्तिकला पर बात करती हैं और 1944 में जर्मन फौज ने किस तरह बैलग्रेड के लोगों का एक ही दिन में कत्ल कर दिया था, उसका भी जिक्र करती हैं.


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नज़्म और इमेज का रिश्ता

अमृता प्रीतम पंजाबी की सबसे बड़ी कवयित्री हैं और हिन्दी भाषा में भी उनके असंख्य चाहने वाले हैं. उन्होंने 100 से ज्यादा किताबें लिखीं और अपने किरदारों को समाज की चौखट पर पूरी दावेदारी के साथ खड़ा किया. उनकी इसी खासियत और दृढ़ता ने साहित्य जगत में उन्हें लोकप्रिय बनाया लेकिन इसी के साथ उनको नीचा दिखाने वालों की भी कोई कमी न थी.

मशहूर लेखक और शायर गुलज़ार ने उमा त्रिलोक की एक और किताबअमृता मइरोज़ ‘ में लिखा है, ‘अमृता अपने आप में एक बड़ी लीजेंड हैं. वे पंजाबी शायरी में बंटवारे के बाद की आधी सदी की नुमाइंदा शायरा हैं.’

‘शायरी के अलावा दुपट्टे की एक गिठ्ठा में नॉवल और अफसाने बांध कर वे भी कंधों पर फेंक लिए हैं, और मुहब्बत का एक ऐसा दुशाला ओढ़ लिया है जो इमरोज़ की निध से महकता रहता है. अब कौन बताए कि दुशाले ने उन्हें ओढ़ रखा है या वे दुशाले को जफ्फी मारे रहती हैं?’

अमृता-इमरोज़ के रिश्ते पर गुलजार कहते हैं, ‘उनका रिश्ता नज़्म और इमेज का रिश्ता है. आप बता नहीं सकते कि तख़लीक के जन्म के लिए किसने पहल की? अमृता जी की नज़्में पेंटिंग की तरह खुशरंग हैं, फिर चाहे वे दर्द की आवाज़ हों या दिलासे की. इसी तरह इमरोज़ की पेंटिंग नज़्मों के आबे-हयात पर तैरती हैं.’


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‘सच्चाई से रिश्ते को जिया’

1964 में जब अमृता-इमरोज़ ने एक साथ रहने का फैसला किया तो उन पर समाज के नियम तोड़ने के उलाहने दिए गए. उस दौर में औरत-मर्द का बिना शादी कर रहना एक बड़ा फैसला हुआ करता था और समाज में एक नई चीज़ थी जिसकी नींव दोनों ने रखी थी.

समाज के नियम तोड़ने पर जब अमृता प्रीतम से पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘हम दोनों ने प्रेम के बंधन को और मजबूत किया है. जब शादी का आधार ही प्रेम है तो हमने कौन सा सामाजिक नियम या बंधन तोड़ा है? हमने तन, मन, कर्म और वचन के साथ निभाया है, जो शायद बहुत से दूसरे जोड़े नहीं कर पाते. हमने हर मुश्किल का सामना किया है, इकट्ठे और पूरी सच्चाई से इस रिश्ते को जिया है.’


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‘सारे दिन तुम लोग घर में क्या करते हो? – गल्लां’

अमृता और इमरोज़ अपने दिल्ली स्थित हौज़ खास वाले घर से बहुत ही कम निकलते थे. अमृता के मित्र और जाने-माने लेखक खुशवंत सिंह अक्सर दोनों को अपने घर बुलाया करते थे लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने वहां जाना कम कर दिया.

उमा त्रिलोक अपनी किताब ‘अमृता-इमरोज़’ में इस वाकये के बारे में लिखती हैं, ‘एक दिन खुशवंत सिंह ने अमृता को फोन करके कहा, ‘तुम बाहर क्यों नहीं निकलती? सारे दिन तुम लोग घर में क्या करते हो?’

अमृता ने इस पर बड़ा ही दिलचस्प जवाब दिया. उन्होंने कहा- ‘गल्लां यानी बातें और वो हंस दी.’

अमृता प्रीतम ने अपने दुख और पीड़ा को अपने साहित्यिक किरदारों में ढाला और खुद जीवन भर उसका घूंट पीती रहीं लेकिन इमरोज़ का उनके साथ होना उनकी सबसे बड़ी तसल्ली थी.

अमृता के आखिरी दिनों में इमरोज़ ने उनकी काफी सेवा की और हमेशा उनके साथ रहे. अमृता के खूबसूरती भरे अल्फाजों को पढ़ते-पढ़ते खुद इमरोज़ भी अच्छी कविता लिखने लगे थे. उन्होंने अमृता के लिए एक बार लिखा था-

वह कविता जीती
और जिंदगी लिखती
और नदी सी चुपचाप बहती
ज़रखेज़ी बांटती
जा रही है सागर की ओर
सागर बनने

अमृता ने शब्दों के जरिए जो लेखनी का सागर बनाया उसमें न जाने कितने ही लोग आज तक अपनी बूंदें खोजते हैं. उनके शब्दों के सागर की एक-एक बूंद कल्पनाओं और यथार्थ का एहसास है. एहसास और इकरार है मोहब्बत का, फलसफा है जीवन का और यही संपूर्णता के साथ बनाती और गढ़ती है अमृता प्रीतम जैसा व्यक्तित्व. बेमिसाल, तिलिस्मी, काल्पनिक….

इमरोज़ के लिए अपने जीवन के ढलते सांझ में अमृता प्रीतम ने ये खूबसूरत नज़्म लिखी थी-

मैं तुझे फ़िर मिलूंगी
कहां किस तरह पता नही
शायद तेरी तख्यिल की चिंगारी बन
तेरे केनवास पर उतरूंगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
खामोश तुझे देखती रहूंगी


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